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Sunday, February 7, 2016

कबीर साहिब ने गुरु नानक देव जी को सतनाम दिया तथा सत लोक (सचखंड) दिखाया kabir saheb Nanak suru

साहेब कबीर द्वारा श्री नानक जी को तत्वज्ञान समझाना

‘‘नानक जी का संक्षिप्त परिचय’’
Jagat Guru Rampal Ji
संत रामपाल जी महाराज
आदरणीय श्री नानक साहेब जी प्रभु कबीर(धाणक) जुलाहा के साक्षी - श्री नानक देव का जन्म विक्रमी संवत् 1526 (सन् 1469) कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को हिन्दु परिवार में श्री कालु राम मेहत्ता (खत्री) के घर माता श्रीमति तृप्ता देवी की पवित्र कोख (गर्भ) से पश्चिमी पाकिस्त्तान के जिला लाहौर के तलवंडी नामक गाँव में हुआ। इन्होंने फारसी, पंजाबी, संस्कृत भाषा पढ़ी हुई थी। श्रीमद् भगवत गीता जी को श्री बृजलाल पांडे से पढ़ा करते थे। श्री नानक देव जी के श्री चन्द तथा लखमी चन्द दो लड़के थे।
श्री नानक जी अपनी बहन नानकी की सुसराल शहर सुल्तान पुर में अपने बहनोई श्री जयराम जी की कृपा से सुल्तान पुर के नवाब के यहाँ मोदी खाने की नौकरी किया करते थे। प्रभु में असीम प्रेम था क्योंकि यह पुण्यात्मा युगों-युगों से पवित्र भक्ति ब्रह्म भगवान(काल) की करते हुए आ रहे थे। सत्ययुग में यही नानक जी राजा अम्ब्रीष थे तथा ब्रह्म भक्ति विष्णु जी को इष्ट मानकर किया करते थे। दुर्वासा जैसे महान तपस्वी ऋषि भी इनके दरबार में हार मान कर क्षमा याचना करके गए थे।
त्रोता युग में श्री नानक जी की आत्मा राजा जनक विदेही बने। जो सीता जी के पिता कहलाए। उस समय सुखदेव ऋषि जो महर्षि वेदव्यास के पुत्र थे जो अपनी सिद्धि से आकाश में उड़ जाते थे। परन्तु गुरु से उपदेश नहीं ले रखा था। जब सुखदेव विष्णुलोक के स्वर्ग में गए तो गुरु न होने के कारण वापिस आना पड़ा। विष्णु जी के आदेश से राजा जनक को गुरु बनाया तब स्वर्ग में स्थान प्राप्त हुआ। फिर कलियुग में यही राजा जनक की आत्मा एक हिन्दु परिवार में श्री कालुराम महत्ता (खत्री) के घर उत्पन्न हुए तथा श्री नानक नाम रखा गया।
नानक जी तथा परमेश्वर कबीर जी की ज्ञान चर्चा
Jagat Guru Rampal Ji
संत रामपाल जी महाराज
बाबा नानक देव जी प्रातःकाल प्रतिदिन सुल्तानपुर के पास बह रही बेई दरिया में स्नान करने जाया करते थे तथा घण्टों प्रभु चिन्तन में बैठे रहते थे।
एक दिन एक जिन्दा फकीर बेई दरिया पर मिले तथा नानक जी से कहा कि आप बहुत अच्छे प्रभु भक्त नजर आते हो। कृप्या मुझे भी भक्ति मार्ग बताने की कृपा करें। मैं बहुत भटक लिया हूँ। मेरा संशय समाप्त नहीं हो पाया है।
श्री नानक जी ने पूछा कि आप कहाँ से आए हो? आपका क्या नाम है? क्या आपने कोई गुरु धारण किया है?
