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Tuesday, December 29, 2015

घर में जो मानुष मरे, बाहर देत जलाए,

घर में जो मानुष मरे, बाहर देत जलाए,
आते हैं फिर घर में, औघट घाट नहाय,
औघट घाट नहाय, बाहर से मुर्दा लावें,
नून मिर्च घी डाल, उसे घर माहिं पकावें,
कहे कबीरदास उसे फिर भोग लगावें,
घर - घर करें बखान, पेट को कबर बनावें |
संत कबीर जी कहते हैं कि घर में जो परिजन
मर जाता है, उसे तो लोग तुरन्त शमशान ले
जाकर फूँक आते हैं | फिर वापिस आकर खूब
अच्छी तरह से मल - मल कर नहाते हैं | मगर
विडम्बना देखो, नहाने के थोड़ी देर बाद,
बाहर से (किसे मरे जानवर का ) मुर्दा
उठाकर घर में ले आते हैं | खूब नमक, मिर्च
और घी डालकर उसे पकाते हैं | तड़का
लगाते हैं और फिर उसका भोग लगाते हैं |
बात इतने पर भी ख़त्म नहीं होती | आस -
पड़ोस में, रिश्तेदार या मित्रों के बीच
उस मुर्दे के स्वाद का गा - गाकर बखान
भी करते हैं | मगर ये मूर्ख नहीं जानते ,जाने
- अनजाने ये अपने पेट को ही कब्र बना बैठे
हैं!
कुछ लोगों का ये विचार है कि मंगलवार
और शनिवार को तो मैं भी नहीं खाता |
पर क्या यही दो दिन धार्मिक बातें
माननी चाहिए? क्या बाकी दिन ईश्वर
के नहीं है? जब पता है कि चीज गलत है,
अपवित्र है, भगवान को पसंद नहीं, तो
फिर उसे किसी भी दिन क्यों खाया जाए?
वैसे भी, क्या हम मंदिर में कभी मांस वगैरह
लेकर जाते हैं? नहीं न! फिर क्या यह
शारीर परमात्मा का जीता - जागता
मंदिर नहीं है? हमारे अंदर भी तो वही
शक्ति है, जिसे हम बाहर पूजते हैं | फिर
इस जीवंत मंदिर में मांस क्यों? कबीर जी
ने सही कहा, हमने तो इस मंदिर रुपी
शारीर को कब्र बना दिया है | बर्नार्ड
शा ने भी यही कहा - 'हम मांस खाने वाले
वो चलती फिरती कब्रें हैं, जिनमें मारे गए
पशुओं की लाशें दफ़न की गई हैं|'
जीअ बधहु सु धरमु करि थापहु अधरमु कहहु
कत भाई ॥
आपस कउ मुनिवर करि थापहु का कउ कहहु
कसाई ॥२॥(Gurbani - 1103)
यदि तुम लोग किसी जीव की हत्या करके,
उसे धर्म कहते हो तो फिर अधर्म किसे
कहोगे? ये ऐसे कुकर्म करके तुम स्वयं को
सज्जन समझते हो, तो यह बताओ कि फिर
कसाई किसे कहोगे?
जैसे हर जीव की एक विशेष खुराक है |
अपना एक स्वाभाविक भोजन है और वह
उसी का भक्षण करता है | उसी पर कायम
रहता है | शेर भूखा होने पर भी कभी शाक
- पत्तियां नहीं खाएगा | गाय चाहे
कितनी भी शुधाग्रस्त क्यों न हो, पर
अपना स्वाभाविक आहार नहीं बदलेगी |
क्या कभी उसको मांसाहार करते हुए देखा
है? बस एक इन्सान ही है, जो अपने
स्वाभाविक आहार से हटकर कुछ भी भक्ष्य
- अभक्ष्य खा लेता है | स्वयं विचार
कीजिए, पशुओं की तुलना में आज मनुष्य कौन
से स्तर पर खड़ा है |

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