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Sunday, October 9, 2016

एक बार एक संत ने अपने दो भक्तों को बुलाया ........>>>>

एक बार एक संत ने अपने दो भक्तों को बुलाया और कहा आपको यहाँ से पचास कोस जाना है।

एक भक्त को एक बोरी खाने के समान से भर कर दी और कहा जो लायक मिले उसे देते जाना
और एक को ख़ाली बोरी दी उससे कहा रास्ते मे जो उसे अच्छा मिले उसे बोरी मे भर कर ले जाए।
दोनो निकल पड़े जिसके कंधे पर समान था वो धीरे चल पा रहा था

ख़ाली बोरी वाला भक्त आराम से जा रहा था

थोड़ी दूर उसको एक सोने की ईंट मिली उसने उसे बोरी मे डाल लिया
थोड़ी दूर चला फिर ईंट मिली उसे भी उठा लिया
जैसे जैसे चलता गया उसे सोना मिलता गया और वो बोरी मे भरता हुआ चल रहा था
और बोरी का वज़न। बड़ता गया उसका चलना मुश्किल होता गया और साँस भी चढ़ने लग गई एक एक क़दम मुश्किल होता गया ।

दूसरा भक्त जैसे जैसे चलता गया रास्ते मै जो भी मिलता उसको बोरी मे से खाने का कुछ समान देता गया धीरे धीरे बोरी का वज़न कम होता गया और उसका चलना आसान होता गया।
जो बाँटता गया उसका मंज़िल तक पहुँचना आसान होता गया  

जो ईकठा करता रहा वो रास्ते मे ही दम तोड़ गया

दिल से सोचना हमने जीवन मे क्या बाँटा और क्या इकट्ठा किया हम मंज़िल तक कैसे पहुँच पाएँगे।

जिन्दगी का कडवा सच

आप को 60 साल की उम्र के बाद कोई यह नहीं पूछेंगा कि आप का बैंक बैलेन्स कितना है या आप के पास कितनी गाड़ियाँ हैं....?

दो ही प्रश्न पूछे जाएंगे ...
1-आप का स्वास्थ्य कैसा है.....? और
2-आप के बच्चे क्या करते हैं....?

अगर मेरा ये मैसेज आपको अच्छा लगा हो तो ओरो को भी ये भेजें।  ….......क्या पता किसी की कुछ सोच
बदल जाये।

प्यार बाटते रहो यही विनती है।

सत साहेब 

Saturday, October 1, 2016

केवल दो हाथ न होने से कितनी दुर्गति होती है !

एक फ़क़ीर था। उसके दोनों बाज़ू नहीं थे। उस बाग़ में मच्छर भी बहुत होते थे। मैंने कई बार देखा उस फ़क़ीर को। आवाज़ देकर , माथा झुकाकर वह पैसा माँगता था। एक बार मैंने उस फ़क़ीर से पूछा - " पैसे तो माँग लेते हो , रोटी कैसे खाते हो ? "

उसने बताया - " जब शाम उतर आती है तो उस नानबाई को पुकारता हूँ , ' ओ जुम्मा ! आके पैसे ले जा , रोटियाँ दे जा। ' वह भीख के पैसे उठा ले जाता है , रोटियाँ दे जाता है। "

मैंने पूछा - " खाते कैसे हो बिना हाथों के ? "

वह बोला - " खुद तो खा नहीं सकता। आने-जानेवालों को आवाज़ देता हूँ ' ओ जानेवालों ! मालिक तुम्हारे हाथ बनाए रखे , मेरे ऊपर दया करो ! रोटी खिला दो मुझे , मेरे हाथ नहीं हैं। ' हर कोई तो सुनता नहीं , लेकिन किसी-किसी को तरस आ जाता है। वह प्रभु का प्यारा मेरे पास आ बैठता है। ग्रास तोड़कर मेरे मुँह में डालता जाता है , मैं खा लेता हूँ। "
सुनकर मेरा दिल भर आया। मैंने पूछ लिया - " पानी कैसे पीते हो ? "

उसने बताया - " इस घड़े को टांग के सहारे झुका देता हूँ तो प्याला भर जाता है। तब पशुओं की तरह झुककर पानी पी लेता हूँ। "

मैंने कहा - " यहाँ मच्छर बहुत हैं। यदि मच्छर लड़ जाए तो क्या करते हो ? "

वह बोला - " तब शरीर को ज़मीन पर रगड़ता हूँ। पानी से निकली मछली की तरह लोटता और तड़पता हूँ। "

हाय ! केवल दो हाथ न होने से कितनी दुर्गति होती है !

अरे , इस शरीर की निंदा मत करो ! यह तो अनमोल रत्न है ! शरीर का हर अंग इतना कीमती है कि संसार का कोई भी खज़ाना उसका मोल नहीं चुका सकता। परन्तु यह भी तो सोचो कि यह शरीर मिला किस लिए है ? इसका हर अंग उपयोगी है। इनका उपयोग करो !

स्मरण रहे कि ये आँखे पापों को ढूँढने के लिए नहीं मिली हैं ।  कान निंदा सुनने के लिए नहीं मिले। हाथ दूसरों का गला दबाने के लिए नहीं मिले। यह मन भी अहंकार में डूबने या मोह-माया में फँसने को नहीं मिला।

ये आँख सच्चे मालिक की खोज के लिये मिली है । ये हाथ सेवा करने को मिले हैं। ये पैर उस रास्ते पर चलने को मिले है जो परम पद तक जाता हो। ये कान उस संदेश सुनने को मिले है जो जिसमे परम पद पाने का मार्ग बताया जाता हो। ये जिह्वा मालिक का गुण गान करने को मिली है। ये मन उस मालिक का लगातार शुक्र और सुमिरन करने को मिला है।

मालिक तेरा शुक्र है,
शुक्र है..लाख लाख शुक्र है।

Wednesday, September 28, 2016

‬ एक बार की बात है कबीर साहिब की कुटिया के पास एक वैश्या ने अपना कोठा बना लिया।

From 97191 53104
एक बार की बात है कबीर साहिब की कुटिया के पास एक वैश्या ने अपना कोठा बना लिया।
एक ओर तो कबीर साहिब जो दिन भर भगवान का नाम कीर्तन करते है और दूसरी और वो वैश्या जिसके घर में नाच गाना होता रहता है । एक दिन कबीर जी उस वैश्या के यहाँ गए और कहा की:-‘देख बहन ! तुमारे यहाँ बहुत खराब लोग आते है। तो आप और कहीं जाकर रह सकते हो क्या? संत की बात सुनकर वैश्या भड़क गयी और कहा की :- अरे फ़कीर तू मुझे यहाँ से भगाना चाहता है, कही जाना है तो तु जा कर रह, पर मैं यहाँ से कही जाने वाली नही हूँ। कबीर जी ने कहा:- ठीक है जैसी तेरी मर्जी। कबीर साहिब जी अपनी कुटिया में वापिस आ गए और फिर से अपने भजन कीर्तन में लग गये।

जब कबीर जी के कानो में उस वैश्या के घुघरू की झंकार और कोठे पर आये लोगो के गंदे – गंदे शब्द सुनाई पड़ते तो कबीर जी अपने भजन कीर्तन को और जोर जोर से तेज आवाज से करने लगे । तो बंधुओ ऐसा प्रभाव भजन का हुआ जो लोग वैश्या के कोठे पर आते जाते थे वो अब कबीर जी पास बैठकर सत्संग सुनते और कीर्तन करते।

वैश्या ने देखा की ये फ़कीर तो जादूगर है इसने मेरा सारा धंधा चोपट कर दिया। अब तो वे सब लोग उस फ़कीर के साथ ही भजनों की महफ़िल जमाये बैठे है। वैश्या ने क्रोधित हो कर अपने यारो से कहा की तुम इस फ़कीर जादूगर की कुटिया जला दो ताकि ये यहाँ से चला जाये।

वैश्या के आदेश पर उनके यारों ने संत कबीर जी की कुटियां में आग लगा दी , कुटिया को जलती देख संत कबीर साहिब बोले:- वाह ! मेरे मालिक अब तो तू भी यही चाहता है कि में ही यहाँ से चला जाऊं। प्रभु ! जब अब आपका आदेश है तो जाना ही पड़ेगा। संत कबीर जी जाने ही वाले थे भगवान से नही देखा गया अपने भक्त का अपमान। उसी समय भगवान ने ऐसी तूफानी सी हवा चलायी उस कबीर जी कि कुटिया कि आग तो बुझ गयी और उस आग ने वैश्या के कोटे को पकड़ ली। वैश्या के देखते ही देखते उनका कोठा जलने लगा। वो चीखती चिल्लाती हुए कबीर जी के पास आकर कहने लगी :-अरे कबीर जादूगर देख देख मेरा सुन्दर कोठा जल रहा है। मेरे सुंदर परदे जल रहे है। वे लहराते हुए झूमर टूट रहे है। अरे जादूगर तू कुछ करता क्यों नही ।

कबीर जी को जब अपने झोपडी कि फिकर नही थी तो किसी के कोठे से उनको क्या लेना देना । कबीर जी खड़े खड़े हंसने लगे। कबीर जी कि हंसी देख वैश्या क्रोधित हो कर बोली अरे देखो देखो यारों इस जादूगर ने मेरे कोठे में आग लगा दी अरे देख कबीर जिसमे तूने आग लगायी वो कोठा मेने अपना तन , मन , और अपनी इज्ज्त बेच कर बनाया और तूने मेरे जीवन भर की कमाई पूंजी को नष्ट कर दिया। कबीरजी मुस्कुरा कर बोले कि देख बहन ! तू फिर से गलती कर रही है और कहते है कि

“ना तूने आग लगाई ना मैंने आग लगाई
ये तो यारों ने अपनी यारी निभायी” !!