तब जिन्दा फकीर का रूप धारण किए कबीर जी ने कहा मेरा नाम कबीर है, बनारस (काशी) से आया हूँ। जुलाहे का काम करता हूँं। मैंने पंडित रामानन्द स्वामी जी से नाम उपदेश ले रखा है।
श्री नानक जी ने बन्दी छोड़ कबीर जी को एक जिज्ञासु जानकर भक्ति मार्ग बताना प्रारम्भ किया:-
श्री नानक जी ने कहा हे जिन्दा! गीता में लिखा है कि एक ‘ओ3म’ मंत्र का जाप करो। सतगुण श्री विष्णु जी (जो श्री कृष्ण रूप में अवतरित हुए थे) ही पूर्ण परमात्मा है। स्वर्ग प्राप्ति का एक मात्र साधारण-मार्ग है। गुरु के बिना मोक्ष नहीं, निराकार ब्रह्म की एक ‘ओम् ’मंत्र की साधना से स्वर्ग प्राप्ति होती है।
जिन्दा रूप में कबीर परमेश्वर ने कहा गुरु किसे बनाऊँ? कोई पूरा गुरु मिल ही नहीं रहा जो संशय समाप्त करके मन को भक्ति में लगा सके।
स्वामी रामानन्द जी मेरे गुरु हैं परन्तु उन से मेरा संशय निवारण नहीं हो पाया है(यहाँ पर कबीर परमेश्वर अपने आप को छुपा कर लीला करते हुए कह रहे हैं तथा साथ में यह उद्देश्य है कि इस प्रकार श्री नानक जी को समझाया जा सकता है।)।
श्री नानक जी ने कहा मुझे गुरु बनाओ, आप का कल्याण निश्चित है। जिन्दा महात्मा के रूप में कबीर परमेश्वर ने कहा कि मैं आप को गुरु धारण करता हूँ, परन्तु मेरे कुछ प्रश्न हैं, उनका आप से समाधान चाहूँगा। श्री नानक जी बोले - पूछो। जिन्दा महात्मा के रूप में कबीर परमेश्वर ने कहा हे गुरु नानक जी! आपने बताया कि तीन लोक के प्रभु (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) है। त्रिगुण माया सृष्टि, स्थिति तथा संहार करती है। श्री कृष्ण जी ही श्री विष्णु रूप में स्वयं आए थे, जो सर्वेश्वर, अविनाशी, सर्व लोकों के धारण व पोषण कर्ता हैं। यह सर्व के पूज्य हैं तथा सृष्टि रचनहार भी यही हैं। इनसे ऊपर कोई प्रभु नहीं है। इनके माता-पिता नहीं है, ये तो अजन्मा हैं। श्री कृष्ण ने ही गीता ज्ञान दिया है(यह ज्ञान श्री नानक जी ने श्री बृजलाल पाण्डे से सुना था, जो उन्हें गीता जी पढ़ाया करते थे)। परन्तु गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि अर्जुन! मैं तथा तू पहले भी थे तथा यह सर्व सैनिक भी थे, हम सब आगे भी उत्पन्न होंगे। तेरे तथा मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता मैं जानता हूँ। इससे तो सिद्ध है कि गीता ज्ञान दाता भी नाशवान है, अविनाशी नहीं है। गीता अध्याय 7 श्लोक 15 में गीता ज्ञान दाता प्रभु कह रहा है कि जो त्रिगुण माया (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिवजी) के द्वारा मिलने वाले क्षणिक लाभ के कारण इन्हीं की पूजा करके अपना कल्याण मानते हैं, इनसे ऊपर किसी शक्ति को नहीं मानते अर्थात् जिनकी बुद्धि इन्हीं तीन प्रभुओं(त्रिगुणमयी माया) तक सीमित है वे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दुष्कर्म करने वाले, मूर्ख मुझे भी नहीं पूजते। इससे तो सिद्ध हुआ कि श्री विष्णु (सतगुण) आदि पूजा के योग्य नहीं है तथा अपनी साधना के विषय में गीता ज्ञान दाता प्रभु ने गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में कहा है कि मेरी (गति) पूजा भी (अनुत्तमाम्) अति घटिया है। इसलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 4, अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि उस परमेश्वर की शरण में जा जिसकी कृपा से ही तू परम शान्ति तथा सनातन परम धाम सतलोक चला जाएगा। जहाँ जाने के पश्चात् साधक का जन्म-मृत्यु का चक्र सदा के लिए छूट जाएगा। वह साधक फिर लौट कर संसार में नहीं आता अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है। उस परमात्मा के विषय में गीता ज्ञान दाता प्रभु ने कहा है कि मैं नहीं जानता। उस के विषय में पूर्ण (तत्व) ज्ञान तत्वदर्शी संतों से पूछो। जैसे वे कहें वैसे साधना करो। प्रमाण गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में। श्री नानक जी से परमेश्वर कबीर साहेब जी ने कहा कि क्या वह तत्वदर्शी संत आपको मिला है जो पूर्ण परमात्मा की भक्ति विधि बताएगा ? श्री नानक जी ने कहा नहीं मिला। परमेश्वर कबीर जी ने कहा जो भक्ति आप कर रहे हो यह तो पूर्ण मोक्ष दायक नहीं है। उस पूर्ण परमात्मा के विषय में पूर्ण ज्ञान रखने वाला मैं ही वह तत्वदर्शी संत हूँ। बनारस (काशी) में धाणक (जुलाहे) का कार्य करता हूँ। गीता ज्ञान दाता प्रभु स्वयं को नाशवान कह रहा है, जब स्वर्ग तथा महास्वर्ग (ब्रह्मलोक) भी नहीं रहेगा तो साधक का क्या होगा ? जैसे आप ने बताया कि श्रीमद् भगवत गीता में लिखा है कि ओ3म मंत्र के जाप से स्वर्ग प्राप्ति हो जाती है। वहाँ स्वर्ग में साधक जन कितने दिन रह सकते हैं? श्री नानक जी ने उत्तर दिया जितना भजन तथा दान के आधार पर उनका स्वर्ग का समय निर्धारित होगा उतने दिन स्वर्ग में आनन्द से रह सकते हैं।
जिन्दा फकीर ने प्रश्न किया कि तत् पश्चात् कहाँ जाएँगे?
उत्तर (नानक जी का) - फिर इस मृत लोक में आना होता है तथा कर्माधार पर अन्य योनियाँ भी भोगनी पड़ती हैं।
प्रश्न (जिन्दा रूप में कबीर साहेब का)- क्या जन्म मरण मिट सकता है? उत्तर (श्री नानक जी का) - नहीं, गीता में कहा है अर्जुन तेरे मेरे अनेक जन्म हो चुके हैं और आगे भी होंगे अर्थात् जन्म-मरण बना रहेगा(गीता अध्याय 2 श्लोक 12 तथा अध्याय 4 श्लोक 5)। शुभ कर्म ज्यादा करने से स्वर्ग का समय अधिक हो जाता है।
प्रश्न {जिन्दा फकीर (कबीर जी) का} - गीता अध्याय न. 8 के श्लोक न. 16 में लिखा है कि ब्रह्मलोक से लेकर सर्वलोक नाशवान हैं। उस समय कहाँ रहोगे? जब न पृथ्वी रहेगी, न श्री विष्णु रहेगा, न विष्णुलोक, न स्वर्ग लोक तथा पूरे ब्रह्मण्ड का विनाश होगा। इसलिए गीता ज्ञान दाता प्रभु कह रहा है कि किसी तत्वदर्शी संत की खोज कर, फिर जैसे उस पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति की विधि वह संत बताए उसके अनुसार साधना कर। उसके पश्चात् उस परम पद परमेश्वर की खोज करनी चाहिए, जहाँ पर जाने के पश्चात् साधक का फिर जन्म-मृत्यु कभी नहीं होता अर्थात् फिर लौट कर संसार में नहीं आते। जिस परमेश्वर से सर्व ब्रह्मण्डों की उत्पत्ति हुई है। मैं (गीता ज्ञान दाता) भी उसी पूर्ण परमात्मा की शरण में हूँ (गीता अध्याय 4 श्लोक 34, अध्याय 15 श्लोक 4) इसलिए कहा है कि अर्जुन सर्व भाव से उस परमेश्वर की शरण में जा जिसकी कृपा से ही तू परम शान्ति तथा सतलोक स्थान अर्थात् सच्चखण्ड में चला जाएगा(गीता अध्याय 18 श्लोक 62)। उस पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति का ओम-तत्-सत् केवल यही मंत्र है(गीता अध्याय 17 श्लोक 23)।
