संगत मे कुसंगत उपजै जैसे बन मे बांस ।आपा घिस घिस आग लगा दे कर दे वन खंड का नास।।
मूर्ख को समझावते ज्ञान गांठ का जाय।कोयला होय न ऊजला चाहे सौ मन साबुन लाय।। आवत गाली एक है उल्टा होय अनेक ।कह कबीर नही उलटिए रहे एक की एक।। हरिजन तो हारा भला जीतन दे संसार।हारा तो हरि से मिले जीता यम की लार ।। गाली ही से ऊपजै कलह कष्ट और मीच । हार चलै सो साधू है लाग मरै सो नीच।। मूर्ख का मुख बिम्ब है निकसत बचन भुजंग।ताकी औषध मौन है विष नही व्याप्त अंग।। जेता घट तेता मता घट घट और स्वभाव। जा घट हार न जीत है ता घट ब्रह्म समाव।। कथा करौ करतार की सुनो कथा करतार ।आन कथा सुनिऐ नही कहैं कबीर विचार।। संत न छोड़े सन्तता चाहै कोटिक मिलौ असन्त।चंदन भुवंगा बैठिया तंऊ शीतलता न तजन्त।। जो तोकू कांटा बबै ताहि बोउ तू फूल। तेरे फूल के फूल है वाको है त्रिशूल।। निन्दक एको न मिले पापी मिले हजार ।एक निन्दक के शीश पर लाख पाप का भार।। मानव जन्म दुर्लभ है मिलै न बारम्बार।तरुवर से पत्ता टूट गिरै बहुरि न लगता डार।। मानुष जन्म पाय कर नाहि रटै हरि नाम ।जैसे कुआ जल विना खुदवाया किस काम।। जुल्म किये तीनो गये धन धर्म और वंस।ना मानो तो देख लो रावण कौरव कंस।। बन्दीछोड़ ने आगाह किया है और कहा भी है : -
मै ही हिरणाकशप मारिया मै ही मारा कंस ।जो मेरे साध को सतावे उसका खो दू वंस।।
सत साहेब जी
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