तेरे यारो ने तेरी यारी निभायी तो मेरा भी तो यार बैठा है। मेरा भी तो चाहने वाला है।जब तेरे यार तेरी वफ़ादारी कर सकते है
तो क्या मेरा यार तेरे यारों से कमजोर है क्या ?
“कुटिल वैश्या की कुटिलाई संत कबीर की कुटिया जलाई !
श्याम पिया के मन न भाई ।
तूफानी गति देय हवा की वैश्या के घर आग लगायी !
श्याम पिया ने प्रीत निभाई ।।”

वैश्या समझ गयी कि “मेरे यार खाख बराबर, कबीर के यार सिर ताज बराबर” उस वैश्या को बड़ी ग्लानि हुई कि मैं मंद बुद्धि एक हरी भक्त का अपमान कर बैठी भगवान मुझे क्षमा करे। तब से वैश्या ने सब गलत काम छोड़ दिए और भगवान के भजन में लग गई । भगवान बहुत सुन्दर लीला करते है और अपने भक्त का मान कभी घटने नही देते। इसलिए भगवान कहते है कि जहाँ मेरा भक्त पैर रखता है , उसके पैर रखने से पहले में हाथ रख देता हुं। मैं अपने भक्त का साथ कभी नही छोड़ता हुं हमेशा उसके साथ रहता हुं ।।

“भक्त हमारे पग धरे तहा धरूँ मैं हाथ !
सदा संग फिरू डोलू कभी ना छोडू साथ।”

Tuesday, September 27, 2016

मन रुपी जिन्न से बचने का उपाय

एक संत अपने एक शिष्य के साथ एक नगर के पास के वन मे रहते थे।एक दिन संत जी ने अपने शिष्य को एक सिध्दी सिखाई और बताया की इस सिध्दी का प्रयोग मेरी गैर हाजरी मे प्रयोग मत करना।
एक बार संत जी ज्ञान प्रचार के लिए तीन दिन के लिऐ एक नगरी मे चले गये । शिष्य अकेला कुटिया मे रह गया था।एक दिन शिष्य ने सोचा की आज तीसरा दिन है और गुरूदेँव जी भी आने वाले है कुछ टाईम मे तब तक उस सिध्दी का प्ररिक्षण करते है जो गुरुदेँव जी ने सिखाई है।शिष्य ने गुरुदेँव के बताऐ अनुसार मँत्र उचारण किया तभी एक जिन्न प्रकट हुआ।जिन्न ने कहा मुझे काम बताओ नही तो तुम्हे मार दुँगा। तभी वो शिष्य बोला गाँव से भिक्षा ले आओ तभी जिन्न ने कुछ देर मे भिक्षा ले आया । फिर कपड़े धोने को बोला ऐसे जिन्न से सब काम करवा लिया।
तब जिन्न बोला कि और काम बताओ जब कुछ देर तक उस शिष्य ने कोई काम ना बताया तो जिन्न उसे मारने के लिऐ दौड़ा तभी वो शिष्य रास्ते की और दोड़ा तो गुरुदेँव आते दिंखाई दिये शिष्य जोर जोर से आवाज लगाता की गुरु जी बचाओ गुरु जी बचाओ आवाज लगाता गुरुदेँव की और तेजी से दौड़ा। तभी संत जी ने पुँछा की क्या हु आ बच्चा तब शिष्य ने सारी घटना बताई और कहा गुरु जी माफ करो मुझे बचाऔ नही तो वो जिन्न हमे मार डालेगा।
तब संत जी ने शिष्य को कहा की जिन्न को कहो की एक मजबुत लम्बा बाँस लेकर आओ और उसे जमीन मे गाड़ दो । जिन्न ने एक बाँस का लठ्ठ जमीन मे गाँड़ दिया । तब संन्त जी ने शिष्य को कहा की अब जिन्न को कहो की अब इस बाँस पर चढते और उतरते रहो । तब शिष्य ने जिन्न को बाँस पर चढने उतरने का काम देकर राहत की साँस ली ।
इसी प्रकार परमेश्वर बताते है की मन रुपी जिन्न से बचने का उपाय गुरूदेँव जी से मिला हुआ नाम रुपी बाँस है जिस पर मन को लगाऐ रखे अन्यथा हमे ये मन रुपी जिन्न विचलित कर भगतिहीन बना देगा इस से बचने का उपाय केवल नाम आधार है मन रुपी घोड़े को रोका नही जा सकता इसकी दिशा चैज की जा सकती है जितनी स्पीड से ये बुराई के लिए दौड़ रहा था जब इसे अच्छाई पर लगाया जाऐगा तब उतनी स्पीड से अच्छाई ग्रहण करेगा ।
।। सत साहेब जी ।।

Thursday, June 30, 2016

भगत सदना कसाईँ की कथा द्वारा कैसा अमृत ज्ञान दिया है

परमेँश्वर कबीर जी द्वारा हम तुच्छ बुध्दि जीवोँ को भगत सदना कसाईँ की कथा द्वारा कैसा अमृत ज्ञान दिया है ~>

एक सदना नाम का कसाईँ था जो अपनी आजीविका के लिऐँ एक कसाईँ की दुकान पर बकरेँ काटनेँ का काम किया करता था इक दिन सदना कसाईँ को कबीर साहिँब जी मिलेँ सदना कसाईँ ने कबीर साहिँब का सतसंग सुना सदना सतसंग सुनकर बहुत प्रभावित हुआ । सतसंग सुनकर सदना कसाईँ को अपने बुरेँ कर्म का ज्ञान हुआ। सदना नेँ अपने कल्याण के लिऐँ कबीर जी सेँ नाम दिक्षा देने कि याचना कि कि गुरु देँव क्या मुझ पापी का भी उधार हो सकता है जी मैँ कसाईँ हुँ जी कसाईँ सदना नाम मेरा।तब कबीर जी ने कहा कि सदना नौँका मेँ चाहेँ घास रखो ,चाहे पत्थर वो पार कर दिया करती हैँ भाईँ कल्याण हो जाऐगा पर आगे ऐसे कर्म नहीँ करना ,सदना नेँ कहा गुरुदेँव कैसे छोँड़ू इस कसाईँ के काम को मेरे पास कोई और काम नही । नहीँ तो बालक भूखे मर जावेँगे।

गुरुदेँव नेँ कहा सदना यो दोनो बात कैसे हो ,मर्याँदा तो निभानी पड़ेगी यदि कल्याण चाहतेँ हो । तब सदना बहुत विनती करता है कि गुरुदेँव उधार करो । तब कबीर जी ने सदना की लगन देँख कर कहा की ठीक है वचन दो की कितने बकरेँ हर रोज काटोँगे । सदना ने सोचा कि 10 या बीस काटता हुँ और ज्यादा काटनेँ का बचन करता हुँ और बोला 100 बकरेँ काटने का वचन देता हुँ कि सौ से ज्यादा नही काटेँगे बकरेँ । तब कबीर जी ने कहा कि जितने काँटने है बकरे अब वचन दे कही बाद मेँ बचन तोड़े तब सदना बोला जी बचन का पक्का हुँ की सौ से ज्यादा नहीँ काँटूगा बकरेँ।

सदना भगति शुरु कर देता है और कुछ दिनो बाद उस नगरी के राजा की लड़की की शादीँ होती है मुस्लमान राजा था शादीँ मेँ माँस का भोजन चल रहा था और सदना के मालिक ने सदना को 20 बकरेँ काटने का आदेँश दिया ,सदना ने 20 बकरेँ काँट दिऐ । फिर 20 का आदेँश आया ऐसे करते करते शाम तक सौ बकरेँ कट गऐ ,सदना नेँ शुकर किया गुरुदेँव का,की आज बचन रह गया की सौ ही बकरेँ कट गऐ आज तो बहुत बुरा हुआ । सदना ने हथियार रख दियेँ धौकर। 

तभी सदना के मालिक के पास कबीर साहिँब एक व्यापारी का रुप बनाकर आते है और कहते है कि मुझेँ तुम से हर रोज 30,40 बकरोँ का सौदा करना,और बात करेगेँ सुबह अब एक स्वस्थ बकरेँ का माँस बनवा दो भूख लगी हैँ । सदना के मालिक ने सदना को आदेँश दिया की जल्दी बकरा काँट ऐसे ऐसे कोई व्यपारी आया है उस से एग्रीमेँट होगा ,
अब सदना चिँन्तित हुआ कि बकरा काट दिया तो गुरु जी का बचन टुट जाऐगा, यदि नही काँटा तो मालिक नौकरी सेँ निकाल देगा मेरी तो दोनो और से बात बिगड़गी । सदना ने सोचा की एक आदमी का भोजन बनना है क्यो ना बकरे के नले नले काँट दूँ। 

ऐसा सोच कर सदना बकरेँ के नले काँटने लगा तभी परमात्मा ने बकरा बुला दिया बकरा बोला भाई सदना मर्याँदा ना तोड़े मेने तेरा गला काँटा तेरे को ऐसे नहीँ काँटा जो तूँ आज काँटने जा रहा देँख लेना फिर मैँ भी तेरे को ऐसे ही काँटुगा अब सदना किसके बकरे काँटे था काँपे खड़ा खड़ा और बकरा बोला उस दिन यकीन हुआ सदना को की संत सच्ची कहे थे ये बहुत बुरा चक्कर है अब ना करे ऐसेँ कर्मँ नेँ चाहे भूखे मरेँ।सदना के मालिक ने आवाज लगाईँ कि सदना काँटा नही बकरा,  सदना बोला मै ना काँटू  मालिँक मेँ ना काँटू । तभी सदना के मालिक ने गुस्से सेँ सदना के दोनो हाथ काँट दियेँ कि ये कैसा नौकर है जो मेरे सौदे सै खुश नहीँ ओर सदना को घर से निकाल दिया ।  

अब सदना ने जैसे तेसे अपना ईलाज करवाया और और कुछ महीनेँ रो पीटकर सोचा की अब कया करेँ फिर याद आया कि गुरुदेँव बोल रहे थे कि मै जगननाथ के मन्दिँर मेँ रहता हुँ वहाँ आ जाना जब भी मिलना हो सदना गुरु जी से मिलने जगननाथ की ओर चल देता शाम होने पर  एक गाँव मे गाँव के नम्बरदार के पास जाता और कहता है कि मेने जगननाथ जाना अपने गुरु जी के पास ,अब रात हो गई यहाँ रात को ठहरने का स्थान बताऐँ तब नम्बरदार सोचता है कि भगत आदमी है मुझे भी कुछ पूण्य होगा ऐसा सोचकर सदना को अपने घर ले आता है और सदना के खाने व सो ने का प्रबन्ध करता है । नम्बरदार की पत्नी बुरे चरित्र की थी वो रात को सदना से बदव्यवहार करने की चेष्टा करती है तब सदना कहेता है कि माईँ मै महादुखी हुँ रात काटनी है काटनेँ दो तो रुक जाता हुँ नही तो मेँ अभी चला जाता हुँ।  ये सुनकर नम्बरदार की पत्नी नेँ अपनी बेईजती समझकर शोर मचा दिया कि ये मेरे साथ बदव्यवहार करने की कोशिश कर रहा था तब शोर सुनकर लोग इक्कठा हुऐ सदना को पकड़ लिया । सुबह नगरी के राजा के पास पेश किया गया वहाँ नम्बरदार की पत्नी ने झुठी गवाही दे दी कि ये मेरे साथ बदव्यवहार करने कि कोशिश कर रहा था।

तब राजा ने सदना को सबके सामने मीनार मेँ चिन्ने की सजा सुना दी और कहा इसने नम्बरदार के साथ धोखा किया जो उसकी पत्नी के साथ बदव्यवहार की चेष्टा कि भुगतकर मरे मीनार मेँ चिन्न दो। जब सदना के हाथ पैर बाँधकर कर मीनार मेँ चिन्न रहे थे तो वहाँ पर कुछ लोग बोल रहे थे कि देखो कैसा नीच था ये जगननाथ जाने कि बात कर रहा था और ये भगत कहावेँ कैसा नीच कर्मीँ है ऐसे ही इसके गुरु होगे।  

ये सुनकर सदना की आँखो मे आँसू आ गऐ और बोला गुरुदेँव मै तो नीच था चाहे इस से भी बूरी मौत मरता पर ये इब मुझे भगत कहे थे कि मन्दिर मेँ जावेँ दुष्ट इसे इसके गुरु भी ऐसे होगेँ।मालिक ये तो आप के नाम पेँ बट्टा लग गया। 

मालिक इस भगति की लाज राखियोँ मेरे मालिक,ये बोलकर फुट फुट कर रोने लगा।तभी बहुत जोर से धमाका हुआ और मीनार फट गया उसकी इट्टे अन्यायकारी राजा मँत्रियोँ के सिर मेँ लगी जिन्होने ये अन्याय का फैसला सुनाया व नम्बरदार की पत्नी के दोनो स्तन कट गऐ इट्टे लगने से ।  सदना के दोनो हाथ पुरे हो गऐ कटे हुऐ नही रहेँ । 

बोलो सतगुरुदेँव जी की जय हो


कबीर,जो जन मेरी शरण हे , ताका हूँ मैँ दास ।
गैल गेल लाग्या फिरू , जब लग धरती आकाश ।।

कृप्या शेयर करेँ जन जन तक पहुँचाऐँ परमेँश्वर का सन्देँश ।।

Saturday, May 7, 2016

भगवान मन्दिर मे है...?