उत्तर नानक जी का - इसके बारे में मुझे ज्ञान नहीं।
जिन्दा फकीर (कबीर साहेब) ने श्री नानक जी को बताया कि यह सर्व काल की कला है। गीता अध्याय न. 11 के श्लोक न. 32 में स्वयं गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने कहा है कि मैं काल हूँ और सभी को खाने के लिए आया हूँ। वही निरंकार कहलाता है। उसी काल का ओंकार (ओम्) मंत्र है।
गीता अध्याय न. 11 के श्लोक न. 21 में अर्जुन ने कहा है कि आप तो ऋषियों को भी खा रहे हो, देवताओं को भी खा रहे हो जो आपही का स्मरण स्तुति वेद विधि अनुसार कर रहे हैं। इस प्रकार काल वश सर्व साधक साधना करके उसी के मुख में प्रवेश करते रहते हैं। आपने इसी काल (ब्रह्म) की साधना करते करते असंख्यों युग हो गए। साठ हजार जन्म तो आपके महर्षि तथा महान भक्त रूप में हो चुके हैं। फिर भी काल के लोक में जन्म-मृत्यु के चक्र में ही रहे हो।
सर्व सृष्टि रचना सुनाई तथा श्री ब्रह्मा (रजगुण), श्री विष्णु (सतगुण) तथा श्री शिव (तमगुण) की स्थिति बताई। श्री देवी महापुराण तीसरा स्कंद (पृष्ठ 123, गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित, मोटा टाईप) में स्वयं विष्णु जी ने कहा है कि मैं (विष्णु) तथा ब्रह्मा व शिव तो नाशवान हैं, अविनाशी नहीं हैं। हमारा तो आविर्भाव (जन्म) तथा तिरोभाव (मृत्यु) होता है। आप (दुर्गा/अष्टांगी) हमारी माता हो। दुर्गा ने बताया कि ब्रह्म (ज्योति निरंजन) आपका पिता है। श्री शंकर जी ने स्वीकार किया कि मैं तमोगुणी लीला करने वाला शंकर भी आपका पुत्र हूँ तथा ब्रह्मा भी आपका बेटा है। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे नानक जी! आप इन्हें अविनाशी, अजन्मा, इनके कोई माता-पिता नहीं हैं आदि उपमा दे रहे हो। यह दोष आप का नहीं है। यह दोष दोनों धर्मों(हिन्दू तथा मुसलमान) के ज्ञानहीन गुरुओं का है जो अपने-अपने धर्म के सद्ग्रन्थों को ठीक से न समझ कर अपनी-अपनी अटकल से दंत कथा (लोकवेद) सुना कर वास्तविक भक्ति मार्ग के विपरीत शास्त्रा विधि रहित मनमाना आचरण (पूजा) का ज्ञान दे रहे हैं। दोनों ही पवित्र धर्मों के पवित्र शास्त्रा एक पूर्ण प्रभु का(मेरा) ही ज्ञान करा रहे हैं। र्कुआन शरीफ में सूरत फुर्कानि 25 आयत 52 से 59 में भी मुझ कबीर का वर्णन है।
श्री नानक जी ने कहा कि यह तो आज तक किसी ने नहीं बताया। इसलिए मन स्वीकार नहीं कर रहा है। तब जिन्दा फकीर जी (कबीर साहेब जी) श्री नानक जी की अरूचि देखकर चले गए। उपस्थित व्यक्तियों ने श्री नानक जी से पूछा यह भक्त कौन था जो आप को गुरुदेव कह रहा था? नानक जी ने कहा यह काशी में रहता है, नीच जाति का जुलाहा(धाणक) कबीर था। बेतुकी बातें कर रहा था। कह रहा था कि कृष्ण जी तो काल के चक्र में है तथा मुझे भी कह रहा था कि आपकी साधना ठीक नहीं है। तब मैंने बताना शुरू किया तब हार मान कर चला गया। {इस वार्ता से सिक्खों ने श्री नानक जी को परमेश्वर कबीर साहेब जी का गुरु मान लिया।}
