कूक्कर शुक्कर खर बना बोरे ,
कौंआ हँस बुगा रे ।
कोटी जन्म तू राजा किन्हा ,
मिटी ना मन की आशा ।।
भिक्षु कर होकर दर दर घूमया ,
मिला ना निर्गुण रासा ।
इन्द्र कुबेर ईश की पदवी ,
ब्रह्मा वरुण धर्मराया ।
विष्णु नाथ के पुर को जाकर ,
फ़िर भी वापिस आया ।।
असंख़ जन्म तोहे मरते होगे , जीवित क्यो ना मरै रे ।
द्वादश कोट महल मठ बोरे , बहुर ना देह धरै रे ।।
दोझिख भिस्त सभी तु देखे , राज़ पाठ के रसिया ।
तीन लोक से तीरपत नाही ,
ये मन भोगी खसिया ।।
सतगुरु मिलै तो ईच्छा मैटै ,
पद मिल पदै समाना ।
चल हंसा उस लोक पठाऊ ,
जो आदि अमर अस्थाना ।।
चार मुक्ति जहाँ चंपि करती ,
माया हो रही दासी ।
दास ग़रीब अभय पद परसै ,
वो मिले राम अविनाशी ।।
No comments:
Post a Comment