एक दस साल का बच्चा पहली बार अपने पिता के साथ घूमने निकला ।
रास्ते में एक मंदिर मिला तो ,पिता जी ने कहा बेटा(मन्दिर की ओर इसारा करते हुए) , हाथ जोड़कर प्रणाम करो । बेटे ने पूछा ,किसको प्रणाम करूँ पापा ?

पापा : बेटा भगवान को प्रणाम करो ।

बेटा : लेकिन पापा भगवान है कहाँ ?

पापा : बेटा वो मंदिर में हैं ।

बेटा : पापा, मंदिर तो बंद है उसमे मोटासा ताला लगा
हुआ है ,भगवान को किसने मंदिर में बंद कर दिया ?

पापा : बेटा ये भगवान को मंदिर में बंद नही किया
बल्कि मंदिर की सुरक्षा के लिए ताला लगाया हुआ
है ।

बेटा : मंदिर में तो खुद भगवान रहते हैं, उनको किससे सुरक्षा की जरुरत है ?

पापा : बेटा मंदिर में बहुत कीमती कीमती मूर्तियाँ रखी होते हैं और वो मूर्तियाँ कीमती गहने पहने होती है । चोर और तस्कर हमेशा उनको चोरी करने की फ़िराक में रहते हैं इसीलिए उनसे बचाने के लिए मंदिर को बंद किया जाता है ।

बेटा : लेकिन पापा वो तो खुद भगवान है सब कुछ करने
वाला है फिर कोई साधारण चोर उनको कैसे चुरा सकता
है ? जब भगवान खुद को ही चोरी होने से नही बचा सकता है तो फिर मुझको या किसी और को क्या दे सकता है ? ऐसे भगवान को प्रणाम करने से क्या फायदा ?

पापा : बेटा अभी ये बाते तुम्हारी समझ में नही आएँगी और भगवान पर सवाल नही करते चुपचाप जैसे सुनते आये हो उसको ही सच मानो ।

बेटा : तो पापा हमको अपने दिमाग का इस्तेमाल करना बंद कर देना चाहिए और जानवरों जैसी जिन्दगी व्यतीत करनी चाहिए ।

अब

पापा के गुस्से की हदें पार हो गयी । उसने बेटे के जोर
का तमाचा मारते हुए कहा चुप कर भगवान पर सवाल
उठाता है मेरा बाप बनने की कोशिश करता है नालायक ।

विचार किजिये
" क्या भगवान मन्दिर मे है...

इतने दिन हमारे धर्म गुरु हमें शास्त्र विरुद्ध साधना करवाते रहे इन्होंने हमें धर्म ग्रन्थ पढने का अधिकार भी नहीं दे रखा था लेकिन आज पुरा मानव समाज शिक्षित् है पाखण्डवाद मिटाऔ और सर्व धर्मग्रन्थो के सत्य को पहचानो.....

सत् (सत्य/वास्तविक/सच्चा)
साहेब (भगवान/मालिक/ईश्वर)

Wednesday, April 27, 2016

साधु की संगति

एक चोर को कई दिनों तक चोरी करने का अवसर ही नहीं मिला. उसके खाने के लाले पड़ गए. मरता क्या न करता. मध्य रात्रि गांव के बाहर बनी एक साधु की कुटिया में ही घुस गया.
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वह जानता था कि साधु बड़े त्यागी हैं. अपने पास कुछ संचय करते तो नहीं रखते फिर भी खाने पीने को तो कुछ मिल ही जायेगा. आज का गुजारा हो जाएगा फिर आगे की सोची जाएगी.
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चोर कुटिया में घुसा ही था कि संयोगवश साधु बाबा लघुशंका के निमित्त बाहर निकले. चोर से उनका सामना हो गया. साधु उसे देखकर पहचान गये क्योंकि पहले कई बार देखा था पर उन्हें यह नहीं पता था कि वह चोर है.
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उन्हें आश्चर्य हुआ कि यह आधी रात को यहाँ क्यों आया ! साधु ने बड़े प्रेम से पूछा- कहो बालक ! आधी रात को कैसे कष्ट किया ? कुछ काम है क्या ? चोर बोला- महाराज ! मैं दिन भर का भूखा हूं.
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साधु बोले- ठीक है, आओ बैठो. मैंने शाम को धूनी में कुछ शकरकंद डाले थे. वे भुन गये होंगे, निकाल देता हूं. तुम्हारा पेट भर जायेगा. शाम को आये होते तो जो था हम दोनों मिलकर खा लेते.
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पेट का क्या है बेटा ! अगर मन में संतोष हो तो जितना मिले उसमें ही मनुष्य खुश रह सकता है. यथा लाभ संतोष’ यही तो है. साधु ने दीपक जलाया, चोर को बैठने के लिए आसन दिया, पानी दिया और एक पत्ते पर भुने हुए शकरकंद रख दिए.
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साधु बाबा ने चोर को अपने पास में बैठा कर उसे इस तरह प्रेम से खिलाया, जैसे कोई माँ भूख से बिलखते अपने बच्चे को खिलाती है. उनके व्यवहार से चोर निहाल हो गया.
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सोचने लगा- एक मैं हूं और एक ये बाबा है. मैं चोरी करने आया और ये प्यार से खिला रहे हैं ! मनुष्य ये भी हैं और मैं भी हूं. यह भी सच कहा है- आदमी-आदमी में अंतर, कोई हीरा कोई कंकर. मैं तो इनके सामने कंकर से भी बदतर हूं.
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मनुष्य में बुरी के साथ भली वृत्तियाँ भी रहती हैं जो समय पाकर जाग उठती हैं. जैसे उचित खाद-पानी पाकर बीज पनप जाता है, वैसे ही संत का संग पाकर मनुष्य की सदवृत्तियाँ लहलहा उठती हैं. चोर के मन के सारे कुसंस्कार हवा हो गए.
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उसे संत के दर्शन, सान्निध्य और अमृत वर्षा सी दृष्टि का लाभ मिला. तुलसी दास जी ने कहा है

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध।।

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साधु की संगति पाकर आधे घंटे के संत समागम से चोर के कितने ही मलिन संस्कार नष्ट हो गये. साधु के सामने अपना अपराध कबूल करने को उसका मन उतावला हो उठा.
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फिर उसे लगा कि ‘साधु बाबा को पता चलेगा कि मैं चोरी की नियत से आया था तो उनकी नजर में मेरी क्या इज्जत रह जायेगी ! क्या सोचेंगे बाबा कि कैसा पतित प्राणी है, जो मुझ संत के यहाँ चोरी करने आया !
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लेकिन फिर सोचा, ‘साधु मन में चाहे जो समझें, मैं तो इनके सामने अपना अपराध स्वीकार करके प्रायश्चित करूँगा. दयालु महापुरुष हैं, ये मेरा अपराध अवश्य क्षमा कर देंगे. संत के सामने प्रायश्चित करने से सारे पाप जलकर राख हो जाते हैं।
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भोजन पूरा होने के बाद साधु ने कहा- बेटा ! अब इतनी रात में तुम कहाँ जाओगे. मेरे पास एक चटाई है. इसे ले लो और आराम से यहीं कहीं डालकर सो जाओ. सुबह चले जाना.
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नेकी की मार से चोर दबा जा रहा था. वह साधु के पैरों पर गिर पड़ा और फूट-फूट कर रोने लगा. साधु समझ न सके कि यह क्या हुआ ! साधु ने उसे प्रेमपूर्वक उठाया, प्रेम से सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा- बेटा ! क्या हुआ ?
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रोते-रोते चोर का गला रूँध गया. उसने बड़ी कठिनाई से अपने को संभालकर कहा-महाराज ! मैं बड़ा अपराधी हूं. साधु बोले- भगवान सबके अपराध क्षमा करने वाले हैं. शरण में आने से बड़े-से-बड़ा अपराध क्षमा कर देते हैं. उन्हीं की शरण में जा.
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चोर बोला-मैंने बड़ी चोरियां की हैं. आज भी मैं भूख से व्याकुल आपके यहां चोरी करने आया था पर आपके प्रेम ने मेरा जीवन ही पलट दिया. आज मैं कसम खाता हूँ कि आगे कभी चोरी नहीं करूँगा. मुझे अपना शिष्य बना लीजिए.
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साधु के प्रेम के जादू ने चोर को साधु बना दिया. उसने अपना पूरा जीवन उन साधु के चरणों में सदा के समर्पित करके जीवन को परमात्मा को पाने के रास्ते लगा दिया.
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महापुरुषों की सीख है, सबसे आत्मवत व्यवहार करें क्योंकि सुखी जीवन के लिए निःस्वार्थ प्रेम ही असली खुराक है. संसार इसी की भूख से मर रहा है. अपने हृदय के आत्मिक प्रेम को हृदय में ही मत छिपा रखो.
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प्रेम और स्नेह को उदारता से खर्च करो. जगत का बहुत-सा दुःख दूर हो जाएगा. भटके हुए व्यक्ति को अपनाकर ही मार्ग पर लाया जा सकता है, दुत्कार कर नहीं..
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(((( जय हो बन्दी छोड़ की जय ))))
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पाराशर पुत्री sukadev rishi

पाराशर  पुत्री  संग  राता 
(अनुवादक श्री मुनिलाल गुप्त, प्रकाशक - गोविन्द भवन कार्यालय, गीताप्रैस गोरखपुर) 