श्री नानक जी प्रथम वार्ता पूज्य कबीर परमेश्वर के साथ करने के पश्चात् यह तो जान गए थे कि मेरा ज्ञान पूर्ण नहीं है तथा गीता जी का ज्ञान भी उससे कुछ भिन्न ही है जो आज तक हमें बताया गया था। इसलिए हृदय से प्रतिदिन प्रार्थना करते थे कि वही संत एक बार फिर आए। मैं उससे कोई वाद-विवाद नहीं करूंगा, कुछ प्रश्नों का उत्तर अवश्य चाहूँगा। परमेश्वर कबीर जी तो अन्तर्यामी हैं तथा आत्मा के आधार व आत्मा के वास्तविक पिता हैं, अपनी प्यारी आत्माओं को ढूंढते रहते हैं। कुछ समय के ऊपरान्त जिन्दा फकीर रूप में कबीर जी ने उसी बेई नदी के किनारे पहुँच कर श्री नानक जी को राम-राम कहा। उस समय श्री नानक जी कपड़े उतार कर स्नान के लिए तैयार थे। जिन्दा महात्मा केवल श्री नानक जी को दिखाई दे रहे थे अन्य को नहीं। श्री नानक जी से वार्ता करने लगे। कबीर जी ने कहा कि आप मेरी बात पर विश्वास करो। एक पूर्ण परमात्मा है तथा उसका सतलोक स्थान है जहाँ की भक्ति करने से जीव सदा के लिए जन्म-मरण से छूट सकता है। उस स्थान तथा उस परमात्मा की प्राप्ति की साधना का केवल मुझे ही पता है अन्य को नहीं तथा गीता अध्याय न. 18 के श्लोक न. 62, अध्याय 15 श्लोक 4 में भी उस परमात्मा तथा स्थान के विषय में वर्णन है।
पूर्ण परमात्मा गुप्त है उसकी शरण में जाने से उसी की कृपा से तू (शाश्वतम्) अविनाशी अर्थात् सत्य (स्थानम्) लोक को प्राप्त होगा। गीता ज्ञान दाता प्रभु भी कह रहा है कि मैं भी उसी आदि पुरुष परमेश्वर नारायण की शरण में हूँ। श्री नानक जी ने कहा कि मैं आपकी एक परीक्षा लेना चाहता हूँ। मैं इस दरिया में छुपूँगा और आप मुझे ढूंढ़ना। यदि आप मुझे ढूंढ दोगे तो मैं आपकी बात पर विश्वास कर लूँगा। यह कह कर श्री नानक जी ने बेई नदी में डुबकी लगाई तथा मछली का रूप धारण कर लिया। जिन्दा फकीर (कबीर पूर्ण परमेश्वर) ने उस मछली को पकड़ कर जिधर से पानी आ रहा था उस ओर लगभग तीन किलो मीटर दूर ले गए तथा श्री नानक जी बना दिया।
(प्रमाण श्री गुरु ग्रन्थ साहेब सीरी रागु महला पहला, घर 4 पृष्ठ 25) -
तू दरीया दाना बीना, मैं मछली कैसे अन्त लहा।
जह-जह देखा तह-तह तू है, तुझसे निकस फूट मरा।
न जाना मेऊ न जाना जाली। जा दुःख लागै ता तुझै समाली।1।रहाऊ।।
नानक जी ने कहा कि मैं मछली बन गया था, आपने कैसे ढूंढ लिया? हे परमेश्वर! आप तो दरीया के अंदर सूक्ष्म से भी सूक्ष्म वस्तु को जानने वाले हो। मुझे तो जाल डालने वाले(जाली) ने भी नहीं जाना तथा गोताखोर(मेऊ) ने भी नहीं जाना अर्थात् नहीं जान सका। जब से आप के सतलोक से निकल कर अर्थात् आप से बिछुड़ कर आए हैं तब से कष्ट पर कष्ट उठा रहा हूँ। जब दुःख आता है तो आपको ही याद करता हूँ, मेरे कष्टों का निवारण आप ही करते हो? (उपरोक्त वार्ता बाद में काशी में प्रभु के दर्शन करके हुई थी)।
