उत्तर: मैं नहीं कह रहा, अपने सद्ग्रन्थ कह रहे हैं, पहले तो यह स्पष्ट करते हैं कि पूजा तथा साधना में क्या अन्तर है?
प्राप्य वस्तु की चाह पूजा कही जाती है तथा उसको प्राप्त करने के प्रयत्न को साधना कहते हैं।
उदाहरण: जैसे हमने जल प्राप्त करना है। यह हमारा प्राप्य है। हमें जल की चाह है। जल की प्राप्ति के लिए हैण्डपम्प लगाना पड़ेगा। हैण्डपम्प लगाने के लिए जो-जो उपकरण प्रयोग किए जाएंगे, बोकी लगाई जाएगी, यह प्रयत्न है। इसी प्रकार परमेश्वर का वह परमपद प्राप्त करना हमारी चाह है, जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में नहीं आता। हमारा प्राप्य परमेश्वर तथा उनका सनातन परम धाम है। उसको प्राप्त करने के लिए किया गया नाम जाप हवन-यज्ञ आदि-2 साधना है। उस साधना से पूज्य वस्तु परमात्मा प्राप्त होगा। जैसे प्रश्न 13 के उत्तर में स्पष्ट किया है, वही सटीक उदाहरण है। उस पूर्ण मोक्ष के लिए तीन बार में दीक्षा क्रम पूरा करना होता है।
1. प्रथम नाम दीक्षा = ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश, देवी के मन्त्रों की साधना दी जाती है।
2. दूसरी बार में क्षर ब्रह्म तथा अक्षर ब्रह्म के दो अक्षर मन्त्र जाप दिए जाते हैं जिसको सन्तों ने ‘‘सत् नाम’’ कहा है। गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में तीन नाम हैं, ‘‘ओम्-तत्-सत्‘‘ इस सतनाम में दो अक्षर होते हैं, एक ‘‘ओम्‘‘ (ऊँ) दूसरा ‘‘तत्‘‘ है। (यह सांकेतिक अर्थात् गुप्त नाम है जो उपदेश के समय उपदेशी को ही बताया जाता है)
3. तीसरी बार में सारनाम की दीक्षा दी जाती है जिस मन्त्रा को गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में ‘‘सत्’’ कहा है, यह भी सांकेतिक है। उपदेश लेने वाले को दीक्षा के समय बताया जाता है। इस प्रकार पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता है।
2. दूसरी बार में क्षर ब्रह्म तथा अक्षर ब्रह्म के दो अक्षर मन्त्र जाप दिए जाते हैं जिसको सन्तों ने ‘‘सत् नाम’’ कहा है। गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में तीन नाम हैं, ‘‘ओम्-तत्-सत्‘‘ इस सतनाम में दो अक्षर होते हैं, एक ‘‘ओम्‘‘ (ऊँ) दूसरा ‘‘तत्‘‘ है। (यह सांकेतिक अर्थात् गुप्त नाम है जो उपदेश के समय उपदेशी को ही बताया जाता है)
3. तीसरी बार में सारनाम की दीक्षा दी जाती है जिस मन्त्रा को गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में ‘‘सत्’’ कहा है, यह भी सांकेतिक है। उपदेश लेने वाले को दीक्षा के समय बताया जाता है। इस प्रकार पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता है।
Good sir
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