श्री विष्णुपुराण का ज्ञान श्री पारासर ऋषि ने अपने शिष्य श्री मैत्रोय ऋषि जी को कहा है। श्री पारासर ऋषि जी ने शादी होते ही गृह त्याग कर वन में साधना करने का दृढ़ संकल्प किया। उसकी धर्मपत्नी ने कहा अभी तो शादी हुई है, अभी आप घर त्याग कर जा रहे हो। संतान उत्पत्ति करके फिर साधना के लिए जाना। तब श्री पारासर ऋषि ने कहा कि साधना करने के पश्चात् संतान उत्पन्न करने से नेक संस्कार की संतान उत्पन्न होगी। मैं कुछ
समय उपरान्त आपके लिए अपनी शक्ति (वीर्य) किसी पक्षी के द्वारा भेज दूंगा, आप उसे ग्रहण कर लेना। यह कह कर घर त्याग कर वान प्रस्थ हो गया। 

एक वर्ष साधना के उपरान्त अपना वीर्य निकाल कर एक वृक्ष के पत्र में बंद करके अपनी मंत्र शक्ति से शुक्राणु रक्षा करके एक कौवे से कहा कि यह पत्र मेरी पत्नी को देकर आओ। कौवा उसे लेकर दरिया के ऊपर से उड़ा जा रहा था। उसकी चोंच से वह पत्र दरिया में गिर गया। उसे एक मछली ने खा लिया। कुछ महिनों उपरांत उस मछली को एक मलहा ने पकड़ कर काटा, उसमें से एक लड़की निकली। 

मलहा ने लड़की का नाम सत्यवती रखा वही लड़की (मछली के उदर से उत्पन्न होने के कारण) मछोदरी नाम से भी जानी जाती थी नाविक ने सत्यवती को अपनी पुत्री रूप में पाला। कौवे ने वापिस जा कर श्री पारासर जी कोसर्व व तान्त बताया। जब साधना समाप्त करके श्री पारासर जी सोलह वर्ष उपरान्त वापिस आ रहे थे, दरिया पार करने के लिए मलाह को पुकार कर कहा कि मुझे शीघ्र दरिया से पार कर। मेरी पत्नी मेरी प्रतिक्षा कर रही है। उस समय मलाह खाना खा रहा था तथा श्री पारासर ऋषि के बीज से मछली से उत्पन्न चैदह वर्षीय युवा कन्या अपने पिता का खाना लेकर वहीं पर उपस्थित थी। मलाह को ज्ञान था कि साधना तपस्या करके आने वाला ऋषि सिद्धि युक्त होता है। आज्ञा का शीघ्र पालन न करने के कारण शाप दे देता है। मलाह ने कहा ऋषिवर मैं खाना खा रहा हूँ, अधूरा खाना छोड़ना अन्नदेव का अपमान होता है, मुझे पाप लगेगा। परन्तु श्री पारासर जी ने एक नहीं सुनी। ऋषि को अति उतावला जानकर मल्लाह ने अपनी युवा पुत्री से ऋषि जी को पार छोड़ने को कहा। 
पिता जी का आदेश प्राप्त कर पुत्री नौका में ऋषि पारासर जी को लेकर चल पड़ी। दरिया के मध्य जाने के पश्चात् ऋषि पारासर जी ने अपने ही बीज शक्ति से मछली से उत्पन्न लड़की अर्थात् अपनी ही पुत्री से दुष्कर्म करने की इच्छा व्यक्त की। लड़की भी अपने पालक पिता मलाह से ऋषियों के क्रोध से दिए शाप से हुए दुःखी व्यक्तियों की कथाऐं सुना करती थी। शाप के डर से कांपती हुई कन्या ने कहा ऋषि जी आप ब्राह्मण हो, मैं एक शुद्र की पुत्री हूँ। 

ऋषि पारासर जी ने कहा कोई चिंता नहीं। लड़की ने अपनी इज्जत रक्षा के लिए फिर बहाना किया हे ऋषिवर मेरे शरीर से मछली की दुर्गन्ध निकल रही है। ऋषि पारासर जी ने अपनी सिद्धि शक्ति से दुर्गन्ध समाप्त कर दी। फिर लड़की ने कहा दोनों किनारों पर व्यक्ति देख रहे हैं। ऋषि पारासर जी ने  नदी का जल हाथ में उठा कर आकाश में फैंका तथा अपनी सिद्धि शक्ति से धूंध उत्पन्न कर दी। अपना मनोरथ पूरा किया। 

लड़की ने अपने पालक पिता को अपनी पालक माता के माध्यम से सर्व घटना से अवगत करा दिया तथा
बताया कि 

ऋषि ने अपना नाम पारासर बताया तथा ऋषि वशिष्ठ जी का पौत्र (पोता) बताया था। समय आने पर कंवारी के गर्भ से श्री व्यास ऋषि उत्पन्न हुए। 

उसी श्री पारासर जी के द्वारा श्री विष्णु पुराण की रचना हुई है। श्री पारासर जी ने बताया कि हे मैत्रोय जो ज्ञान मैं तुझे सुनाने जा रहा हूँ, यही प्रसंग दक्षादि मुनियों ने नर्मदा तट पर राजा पुरुकुत्स को सुनाया था। पुरुकुत्स ने सारस्वत से और सारस्वत ने मुझ से कहा था।

श्री पारासर जी ने श्री विष्णु पुराण के 

प्रथम अध्याय श्लोक संख्या 31, पृष्ठ संख्या 3 में कहा है कि यह जगत विष्णु से उत्पन्न हुआ है, उन्हीं में स्थित है। वे ही इसकी स्थिति और लय के कर्ता हैं। 

अध्याय 2 श्लोक15.16 पृष्ठ 4 में कहा है कि हे द्विज ! परब्रह्मका प्रथम रूप पुरुष अर्थात् भगवान जैसा लगता है, परन्तु व्यक्त (महाविष्णु रूप में प्रकट होना) तथा अव्यक्त (अदृश रूप में वास्तविक काल रूप में इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में रहना) उसके अन्य रूप हैं तथा ‘काल‘ उसका परम रूप है। भगवान विष्णु जो काल रूप में तथा व्यक्त और अव्यक्त रूप से स्थित होते हैं, यह उनकी बालवत लीला है। 

अध्याय 2 श्लोक 27 पृष्ठ 5 में कहा है - हे मैत्रय ! प्रलय काल में प्रधान अर्थात् प्रकृति के साम्य अवस्था में स्थित हो जाने पर अर्थात्पु रुष के प्रकृति से प थक स्थित हो जाने पर विष्णु भगवान का काल रूप प्रव त होता है।

अध्याय 2 श्लोक 28 से 30 पृष्ठ 5 - तदन्तर (सर्गकाल उपस्थित होने पर) उन परब्रह्म परमात्मा विश्व रूप सर्वव्यापी सर्वभूतेश्वर सर्वात्मा परमेश्वर ने अपनी इच्छा से विकारी प्रधान और अविकारी पुरुष में प्रविष्ट होकर
उनको क्षोभित किया।।28. 29।। जिस प्रकार क्रियाशील न होने पर भी गंध अपनी सन्निधि मात्र से ही प्रधान व पुरुष को पे्ररित करते हैं। 

विशेष - श्लोक संख्या 28 से 30 में स्पष्ट किया है कि प्रकृति (दुर्गा) तथा पुरुष (काल- प्रभु) से अन्य कोई और परमेश्वर है जो इन दोनों को पुनर् सृष्टि रचना के लिए प्रेरित करता है।

अध्याय 2 पृष्ठ 8 पर श्लोक 66 में लिखा है वेही प्रभु विष्णु सृष्टा (ब्रह्मा) होकर अपनी ही सृष्टि करते हैं। श्लोक संख्या 70 में लिखा है। भगवान विष्णु ही ब्रह्मा आदि अवस्थाओं द्वारा रचने वाले हैं। वे ही रचे जाते हैं और स्वयं भी संहृत अर्थात् मरते हैं।

अध्याय 4 श्लोक 4 पृष्ठ 11 पर लिखा है कि कोई अन्य परमेश्वर है जो ब्रह्मा, शिव आदि ईश्वरों के भी ईश्वर हैं।
अध्याय 4 श्लोक 14.15, 17 - 22 पृष्ठ 11 - 12 पर लिखा है। पृथ्वी बोली - हे काल स्वरूप ! आपको नमस्कार हो। हे प्रभो ! आप ही जगत की सृष्टि आदि के लिए ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र रूप धारण करने वाले हैं। आपका जो रूप अवतार रूप में प्रकट होता है उसी की देवगण पूजा करते हैं। आप ही ओंकार हैं। 

अध्याय 4 श्लोक 50 पृष्ठ 14 पर लिखा है - फिर उन भगवान हरि ने रजोगुण युक्त होकर चतुर्मुख धारी ब्रह्मा रूप धारण कर सृष्टि की रचना की। 

उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि ऋषि पारासर जी ने सुना सुनाया ज्ञान अर्थात्लो कवेद के आधार पर श्री विष्णु पुराण की रचना की है। 

क्योंकि वास्तविक ज्ञान पूर्ण परमात्मा ने प्रथम सतयुग में स्वयं प्रकट होकर श्री ब्रह्मा जी को दिया था। श्री ब्रह्मा जी ने कुछ ज्ञान तथा कुछ स्वनिर्मित काल्पनिक ज्ञान अपने वंशजों को बताया। एक दूसरे से सुनते-सुनाते ही लोकवेद श्री पारासर जी को प्राप्त हुआ। 

श्री पारासर जी ने विष्णु को काल भी कहा है तथा परब्रह्म भी कहा है। 

उपरोक्त विवरण से यह भी

सिद्ध हुआ कि विष्णु अर्थात् ब्रह्म स्वरूप काल अपनी उत्पत्ति ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव रूप से करके सृष्टि उत्पन्न करते हैं। ब्रह्म (काल) ही ब्रह्म लोक में तीन रूपों में प्रकट हो कर लीला करके छल करता है। वहाँ स्वयं भी मरता है (विशेष जानकारी के लिए कृप्या पढ़ें ‘प्रलय की जानकारी‘ पुस्तक ‘गहरी नजर गीता में‘ अध्याय 8 श्लोक 17 की व्याख्या में) उसी ब्रह्म लोक में तीन स्थान बनाए हैं। एक रजोगुण प्रधान उसमें यही काल रूपी ब्रह्म अपना ब्रह्मा रूप धारण करके रहता है तथा अपनी पत्नी दुर्गा को साथ रख कर एक रजोगुण प्रधान पुत्र उत्पन्न करता है। उसका नाम ब्रह्मा रखता है। उसी से एक ब्रह्मण्ड में उत्पत्ति करवाता है। इसी प्रकार
उसी ब्रह्म लोक एक सतगुण प्रधान स्थान बना कर स्वयं अपना विष्णु रूप धारण करके रहता है तथा अपनी पत्नी दुर्गा (प्रकति) को पत्नी रूप में रख कर एक सतगुण युक्त पुत्र उत्पन्न करता है। उसका नाम विष्णु रखता है। 