तब नानक जी ने कहा कि अब मैं आपकी सर्व वार्ता सुनने को तैयार हूँ। कबीर परमेश्वर ने वही सृष्टि रचना पुनर् सुनाई तथा कहा कि मैं पूर्ण परमात्मा हूँ मेरा स्थान सच्चखण्ड (सत्यलोक) है। आप मेरी आत्मा हो। काल (ब्रह्म) आप सर्व आत्माओं को भ्रमित ज्ञान से विचलित करता है तथा नाना प्रकार से प्राणियों के शरीर में बहुत परेशान कर रहा है। मैं आपको सच्चानाम (सत्यनाम/वास्तविक मंत्र जाप) दूँगा जो किसी शास्त्रा में नहीं है। जिसे काल (ब्रह्म) ने गुप्त कर रखा है।
श्री नानक जी ने कहा कि मैं अपनी आँखों अकाल पुरूष तथा सच्चखण्ड को देखूं तब आपकी बात को सत्य मानूं। तब कबीर साहेब जी श्री नानक जी की पुण्यात्मा को सत्यलोक ले गए। सच्च खण्ड में श्री नानक जी ने देखा कि एक असीम तेजोमय मानव सदृश शरीर युक्त प्रभु तख्त पर बैठे थे। अपने ही दूसरे स्वरूप पर कबीर साहेब जिन्दा महात्मा के रूप में चंवर करने लगे। तब श्री नानक जी ने सोचा कि अकाल मूर्त तो यह रब है जो गद्दी पर बैठा है। कबीर तो यहाँ का सेवक होगा। उसी समय जिन्दा रूप में परमेश्वर कबीर साहेब उस गद्दी पर विराजमान हो गए तथा जो तेजोमय शरीर युक्त प्रभु का दूसरा रूप था वह खड़ा होकर तख्त पर बैठे जिन्दा वाले रूप पर चंवर करने लगा। फिर वह तेजोमय रूप नीचे से गये जिन्दा (कबीर) रूप में समा गया तथा गद्दी पर अकेले कबीर परमेश्वर जिन्दा रूप में बैठे थे और चंवर अपने आप ढुरने लगा।
तब नानक जी ने कहा कि वाहे गुरु, सत्यनाम से प्राप्ति तेरी। इस प्रक्रिया में तीन दिन लग गए। नानक जी की आत्मा को साहेब कबीर जी ने वापस शरीर में प्रवेश कर दिया। तीसरे दिन श्री नानक जी होश में आऐ।
उधर श्री जयराम जी ने (जो श्री नानक जी का बहनोई था) श्री नानक जी को दरिया में डूबा जान कर दूर तक गोताखोरों से तथा जाल डलवा कर खोज करवाई। परन्तु कोशिश निष्फल रही और मान लिया कि श्री नानक जी दरिया के अथाह वेग में बह कर मिट्टी के नीचे दब गए। तीसरे दिन जब नानक जी उसी नदी के किनारे सुबह-सुबह दिखाई दिए तो बहुत व्यक्ति एकत्रित हो गए, बहन नानकी तथा बहनोई श्री जयराम भी दौड़े गए, खुशी का ठिकाना नहीं रहा तथा घर ले आए।
श्री नानक जी अपनी नौकरी पर चले गए। मोदी खाने का दरवाजा खोल दिया तथा कहा जिसको जितना चाहिए, ले जाओ। पूरा खजाना लुटा कर शमशान घाट पर बैठ गए। जब नवाब को पता चला कि श्री नानक खजाना समाप्त करके शमशान घाट पर बैठा है। तब नवाब ने श्री जयराम की उपस्थिति में खजाने का हिसाब करवाया तो सात सौ साठ रूपये अधिक मिले। नवाब ने क्षमा याचना की तथा कहा कि नानक जी आप सात सौ साठ रूपये जो आपके सरकार की ओर अधिक हैं ले लो तथा फिर नौकरी पर आ जाओ। तब श्री नानक जी ने कहा कि अब सच्ची सरकार की नौकरी करूँगा। उस पूर्ण परमात्मा के आदेशानुसार अपना जीवन सफल करूँगा। वह पूर्ण परमात्मा है जो मुझे बेई नदी पर मिला था।
