Pages

Pages

17. जो साधना हम पहले कर रहे हैं, क्या वह त्यागनी पड़ेगी

प्रश्न: जो साधना हम पहले कर रहे हैं, क्या वह त्यागनी पड़ेगी?

उत्तर: यदि शास्त्राविधि रहित है तो त्यागनी पड़ेगी। यदि अनाधिकारी से दीक्षा ले रखी है, उसका कोई लाभ नहीं होना। पूर्ण गुरु से साधना की दीक्षा लेनी पड़ेगी।
प्रश्न: गीता अध्याय 18 श्लोक 47 में तथा गीता अध्याय 3 श्लोक 35 में कहा है:-
श्रेयान् स्वधर्मः विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनम् श्रेयः परधर्मः, भयावहः।। (गीता अध्याय 3 श्लोक 35)
अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।
उत्तर: यह अनुवाद गलत है। यदि यह बात सही है कि अपना धर्म चाहे गुणरहित हो तो भी उसे नहीं त्यागना चाहिए तो फिर श्रीमद्भगवत गीता का ज्ञान 18 अध्यायों के 700 श्लोकों में लिखने की क्या आवश्यकता थी? एक यह श्लोक पर्याप्त था कि अपनी साधना जैसी भी हो उसे करते रहो, चाहे वह गुणरहित (लाभ रहित) भी क्यों न हो। फिर गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में यह क्यों कहा कि रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव की पूजा राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूर्ख लोग मुझे नहीं भजते। गीता ज्ञान दाता ने उन साधकों से उनका धर्म अर्थात् धार्मिक साधना त्यागने को कहा है तथा गीता अध्याय 7 के ही श्लोक 20 से 23 में कहा है कि जो मेरी पूजा न करके अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, वे अज्ञानी हैं। उनकी साधना से शीघ्र समाप्त होने वाला सुख (स्वर्ग समय) प्राप्त होता है। फिर अपनी
धार्मिक पूजा अर्थात् धर्म भी त्यागने को कहा है। पूर्ण लाभ के लिए परम अक्षर ब्रह्म का धर्म अर्थात् धार्मिक साधना ग्रहण करने के लिए कहा है।
गीता अध्याय 3 श्लोक 35 का यथार्थ अनुवाद इस प्रकार है:-
अनुवाद: (विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्) दूसरों के गुण रहित अर्थात् लाभ रहित अच्छी प्रकार चमक-धमक वाले धर्म अर्थात् धार्मिक कर्म से (स्वर्धमः) अपना शास्त्राविधि अनुसार धार्मिक कर्म (श्रेयान्) अति उत्तम है। (स्वधर्मे) अपने शास्त्रविधि अनुसार धर्म-कर्म के संघर्ष में (निधनम्) मरना भी (श्रेयः) कल्याणकारक है। (परधर्म) दूसरों का धार्मिक कर्म (भयावहः) भय को देने वाला है। भावार्थ है कि जैसे जागरण वगैरह होता है तो उसमें बड़ी सुरीली तान में सुरीले गीत गाए जाते हैं। तड़क-भड़क भी होती है। अपने शास्त्राविधि अनुसार धर्म-कर्म में केवल नाम-जाप या सामान्य तरीके से आरती की जाती है। किसी भी वेद या गीता में श्री देवी जी की पूजा तथा जागरण करने की आज्ञा नहीं है। जिस कारण शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण हुआ, इसलिए व्यर्थ है। दूसरों का शास्त्रविधि रहित धार्मिक कर्म देखने में अच्छा लगता है, उसमें लोग-दिखावा अधिक होता है तो सत्य साधना करने वाले को दूसरों के धार्मिक कर्म को देखकर डर बन जाता है कि कहीं हमारी भक्ति ठीक न हो। परन्तु तत्व ज्ञान को समझने के पश्चात् यह भय समाप्त हो जाता है। तत्व ज्ञान में बताया है कि:-
दुर्गा ध्यान पड़े जिस बगड़म, ता संगति डूबै सब नगरम्।
दम्भ करें डूंगर चढ़ै, अन्तर झीनी झूल।
जग जाने बन्दगी करें, बोवें सूल बबूल।।
इसलिए निर्गुण अर्थात् लाभरहित धार्मिक साधना को त्यागकर सत्य साधना शास्त्रविधि अनुसार करने से ही कल्याण होगा।

No comments:

Post a Comment