उस पुत्र से एक ब्रह्मण्ड में तीन लोकों (पृथ्वी , पाताल, स्वर्ग) में स्थिति बनाए रखने का कार्य करवाता है।

(प्रमाण शिव पुराण गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित अनुवाद हनुमान प्रसाद पौद्दार चिमन लाल गौस्वामी रूद्र संहिता अध्याय 6, 7 पृष्ठ 102.103) ब्रह्मलोक में ही एक तीसरा स्थान तमगुण प्रधान रच कर उसमें स्वयं शिव धारण करके रहता है तथा अपनी पत्नी दुर्गा (प्रकृति ) को साथ रख कर पति-पत्नी के व्यवहार से उसी तरह
तीसरा पुत्र तमोगुण युक्त उत्पन्न करता है। उसका नाम शंकर (शिव) रखता है। इस पुत्र से तीन लोक के प्राणियों का संहार करवाता है। विष्णु पुराण में अध्याय 4 तक जो ज्ञान है वह काल रूप ब्रह्म अर्थात् ज्योति निरंजन का है। 

अध्याय 5 से आगे का मिला-जुला ज्ञान काल के पुत्र सतगुण विष्णु की लीलाओं का है तथा उसी के अवतार श्री राम, श्री क ष्ण आदि का ज्ञान है। 

विशेष विचार करने की बात है कि श्री विष्णु पुराण का वक्ता श्री पारासर ऋषि है। यही ज्ञान दक्षादि ऋषियों से
पुरुकुत्स ने सुना, पुरुकुत्स से सारस्वत ने सुना तथा सारस्वत से श्री पारासर ऋषि ने सुना। वह ज्ञान श्री विष्णु पुराण में लिपि बद्ध किया गया जो आज अपने करकमलों में है। इसमें केवल एक ब्रह्मण्ड का ज्ञान भी अधुरा है।

श्री देवीपुराण, श्री शिवपुराण आदि पुराणों का ज्ञान भी ब्रह्मा जी का दिया हुआ है। 

श्रीपारासर वाला ज्ञान श्री ब्रह्मा जी द्वारा दिए ज्ञान के समान नहीं हो सकता। इसलिए श्री विष्णु पुराण को समझने के लिए देवी पुराण तथा श्री शिव पुराण का सहयोग लिया जाएगा। क्योंकि यह ज्ञान दक्षादि ऋषियों के पिता श्री ब्रह्मा जी का दिया हुआ है।
श्री देवी पुराण तथा श्री शिवपुराणको समझने के लिए श्रीमद् भगवद् गीता तथा चारों वेदों का सहयोग लिया जाएगा। क्योंकि यह ज्ञान स्वयं भगवान काल रूपी ब्रह्म द्वारा दिया गया है। जो ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जी का उत्पन्न कर्ता अर्थात् पिता है। 

पवित्र वेदों तथा पवित्र श्रीमद् भगवद् गीता जी के ज्ञान को समझने के लिए स्वसम वेद अर्थात् सूक्ष्म वेद का सहयोग लेना होगा जो काल रूपी ब्रह्म के उत्पत्ति कर्ता अर्थात् पिता परम अक्षर ब्रह्म (कविर्देव) का दिया हुआ है। जो (कविर्गीभिः) कविर्वाणी द्वारा स्वयं सतपुरुष ने प्रकट हो कर बोला था। 

(ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 16 से 20 तक प्रमाण है।)
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‘शिव महापुराण‘‘
‘‘श्री शिव महापुराण (अनुवादक: श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार। प्रकाशक: गोबिन्द भवन कार्यालय, गीताप्रैस गोरखपुर) मोटा टाइप, 

अध्याय 6, रूद्रसंहिता, प्रथम खण्ड(सष्टी) से निष्कर्ष‘‘ अपने पुत्रा श्री नारद जी के श्री शिव तथा श्री शिवा के विषय में पूछने पर श्री ब्रह्मा जी ने कहा (प ष्ठ 100 से 102) जिस परब्रह्म के विषय में ज्ञान और अज्ञान से पूर्ण युक्तियों द्वारा इस प्रकार विकल्प किये जाते हैं, जो निराकार परब्रह्म है वही साकार रूप में सदाशिव रूप धारकर मनुष्य रूप में प्रकट हुआ। 

सदा शिव ने अपने शरीर से एक स्त्राी को उत्पन्न किया जिसे प्रधान, प्रकति, अम्बिका, त्रिदेवजननी (ब्रह्मा, विष्णु, शिव की माता) कहा जाता है। जिसकी आठ भुजाऐं हैं।

‘‘श्री विष्णु की उत्पत्ति‘‘ 

जो वे सदाशिव हैं उन्हें परम पुरुष, ईश्वर, शिव, शम्भु और महेश्वर कहते हैं। वे अपने सारे अंगों में भस्म रमाये रहते हैं। उन काल रूपी ब्रह्म ने एक शिवलोक नामक (ब्रह्मलोक में तमोगुण प्रधान क्षेत्रा) धाम बनाया। उसे काशी कहते हैं। शिव तथा शिवा ने पति-पत्नी रूप में रहते हुए एक पुत्रा की उत्पत्ति की, जिसका नाम विष्णु
रखा। अध्याय 7, रूद्र संहिता, शिव महापुराण (प ष्ठ 103, 104)।

”श्री ब्रह्मा तथा शिव की उत्पत्ति“
अध्याय 7, 8, 9(प ष्ठ 105-110) श्री ब्रह्मा जी ने बताया कि श्री शिव तथा शिवा (काल रूपी ब्रह्म तथा प्रक ति-दुर्गा-अष्टंगी) ने पति-पत्नी व्यवहार से मेरी भी उत्पति की तथा फि मुझे अचेत करके कमल पर डाल दिया।
यही काल महाविष्णु रूप धारकर अपनी नाभि से एक कमल उत्पन्न कर लेता है। ब्रह्मा आगे कहता है कि फिर होश में आया। कमल की मूल को ढूंढना चाहा, परन्तु असफल रहा। फिर तप करने की आकाशवाणी हुई। तप किया। फिर मेरी तथा विष्णु की किसी बात पर लड़ाई हो गई। 

(विवरण इसी पुस्तक के प ष्ठ 549 पर) तब हमारे बीच में एक तेजोमय लिंग प्रकट हो गया तथा ओ3म्-ओ3म् का नाद प्रकट हुआ तथा उस लिंग पर अ-उ-म तीनों अक्षर भी लिखे थे। फिर रूद्र रूप धारण करके सदाशिव पाँच मुख वाले मानव रूप में प्रकट हुए, उनके साथ शिवा (दुर्गा) भी थी। फिर शंकर को अचानक प्रकट किया (क्योंकि
यह पहले अचेत था, फिर सचेत करके तीनों को इक्कठे कर दिया) तथा 

कहा कि तुम तीनों सष्टी-स्थिति तथा संहार का कार्य संभालो। रजगुण प्रधान ब्रह्मा जी, सतगुण प्रधान विष्णु जी तथा तमगुण प्रधान शिव जी हैं।  इस प्रकार तीनों देवताओं में गुण हैं, परन्तु शिव (काल रूपी ब्रह्म) गुणातीत माने गए हैं (प ष्ठ 110 पर)।

सार विचार:- उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि काल रूपी ब्रह्म अर्थात् सदाशिव तथा प्रकति (दुर्गा) श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव के माता पिता हैं। दुर्गा इसे प्रकति तथा प्रधान भी कहते हैं, इसकी आठ भुजाऐं हैं। यह सदाशिव अर्थात् ज्योति निरंजन काल के शरीर अर्थात् पेट से निकली है। ब्रह्म अर्थात् काल तथा प्रक ति (दुर्गा) सर्व प्राणियों को भ्रमित रखते हैं। अपने पुत्रों को भी वास्तविकता नहीं बताते। कारण है कि कहीं काल (ब्रह्म) के इक्कीस ब्रह्मण्ड के प्राणियों को पता लग जाए कि हमें तप्तशिला पर भून कर
काल (ब्रह्म-ज्योति निरंजन) खाता है। इसीलिए जन्म-म त्यु तथा अन्य दुःखदाई योनियों में पीडि़त करता है तथा अपने तीनों पुत्रों रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी से उत्पत्ति, स्थिति, पालन
तथा संहार करवा कर अपना आहार तैयार करवाता है। क्योंकि काल को एक लाख मानव शरीरधारी प्राणियों का आहार करने का शाप लगा है, क पया श्रीमद् भगवत गीता जी में भी देखें ‘काल (ब्रह्म) तथा प्रक ति (दुर्गा) के
पति-पत्नी कर्म से रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव की उत्पत्ति।
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             सत साहेब
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न जाने कौन  इंतज़ार  कर रहा  है!!!!!!....