नवाब ने पूछा वह पूर्ण परमात्मा कहाँ रहता है तथा यह आदेश आपको कब हुआ? श्री नानक जी ने कहा वह सच्चखण्ड में रहता हेै। बेई नदी के किनारे से मुझे स्वयं आकर वही पूर्ण परमात्मा सच्चखण्ड (सत्यलोक) लेकर गया था। वह इस पृथ्वी पर भी आकार में आया हुआ है। उसकी खोज करके अपना आत्म कल्याण करवाऊँगा। उस दिन के बाद श्री नानक जी घर त्याग कर पूर्ण परमात्मा की खोज पृथ्वी पर करने के लिए चल पड़े। श्री नानक जी सतनाम तथा वाहिगुरु की रटना लगाते हुए बनारस पहुँचे। इसीलिए अब पवित्र सिक्ख समाज के श्रद्धालु केवल सत्यनाम श्री वाहिगुरु कहते रहते हैं। सत्यनाम क्या है तथा वाहिगुरु कौन है यह मालूम नहीं है। जबकि सत्यनाम(सच्चानाम) गुरु ग्रन्थ साहेब में लिखा है, जो अन्य मंत्र है।
जैसा की कबीर साहेब ने बताया था कि मैं बनारस (काशी) में रहता हूँ। धाणक (जुलाहे) का कार्य करता हूँ। मेरे गुरु जी काशी में सर्व प्रसिद्ध पंडित रामानन्द जी हैं। इस बात को आधार रखकर श्री नानक जी ने संसार से उदास होकर पहली उदासी यात्रा बनारस (काशी) के लिए प्रारम्भ की (प्रमाण के लिए देखें ‘‘जीवन दस गुरु साहिब‘‘ (लेखक:- सोढ़ी तेजा सिंह जी, प्रकाशक=चतर सिंघ, जीवन सिंघ) पृष्ठ न. 50 पर।)।
परमेश्वर कबीर साहेब जी स्वामी रामानन्द जी के आश्रम में प्रतिदिन जाया करते थे। जिस दिन श्री नानक जी ने काशी पहुँचना था उससे पहले दिन कबीर साहेब ने अपने पूज्य गुरुदेव रामानन्द जी से कहा कि स्वामी जी कल मैं आश्रम में नहीं आ पाऊँगा। क्योंकि कपड़ा बुनने का कार्य अधिक है। कल सारा दिन लगा कर कार्य निपटा कर फिर आपके दर्शन करने आऊँगा।
काशी(बनारस) में जाकर श्री नानक जी ने पूछा कोई रामानन्द जी महाराज है। सब ने कहा वे आज के दिन सर्व ज्ञान सम्पन्न ऋषि हैं। उनका आश्रम पंचगंगा घाट के पास है। श्री नानक जी ने श्री रामानन्द जी से वार्ता की तथा सच्चखण्ड का वर्णन शुरू किया। तब श्री रामानन्द स्वामी ने कहा यह पहले मुझे किसी शास्त्रा में नहीं मिला परन्तु अब मैं आँखों देख चुका हूँ, क्योंकि वही परमेश्वर स्वयं कबीर नाम से आया हुआ है तथा मर्यादा बनाए रखने के लिए मुझे गुरु कहता है परन्तु मेरे लिए प्राण प्रिय प्रभु है। पूर्ण विवरण चाहिए तो मेरे व्यवहारिक शिष्य परन्तु वास्तविक गुरु कबीर से पूछो, वही आपकी शंका का निवारण कर सकता है।
श्री नानक जी ने पूछा कि कहाँ हैं (परमेश्वर स्वरूप) कबीर साहेब जी ? मुझे शीघ्र मिलवा दो। तब श्री रामानन्द जी ने एक सेवक को श्री नानक जी के साथ कबीर साहेब जी की झोपड़ी पर भेजा। उस सेवक से भी सच्चखण्ड के विषय में वार्ता करते हुए श्री नानक जी चले तो उस कबीर साहेब के सेवक ने भी सच्चखण्ड व सृष्टि रचना जो परमेश्वर कबीर साहेब जी से सुन रखी थी सुनाई। तब श्री नानक जी ने आश्चर्य हुआ कि मेरे से तो कबीर साहेब के चाकर (सेवक) भी अधिक ज्ञान रखते हैं। इसीलिए गुरुग्रन्थ साहेब पृष्ठ 721 पर अपनी अमृतवाणी महला 1 में श्री नानक जी ने कहा है कि -
“हक्का कबीर करीम तू, बेएब परवरदीगार।
नानक बुगोयद जनु तुरा, तेरे चाकरां पाखाक”
जिसका भावार्थ है कि हे कबीर परमेश्वर जी मैं नानक कह रहा हूँ कि मेरा उद्धार हो गया, मैं तो आपके सेवकों के चरणों की धूर तुल्य हूँ।
