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Monday, April 25, 2016

साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय, सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।

       कबीर ज्ञानगंगा
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई
उड़ाय।
अर्थ : इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है
जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप
होता है. जो सार्थक को बचा लेंगे और
निरर्थक को उड़ा देंगे.

तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन
तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी
होय।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके
की भी कभी निंदा न करो जो
तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है.
यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ
गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा
होती है !

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
अर्थ : मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है.
अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ
घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु
आने पर ही लगेगा !

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का
फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
अर्थ : कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में
लेकर मोती की माला तो घुमाता है,
पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके
मन की हलचल शांत नहीं होती. कबीर
की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ
की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के
मोतियों को बदलो या फेरो.

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
अर्थ : सज्जन की जाति न पूछ कर उसके
ज्ञान को समझना चाहिए. तलवार का
मूल्य होता है न कि उसकी मयान का –
उसे ढकने वाले खोल का.

दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
अर्थ : यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह
दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब
उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न
आदि है न अंत.

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
अर्थ : जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे
ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने
वाला गोताखोर गहरे पानी में
जाता है और कुछ ले कर आता है. लेकिन कुछ
बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के
भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते है।
सत साहेब जी

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