|| मृत्यु से भय कैसा ||

राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत पुराण सुनातें हुए जब शुकदेव जी महाराज को छह दिन बीत गए और तक्षक ( सर्प ) के काटने से मृत्यु होने का एक दिन शेष रह गया, तब भी राजा परीक्षित का शोक और मृत्युका भय दूर नहीं हुआ।
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अपने मरने की घड़ी निकट आती देखकर राजा का मन क्षुब्ध हो रहा था।
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तब शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित को एक कथा सुनानी आरंभ की।
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राजन ! बहुत समय पहले की बात है, एक राजा किसी जंगल में शिकार खेलने गया।
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संयोगवश वह रास्ता भूलकर बड़े घने जंगल में जा पहुँचा। उसे रास्ता ढूंढते-ढूंढते रात्रि पड़ गई और भारी वर्षा पड़ने लगी।
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जंगल में सिंह व्याघ्र आदि बोलने लगे। वह राजा बहुत डर गया और किसी प्रकार उस भयानक जंगल में रात्रि बिताने के लिए विश्राम का स्थान ढूंढने लगा।
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रात के समय में अंधेरा होने की वजह से उसे एक दीपक दिखाई दिया।
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वहाँ पहुँचकर उसने एक गंदे बहेलिये की झोंपड़ी देखी । वह बहेलिया ज्यादा चल-फिर नहीं सकता था, इसलिए झोंपड़ी में ही एक ओर उसने मल-मूत्र त्यागनेका स्थान बना रखा था। अपने खाने के लिए जानवरों का मांस उसने झोंपड़ी की छत पर लटका रखा था। बड़ी गंदी, छोटी, अंधेरी और दुर्गंधयुक्त वह झोंपड़ी थी।
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उस झोंपड़ी को देखकर पहले तो राजा ठिठका, लेकिन पीछे उसने सिर छिपाने का कोई और आश्रय नदेखकर उस बहेलिये से अपनी झोंपड़ी में रात भर ठहर जाने देने के लिए प्रार्थना की।
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बहेलिये ने कहा कि आश्रय के लोभी राहगीर कभी- कभी यहाँ आ भटकते हैं। मैं उन्हें ठहरा तो लेता हूँ, लेकिन दूसरे दिन जाते समय वे बहुत झंझट करते हैं।
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इस झोंपड़ी की गंध उन्हें ऐसी भा जाती है कि फिर वे उसे छोड़ना ही नहीं चाहते और इसी में ही रहने की कोशिश करते हैं एवं अपना कब्जा जमाते हैं। ऐसे झंझट में मैं कई बार पड़ चुका हूँ।।
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इसलिए मैं अब किसी को भी यहां नहीं ठहरने देता। मैं आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूंगा।
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राजा ने प्रतिज्ञा की कि वह सुबह होते ही इस झोंपड़ी को अवश्य खाली कर देगा। उसका काम तो बहुत बड़ा है, यहाँ तो वह संयोगवश भटकते हुए आया है, सिर्फ एक रात्रि ही काटनी है।
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बहेलिये ने राजा को ठहरने की अनुमति दे दी, पर सुबह होते ही बिना कोई झंझट किए झोंपड़ी खाली कर
देने की शर्त को फिर दोहरा दिया।
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राजा रात भर एक कोने में पड़ा सोता रहा। सोने में झोंपड़ी की दुर्गंध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गई कि सुबह उठा तो वही सब परमप्रिय लगने लगा। अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूलकर वहीं निवास करने की बात सोचने लगा।
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वह बहेलिये से और ठहरने की प्रार्थना करने लगा। इस पर बहेलिया भड़क गया और राजा को भला-बुरा कहने लगा।
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राजा को अब वह जगह छोड़ना झंझट लगने लगा और दोनों के बीच उस स्थान को लेकर बड़ा विवाद खड़ा
हो गया।
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कथा सुनाकर शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित से पूछा," परीक्षित ! बताओ, उस राजा का उस स्थान पर सदा के लिए रहने के लिए झंझट करना उचित था ?
".
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परीक्षित ने उत्तर दिया," भगवन् ! वह कौन राजा था, उसका नाम तो बताइये ? वह तो बड़ा भारी मूर्ख जान पड़ता है, जो ऐसी गंदी झोंपड़ी में, अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर एवं अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर, नियत अवधि से भी अधिक रहना चाहता है। उसकी मूर्खता पर तो मुझे आश्चर्य होता है। "
श्री शुकदेव जी महाराज ने कहा," हे राजा परीक्षित ! वह बड़े भारी मूर्ख तो स्वयं आप ही हैं। इस मल-मूल की गठरी देह ( शरीर ) में जितने समय आपकी आत्मा को रहना आवश्यक था, वह अवधि तो कल समाप्त हो रही है। अब आपको उस लोक जाना है, जहाँ से आप आएं हैं। फिर भी आप झंझट फैला रहे हैं और मरना नहीं चाहते। क्या यह आपकी मूर्खता नहीं है ?"
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राजा परीक्षित का ज्ञान जाग पड़ा और वे बंधन मुक्ति के लिए सहर्ष तैयार हो गए।
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मेरे भाई - बहनों, वास्तव में यही सत्य है।


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जब एक जीव अपनी माँ की कोख से जन्म लेता है तो अपनी माँ की कोख के अन्दर भगवान से प्रार्थना करता है कि हे भगवन् ! मुझे यहाँ ( इस कोख ) से मुक्त कीजिए, मैं आपका भजन-सुमिरन करूँगा।
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.और जब वह जन्म लेकर इस संसार में आता है तो ( उस राजा की तरह हैरान होकर ) सोचने लगता है कि मैं ये कहाँ आ गया ( और पैदा होते ही रोने लगता है ) फिर उस गंध से भरी झोंपड़ी की तरह उसे यहाँ की खुशबू ऐसी भा जाती है कि वह अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर यहाँ से जाना ही नहीं चाहता है।
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यही मेरी भी कथा है और आपकी भी।
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(Shrimad Bhagavad Gita)
पूर्ण परमात्मा(पूर्ण ब्रह्म) अर्थात् सतपुरुष का ज्ञान न होने के कारण सर्व विद्वानों को ब्रह्म (निरंजन- काल भगवान जिसे महाविष्णु कहते हैं) तक का ज्ञान है। पवित्र आत्माऐं चाहे वे ईसाई हैं, मुसलमान, हिन्दू या सिख हैं इनको केवल अव्यक्त अर्थात् एक ओंकार परमात्मा की पूजा का ही ज्ञान पवित्र शास्त्रों (जैसे पुराणों, उपनिष्दांे, कतेबों, वेदों, गीता आदि नामों से जाना जाता है) से हो पाया। क्योंकि इन सर्व शास्त्रों में ज्योति स्वरूपी(प्रकाशमय) परमात्मा ब्रह्म की ही पूजा विधि का वर्णन है तथा जानकारी पूर्ण ब्रह्म(सतपुरुष) की भी है। पूर्ण संत (तत्वदर्शी संत) न मिलने से पूर्ण ब्रह्म की पूजा का ज्ञान नहीं हुआ।

  जिस कारण से पवित्र आत्माऐं ईसाई फोर्मलैस गौड (निराकार प्रभु) कहते हैं। जबकि पवित्र बाईबल में उत्पत्ति विषयके सृष्टि की उत्पत्ति नामक अध्याय में लिखा है कि प्रभु ने मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसारउत्पन्न किया तथा छः दिन में सृष्टि रचना करके सातवें दिन विश्राम किया। इससे स्वसिद्ध है कि प्रभु भी मनुष्य जैसे आकार में है। इसी का प्रमाण पवित्र र्कुआन शरीफ में भी है। इसी प्रकार पवित्र आत्माऐं मुस्लमान प्रभु को बेचून (निराकार) अल्लाह (प्रभु) कहते हैं, जबकि पवित्र र्कुआन शरीफ के सुरत फूर्कानि संख्या 25, आयत संख्या 52 से 59 में लिखा है कि जिस प्रभु ने छः दिन में सृष्टि रची तथा सातवें दिन तख्त पर जा विराजा, उसका नाम कबीर है। पवित्र र्कुआन को बोलने वाला प्रभु किसी और कबीर नामक प्रभु की तरफ संकेत कर रहा है तथा कह रहा
है कि वही कबीर प्रभु ही पूजा के योग्य है, पाप क्षमा करने वाला है, परन्तु उसकी भक्ति के विषय में मुझे ज्ञान नहीं, किसी तत्वदर्शी संत से पूछो। उपरोक्त दोनों पवित्र शास्त्रों (पवित्र बाईबल व पवित्र र्कुआन शरीफ) ने मिल-जुल कर सिद्ध कर दिया है कि परमेश्वर मनुष्य सदृश शरीर युक्त है। उसका नाम कबीर है। पवित्रआत्माऐं हिन्दू व सिख उसे निरंकार(निर्गुण ब्रह्म) के नाम से जानते हैं। 

जबकि आदरणीय नानक साहेब जी ने सतपुरुष के आकार रूप में दर्शन करने के बाद अपनी अमृतवाणी महला पहला ‘श्रीगुरु ग्रन्थ साहेब‘ में पूर्ण ब्रह्म का आकार होने का प्रमाण दिया है, लिखा है ‘‘धाणक रूप रहा करतार (पृष्ठ 24), हक्का कबीर करीम तू बेएब परवरदिगार(पृष्ठ 721)‘‘ 

तथा प्रभु के मिलने से पहले पवित्र हिन्दू धर्म में जन्म होने के कारण श्री ब्रजलाल पाण्डे से
पवित्र गीता जी को पढ़कर श्री नानक साहेब जी ब्रह्म को निराकार कहा करते थे। उनकी दोनों प्रकार की अमृतवाणी गुरु ग्रन्थ साहेब मे लिखी हैं। 

हिन्दुओं के शास्त्रों में पवित्र वेद व गीता विशेष हैं, उनके साथ-2 अठारह पुराणों को भी समान दृष्टी से देखा जाता है। श्रीमद् भागवत सुधासागर, रामायण, महाभारत भी विशेष प्रमाणित शास्त्रों में से हैं। विशेष विचारणीय विषय यह है कि जिन पवित्र शास्त्रों को हिन्दुओं के शास्त्र कहा जाता है, जैसे पवित्र चारों वेद व पवित्र श्रीमद् भगवत गीता जी आदि, वास्तव में ये सद् शास्त्र केवल पवित्र हिन्दु धर्म के ही नहीं हैं। 

ये सर्व शास्त्र महर्षि व्यास जी द्वारा उस समय लिखे गए थे जब कोई अन्य धर्म नहीं था। इसलिए पवित्र वेद व पवित्र श्रीमद्भगवत गीता जी तथा पवित्रपुराणादि सर्व मानव मात्र के कल्याण के लिए हैं। पवित्र यजुर्वेद अध्याय 1 मंत्र 15-16 तथा अध्याय 5 मंत्र 1 व 32 में स्पष्ट किया है कि

‘‘{अग्नेः तनूर् असि, विष्णवे त्वा सोमस्य तनुर्
असि, कविरंघारिः असि, स्वज्र्योति ऋतधामा असि} 

परमेश्वर का शरीर है, पाप के शत्रु परमेश्वर का नाम कविर्देव है, उस सर्व पालन कत्र्ता अमर पुरुष अर्थात् सतपुरुष का शरीर है। वह स्वप्रकाशित शरीर वाला प्रभु सत धाम अर्थात् सतलोक में रहता है। 

पवित्र वेदों को बोलने वाला ब्रह्म यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 8 में कह रहा है कि पूर्ण परमात्मा 
कविर्मनीषी अर्थात्क विर्देव ही वह तत्वदर्शी है 
जिसकी चाह सर्व प्राणियों को है, वह कविर्देव परिभूः अर्थात्स र्व प्रथम प्रकट हुआ, जो सर्व प्राणियों की
सर्व मनोकामना पूर्ण करता है। वह कविर्देव स्वयंभूः अर्थात् स्वयं प्रकट होता है, उसका शरीर किसी माता-पिता के संयोग से (शुक्रम् अकायम्) वीर्य से बनी काया नहीं है, उसका शरीर (अस्नाविरम्) नाड़ी रहित है अर्थात्
पांच तत्व का नहीं है, केवल तेजपुंज से एक तत्व का है, जैसे एक तो मिट्टी की मूर्ति बनी है, उसमें भी नाक, कान आदि अंग हैं तथा दूसरी सोने की मूर्ति बनी है, उसमें भी सर्व अंग हैं। ठीक इसी प्रकार पूज्य कविर्देव का शरीर तेज तत्व का बना है, इसलिए उस परमेश्वर के शरीर की उपमा में अग्नेः तनूर् असि वेद में कहा है। सर्व प्रथम 