जब नानक जी ने देखा यह धाणक (जुलाहा) वही परमेश्वर है जिसके दर्शन सत्यलोक (सच्चखण्ड) में किए तथा बेई नदी पर हुए थे। वहाँ यह जिन्दा महात्मा के वेश में थे यहाँ धाणक (जुलाहे) के वेश में हैं। यह स्थान अनुसार अपना वेश बदल लेते हैं परन्तु स्वरूप (चेहरा) तो वही है। वही मोहिनी सूरत जो सच्चखण्ड में भी विराजमान था। वही करतार आज धाणक रूप में बैठा है। श्री नानक जी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। आँखों में आँसू भर गए।
तब श्री नानक जी अपने सच्चे स्वामी अकाल मूर्ति को पाकर चरणों में गिरकर सत्यनाम (सच्चानाम) प्राप्त किया। तब शान्ति पाई तथा अपने प्रभु की महिमा देश विदेश में गाई।
पहले श्री नानकदेव जी एक ओंकार(ओम) मन्त्रा का जाप करते थे तथा उसी को सत मान कर कहा करते थे एक ओंकार। उन्हें बेई नदी पर कबीर साहेब ने दर्शन दे कर सतलोक(सच्चखण्ड) दिखाया तथा अपने सतपुरुष रूप को दिखाया। जब सतनाम का जाप दिया तब नानक जी की काल लोक से मुक्ति हुई। नानक जी ने कहा कि:
इसी का प्रमाण गुरु ग्रन्थ साहिब के राग ‘‘सिरी‘‘ महला 1 पृष्ठ नं. 24 पर शब्द नं. 29
शब्द - एक सुआन दुई सुआनी नाल, भलके भौंकही सदा बिआल
कुड़ छुरा मुठा मुरदार, धाणक रूप रहा करतार।।1।।
मै पति की पंदि न करनी की कार। उह बिगड़ै रूप रहा बिकराल।।
तेरा एक नाम तारे संसार, मैं ऐहो आस एहो आधार।
मुख निंदा आखा दिन रात, पर घर जोही नीच मनाति।।
काम क्रोध तन वसह चंडाल, धाणक रूप रहा करतार।।2।।
फाही सुरत मलूकी वेस, उह ठगवाड़ा ठगी देस।।
खरा सिआणां बहुता भार, धाणक रूप रहा करतार।।3।।
मैं कीता न जाता हरामखोर, उह किआ मुह देसा दुष्ट चोर।
नानक नीच कह बिचार, धाणक रूप रहा करतार।।4।।
इसमें स्पष्ट लिखा है कि एक(मन रूपी) कुत्ता तथा इसके साथ दो (आशा-तृष्णा रूपी) कुतिया अनावश्यक भौंकती(उमंग उठती) रहती हैं तथा सदा नई-नई आशाएँ उत्पन्न(ब्याती हैं) होती हैं। इनको मारने का तरीका(जो सत्यनाम तथा तत्व ज्ञान बिना) झुठा(कुड़) साधन(मुठ मुरदार) था। मुझे धाणक के रूप में हक्का कबीर (सत कबीर) परमात्मा मिला। उन्होनें मुझे वास्तविक उपासना बताई।
नानक जी ने कहा कि उस परमेश्वर(कबीर साहेब) की साधना बिना न तो पति(साख) रहनी थी और न ही कोई अच्छी करनी(भक्ति की कमाई) बन रही थी। जिससे काल का भयंकर रूप जो अब महसूस हुआ है उससे केवल कबीर साहेब तेरा एक(सत्यनाम) नाम पूर्ण संसार को पार(काल लोक से निकाल सकता है) कर सकता है। मुझे(नानक जी कहते हैं) भी एही एक तेरे नाम की आश है व यही नाम मेरा आधार है। पहले अनजाने में बहुत निंदा भी की होगी क्योंकि काम क्रोध इस तन में चंडाल रहते हैं।
मुझे धाणक(जुलाहे का कार्य करने वाले कबीर साहेब) रूपी भगवान ने आकर सतमार्ग बताया तथा काल से छुटवाया। जिसकी सुरति(स्वरूप) बहुत प्यारी है मन को फंसाने वाली अर्थात् मन मोहिनी है तथा सुन्दर वेश-भूषा में(जिन्दा रूप में) मुझे मिले उसको कोई नहीं पहचान सकता। जिसने काल को भी ठग लिया अर्थात् दिखाई देता ह —

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