पवित्र शास्त्र श्रीमद्भगवत गीता जी पर विचार करते हैं।

”पवित्र श्रीमद्भगवत गीता जी का ज्ञान किसने कहा?“

पवित्र गीता जी के ज्ञान को उस समय बोला गया था जब महाभारत का युद्ध होने जा रहा था। अर्जुन ने युद्ध करने से इन्कार कर दिया था। युद्ध क्यों हो रहा था? इस युद्ध को धर्मयुद्ध की संज्ञा भी नहीं दी जा सकती क्योंकि दो परिवारों का सम्पत्ति वितरण का विषय था। कौरवों तथा पाण्डवों का सम्पत्ति बंटवारा नहीं हो रहा था। कौरवों ने पाण्डवों को आधा राज्य भी देने से मना कर दिया था। दोनों पक्षों का बीच-बचाव करने के लिए प्रभु
श्री कृष्ण जी तीन बार शान्ति दूत बन कर गए। परन्तु दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी जिद्द पर अटल थे। श्री कृष्ण जी ने युद्ध से होने वाली हानि से भी परिचित कराते हुए कहा कि न जाने कितनी बहन विधवा होंगी ? न जाने कितने बच्चे अनाथ होंगे ? महापाप के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा। युद्ध में न जाने कौन मरे, कौन बचे ? तीसरी बार जब श्री कृष्ण जी समझौता करवाने गए तो दोनों पक्षों ने अपने-अपने पक्ष वाले राजाओं की सेना सहित सूची पत्र दिखाया तथा कहा कि इतने राजा हमारे पक्ष में हैं तथा इतने हमारे पक्ष में। जब श्री कृष्ण जी ने
देखा कि दोनों ही पक्ष टस से मस नहीं हो रहे हैं, युद्ध के लिए तैयार हो चुके हैं। तब श्री कृष्ण जी ने सोचा कि एक दाव और है वह भी आज लगा देता हूँ। 

श्री कृष्ण जी ने सोचा कि कहीं पाण्डव मेरे सम्बन्धी होने के कारण अपनी जिद्द इसलिए न छोड़ रहे हों कि श्री कृष्ण हमारे साथ हैं, विजय हमारी ही होगी(क्योंकि श्री कृष्ण जी की बहन सुभद्रा जी का विवाह श्री अर्जुन
जी से हुआ था)। श्री कृष्ण जी ने कहा कि एक तरफ मेरी सर्व सेना होगी और दूसरी तरफ मैंहोऊँगा और इसके साथ-साथ मैं वचन बद्ध भी होता हूँ कि मैं हथियार भी नहीं उठाऊँगा। इस घोषणा से पाण्डवों के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। उनको लगा कि अब हमारी पराजय निश्चित है। यह विचार कर पाँचों पाण्डव यह कह कर सभा से बाहर गए कि हम कुछविचार कर लें। कुछ समय उपरान्त श्री कृष्ण जी को सभा से बाहर आने की प्रार्थना की। श्री कृष्ण जी के बाहर आने पर पाण्डवों ने कहा कि हे भगवन् ! हमें पाँच गाँव दिलवा दो। हम युद्ध नहीं चाहते हैं। हमारी इज्जत भी रह जाएगी और आप चाहते हैं कि युद्ध न हो, यह भी टल जाएगा। पाण्डवों के इस फैसले से श्री कृष्ण जी बहुत प्रसन्न हुए तथा सोचा कि बुरा समय टल गया। श्री कृष्ण जी वापिस आए, सभा में केवल कौरव तथा उनके समर्थक शेष थे। श्री कृष्ण जी ने कहा दुर्योधन युद्ध टल गया है। मेरी भी यह हार्दिक इच्छा थी। आप पाण्डवों को पाँच गाँव दे दो, वे कह रहे हैं कि हम युद्ध नहीं चाहते। दुर्योधन ने कहा कि पाण्डवों के लिए सुई की नोक तुल्य भी जमीन नहीं है। यदि उन्हंे राज्य चाहिए तो युद्ध के लिए कुरुक्षेत्र के मैदान में आ जाऐं। इस बात से श्री कृष्ण जी ने नाराज होकर कहा कि दुर्योधन तू इंसान नहीं शैतान है। कहाँ आधा राज्य और कहाँ पाँच गाँव? मेरी बात मान ले, पाँच गाँव दे दे। श्री कृष्ण से नाराज होकर दुर्योधन ने सभा में उपस्थित योद्धाओं को आज्ञा दी कि श्री कृष्ण को पकड़ो तथा कारागार में डाल दो। आज्ञा मिलते ही योद्धाओं ने श्री कृष्ण जी को चारों तरफ से घेर लिया। 

श्री कृष्ण जी ने अपना विराट रूप दिखाया। जिस कारण सर्व योद्धा और कौरव डर कर कुर्सियों के नीचे घुस गए तथा शरीर के तेज प्रकाश से आँखें बंद हो गई। श्री कृष्ण जी वहाँ से निकल गए। 

आओ विचार करें:- उपरोक्त विराट रूप दिखाने का प्रमाण संक्षिप्त महाभारत गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित में प्रत्यक्ष है। जब कुरुक्षेत्र के मैदान में पवित्र गीता जी का ज्ञान सुनाते समय अध्याय 11 श्लोक 32 में पवित्र गीता बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि ‘अर्जुन मैं बढ़ा हुआ काल हूँ। अब सर्व लोकों को खाने के लिए प्रकट हुआ हूँ।‘ जरा सोचें कि श्री कृष्ण जी तो पहले से ही श्री अर्जुन जी के साथ थे। यदि पवित्र गीता जी के ज्ञान को श्री कृष्ण जी बोल रहे होते तो यह नहीं कहते कि अब प्रवत्र्त हुआ हूँ। 

फिर अध्याय 11 श्लोक 21 व 46 में अर्जुनकह रहा है कि भगवन् ! आप तो ऋषियों, देवताओं तथा सिद्धों को भी खा रहे हो, जो आप का ही गुणगान पवित्र वेदों के मंत्रों द्वारा उच्चारण कर रहे हैं तथा अपने जीवन की रक्षा के लिए मंगल कामना कर रहे हैं। कुछ आपके दाढ़ों में लटक रहे हैं, कुछ आप के मुख में समा रहे हैं। हे सहò बाहु अर्थात् हजार भुजा वाले भगवान ! आप अपने उसी चतुर्भुज रूप में आईये। मैं आपके विकराल रूप को देखकर धीरज नहीं कर पा रहा हूँ। अध्याय 11 श्लोक 47 में पवित्र गीता जी को बोलने वाला प्रभु काल कह रहा है कि ‘हे अर्जुन यह मेरा वास्तविक काल रूप है, जिसे तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा था।‘ उपरोक्त विवरण से एक तथ्य तो यह सिद्ध हुआ कि कौरवों की सभा में विराट रूप श्री कृष्ण जी ने दिखाया था तथा यहाँ युद्ध के मैदान में विराट रूप काल (श्री कृष्ण जी के शरीर मंे प्रेतवत्प्र वेश करके अपना विराट रूप काल) ने दिखाया था। नहीं तो यह नहीं कहता कि यह विराट रूप तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा है क्योंकि श्री कृष्ण जी अपना विराट रूप कौरवों की सभा में पहले ही दिखा चुके थे। दूसरी यह बात सिद्ध हुई कि पवित्र गीता जी को बोलने वाला काल(ब्रह्म-ज्योति निरंजन) है, न कि श्री कृष्ण जी। क्योंकि श्री कृष्ण जी
ने पहले कभी नहीं कहा कि मैं काल हूँ तथा बाद में कभी नहीं कहा कि मैं काल हूँ। श्री कृष्ण जी
काल नहीं हो सकते। उनके दर्शन मात्र को तो दूर- दूर क्षेत्र के स्त्री तथा पुरुष तड़फा करते थे।
यही प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 24. 25 में है जिसमें गीता ज्ञान दाता प्रभु ने कहा है कि
बुद्धिहीन जन समुदाय मेरे उस घटिया (अनुत्तम) विद्यान को नहीं जानते कि मैं कभी भी मनुष्य
की तरह किसी के सामने प्रकट नहीं होता। मैं अपनी योगमाया से छिपा रहता हूँ। उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता श्री कृष्ण जी नहीं है। क्योंकि श्री कृष्ण जी तो सर्व समक्ष साक्षात् थे। श्री कृष्ण नहीं कहते कि मैं अपनी योग माया से छिपा रहता हूँ। इसलिए गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी के अन्दर प्रेतवत् प्रवेश करके काल ने बोला था। 

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             सत साहेब
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कथा ---

पेंसिल बनाने वाले ने पेंसिल उठाई और उसे डब्बे में रखने से पहले उससे कहा: “इससे पहले कि मैं तुम्हें लोगों के हाथ में सौंप दूँ, मैं तुम्हें 5 बातें बताने जा रहा हूँ जिन्हें तुम हमेशा याद रखना, तभी तुम दुनिया की सबसे अच्छी पेंसिल बन सकोगी. 

पहली – तुम महान विचारों और कलाकृतियों को रेखांकित करोगी, लेकिन इसके लिए तुम्हें स्वयं को सदैव दूसरों के हाथों में सौंपना पड़ेगा.

दूसरी – तुम्हें समय-समय पर बेरहमी से चाकू से छीला जाएगा लेकिन अच्छी पेंसिल बनने के लिए तुम्हें यह सहना पड़ेगा.

तीसरी – तुम अपनी गलतियों को जब चाहे तब सुधर सकोगी.

चौथी – तुम्हारा सबसे महत्वपूर्ण भाग तुम्हारे भीतर रहेगा.

और पांचवीं – तुम हर सतह पर अपना निशान छोड़ जाओगी. कहीं भी – कैसा भी समय हो, तुम लिखना जारी रखोगी.”

पेंसिल ने इन बातों को समझ लिया और कभी न भूलने का वादा किया. फ़िर वह डब्बे के भीतर चली गयी.
अब उस पेंसिल के स्थान पर आप स्वयं को रखकर देखें. उसे बताई गयी पाँचों बातों को याद करें, समझें, और आप दुनिया के सबसे अच्छे व्यक्ति बन पाएंगे.

पहली – आप दुनिया में सभी अच्छे और महान कार्य कर सकेंगे यदि आप स्वयं को ईश्वर के हाथ में सौंप दें. ईश्वर ने आपको जो अमूल्य उपहार दिए हैं उन्हें आप औरों के साथ बाँटें.

दूसरी – आपके साथ भी समय-समय पर कटुतापूर्ण व्यवहार किया जाएगा और आप जीवन के उतार-चढ़ाव से जूझेंगे लेकिन जीवन में बड़ा बनने के लिए आपको वह सब झेलना ज़रूरी होगा.

तीसरी – आपको भी ईश्वर ने इतनी शक्ति और बुद्धि दी है कि आप अपनी गलतियों को कभी भी सुधार सकें और उनका पश्चाताप कर सकें.

चौथी – जो कुछ आपके भीतर है वही सबसे महत्वपूर्ण और वास्तविक है.

और पांचवी – जिस राह से आप गुज़रें वहां अपने चिन्ह छोड़ जायें. चाहे कुछ भी हो जाए, अपने कर्तव्यों से विचलित न हों.

पेंसिल की कहानी का मर्म समझकर स्वयं को यह बताएं कि आप साधारण व्यक्ति नहीं हैं और केवल आप ही वह सब कुछ पा सकते हैं जिसे पाने के लिए आपका जन्म हुआ है. कभी भी अपने मन में यह ख्याल न आने दें कि आपका जीवन बेकार है और आप कुछ नहीं कर सकते!

सत साहिब जी

भक्ति करे तो बावला होकर करे | जैसे की मीरा बहन ने की थी | ये दुनिया वाले तो भगवान पता नही किस पैमाने पर पहचानते है | कोई भी पीर पैगम्बर आते है, उनकी एक नही सुनते है| उनके यहा से जाने के बाद पुजते है | फिर क्या वह मिल जायेगे | इतिहास गवाह है कि जितने भी संत और महापुरूष हुये है उनको जीते जी कभी भी उनकी बताये राह पर नही चले| 

कबीर, दुनिया सेती दोस्ती, होवे भजन मे भंग|
एका एकी राम से, कै साधु संग ||
बिरह-भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ ।
राम-बियोग ना जिबै जिवै तो बौरा होइ ॥
भावार्थ - बिरह का यह भुजंग अंतर में बस रहा है, डसता ही रहता है सदा, कोई भी मंत्र काम नहीं देता । राम का वियोगी जीवित नहीं रहता , और जीवित रह भी जाय तो वह बावला हो जाता है ।

सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त ।
और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त ॥
भावार्थ - शरीर यह रबाब सरोद बन गया है -एक-एक नस तांत हो गयी है । और बजानेवाला कौन है इसका ? वही विरह, इसे या तो वह साईं सुनता है, या फिर बिरह में डूबा हुआ; यह चित्त ।

कथा ---
एक बार कही खुशी का प्रोग्राम था, तो वहा मिठाई बनाने के लिए अच्छे हलवाई को बुलाया | पहले के समय मे कच्ची बठ्ठी होती थी| उसमे लकडी जलाकर कोई भी पकवान बनायै जाते थे| उन बठ्ठियो पर हलवाई ने हर मिठाई और पकवान स्वादिष्ट बनाये| वहा आये लोगो ने खुब सहराया| हलवाई जी चले गये | जिन लोगो ने मिठाई खाई उन्होने उस हलवाई की महिमा दुसरे लोगो को बताई | पर दुर्भाग्य हुआ की वो हलवाई नही रहा | अब वो लोग जिन्होने हलवाई के बारे मे सुना, वे उन बठ्ठियो पर जाते है और उन से बोलते है कि हमे मिठाई दो, हमे भी खानी है | क्या उनको मिठाई मिलेगी | सपने मे भी नही मिलेगी | वो तो उस हलवाई जैसे किसी अन्य हलवाई के पास जाना होगा| उसी प्रकार संत आते है राम नाम की मिठाई खिलाने, पर ये दुनिया मंदिर और मस्जिद जैसी बठ्ठियो पर राम नाम की मिठाई ढुढते है|
तभी तो सतगुरू जी कहते है कि-- भोली सी दुनिया सतगुरू बिन कैसे सरिया..... सतगुरू देव की जय हो..  

`कबीर' भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आइ ।
सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई ॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - कलाल की भट्ठी पर बहुत सारे आकर बैठ गये हैं, पर इस मदिरा को एक वही पी सकेगा, जो अपना सिर कलाल को खुशी-खुशी सौंप देगा, नहीं तो पीना हो नहीं सकेगा । [कलाल है सद्गुरु, मदिरा है प्रभु का प्रेम-रस और सिर है अहंकार ।]

मान बडाई(अहंकारी) जमपुर जाई  होई रहो दासन दासा
साधु(भगत) बनना सहज है, दुर्लभ बनना दास|
दास तब जानिये, जब हाडा पर रहै ना मॉस||
अभिमान तज गुरु वचन पे हो अटल विरला सुर है|
हँस बने सतलोक जावे मुक्ति ना फ़िर दूर है||

मन मगन बऐ का सुन रासा...२
ऐ इन्दरी पृकति पर रे डाल चलो त्रिगुण पासा,
सपम सपा हो मिल नुर मे काम कृोध का कर नासा,
यो तन काख मिलेगा भाई कै पेर मल-मल खासा,
पिण्ड बृह्मड कुछ थिर नही रे गगन मण्डल मे कर बासा,
चिन्ता चेरी दुर पर रे री काट चलो जम का फॉसा,
मान बडाई जम पुर जाई होय रहो दासन दासा,
गरीबदास पद अरस अनाहद सतनाम जप स्वासा,.....
मन मगन बऐ सुन रासा....२

लागी का मार्ग ओर है, लाग चोट कलेजा करके....
जय बंदीछोड की


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Sunday, January 3, 2016

¤ कथा सदना कसाईँ ¤ sadna kasai

कथा सदना कसाईँ 
परमेँश्वर कबीर जी द्वारा हम तुच्छ बुध्दि जीवोँ को भगत सदना कसाईँ की कथा द्वारा कैसा अमृत ज्ञान दिया है ~>
एक सदना नाम का कसाईँ था जो अपनी आजीविका के लिऐँ एक कसाईँ की दुकान पर बकरेँ काटनेँ का काम किया करता था इक दिन सदना कसाईँ को कबीर साहिँब जी मिलेँ सदना कसाईँ ने कबीर साहिँब का सतसंग सुना सदना सतसंग सुनकर बहुत प्रभावित हुआ ।
सतसंग सुनकर सदना कसाईँ को अपने बुरेँ कर्म का ज्ञान हुआ।
सदना नेँ अपने कल्याण के लिऐँ कबीर जी सेँ नाम दिक्षा देने कि याचना कि कि गुरु देँव क्या मुझ पापी का भी उधार हो सकता है जी मैँ कसाईँ हुँ जी कसाईँ सदना नाम मेरा।तब कबीर जी ने कहा कि सदना नौँका मेँ चाहेँ घास रखो ,चाहे पत्थर वो पार कर दिया करती हैँ भाईँ कल्याण हो जाऐगा पर आगे ऐसे कर्म नहीँ करना ,सदना नेँ कहा गुरुदेँव कैसे छोँड़ू इस कसाईँ के काम को मेरे पास कोई और काम नही ।
नहीँ तो बालक भूखे मर जावेँगे।
गुरुदेँव नेँ कहा सदना यो दोनो बात कैसे हो ,मर्याँदा तो निभानी पड़ेगी यदि कल्याण चाहतेँ हो ।
तब सदना बहुत विनती करता है कि गुरुदेँव उधार करो ।
तब कबीर जी ने सदना की लगन देँख कर कहा की ठीक है वचन दो की कितने बकरेँ हर रोज काटोँगे । सदना ने सोचा कि 10 या बीस काटता हुँ और ज्यादा काटनेँ का बचन करता हुँ और बोला 100 बकरेँ काटने का वचन देता हुँ कि सौ से ज्यादा नही काटेँगे बकरेँ ।
तब कबीर जी ने कहा कि जितने काँटने है बकरे अब वचन दे कही बाद मेँ बचन तोड़े तब सदना बोला जी बचन का पक्का हुँ की सौ से ज्यादा नहीँ काँटूगा बकरेँ।
सदना भगति शुरु कर देता है और कुछ दिनो बाद उस नगरी के राजा की लड़की की शादीँ होती है मुस्लमान राजा था शादीँ मेँ माँस का भोजन चल रहा था और सदना के मालिक ने सदना को 20 बकरेँ काटने का आदेँश दिया ,सदना ने 20 बकरेँ काँट दिऐ ।
फिर 20 का आदेँश आया ऐसे करते करते शाम तक सौ बकरेँ कट गऐ ,सदना नेँ शुकर किया गुरुदेँव का,की आज बचन रह गया की सौ ही बकरेँ कट गऐ आज तो बहुत बुरा हुआ ।
सदना ने हथियार रख दियेँ धौकर।
तभी सदना के मालिक के पास कबीर साहिँब एक व्यापारी का रुप बनाकर आते है और कहते है कि मुझेँ तुम से हर रोज 30,40 बकरोँ का सौदा करना,और बात करेगेँ सुबह अब एक स्वस्थ बकरेँ का माँस बनवा दो भूख लगी हैँ ।
सदना के मालिक ने सदना को आदेँश दिया की जल्दी बकरा काँट ऐसे ऐसे कोई व्यपारी आया है उस से एग्रीमेँट होगा ,
अब सदना चिँन्तित हुआ कि बकरा काट दिया तो गुरु जी का बचन टुट जाऐगा,
यदि नही काँटा तो मालिक नौकरी सेँ निकाल देगा मेरी तो दोनो और से बात बिगड़गी ।
सदना ने सोचा की एक आदमी का भोजन बनना है क्यो ना बकरे के नले नले काँट दूँ।
ऐसा सोच कर सदना बकरेँ के नले काँटने लगा तभी परमात्मा ने बकरा बुला दिया बकरा बोला भाई सदना मर्याँदा ना तोड़े मेने तेरा गला काँटा तेरे को ऐसे नहीँ काँटा जो तूँ आज काँटने जा रहा देँख लेना फिर मैँ भी तेरे को ऐसे ही काँटुगा अब सदना किसके बकरे काँटे था काँपे खड़ा खड़ा और बकरा बोला उस दिन यकीन हुआ सदना को की संत सच्ची कहे थे ये बहुत बुरा चक्कर है अब ना करे ऐसेँ कर्मँ नेँ चाहे भूखे मरेँ।सदना के मालिक ने आवाज लगाईँ कि सदना काँटा नही बकरा ,
सदना बोला मै ना काँटू
मालिँक मेँ ना काँटू ।
तभी सदना के मालिक ने गुस्से सेँ सदना के दोनो हाथ काँट दियेँ कि ये कैसा नौकर है जो मेरे सौदे सै खुश नहीँ ओर सदना को घर से निकाल दिया ।
अब सदना ने जैसे तेसे अपना ईलाज करवाया और और कुछ महीनेँ रो पीटकर सोचा की अब कया करेँ फिर याद आया कि गुरुदेँव बोल रहे थे कि मै जगननाथ के मन्दिँर मेँ रहता हुँ वहाँ आ जाना जब भी मिलना हो सदना गुरु जी से मिलने जगननाथ की ओर चल देता शाम होने पर
एक गाँव मे गाँव के नम्बरदार के पास जाता और कहता है कि मेने जगननाथ जाना अपने गुरु जी के पास अब रात हो गई यहाँ रात को ठहरने का स्थान बताऐँ तब नम्बरदार सोचता है कि भगत आदमी है मुझे भी कुछ पुण्ट होगा ऐसा सोचकर सदना को अपने घर ले आता है और सदना के खाने व सो ने का प्रबन्ध करता है ।
नम्बरदार की पत्नी बुरे चरित्र की थी वो रात को सदना से बदव्यवहार करने की चेष्टा करती है तब सदना कहेता है कि माईँ मै महादुखी हुँ रात काटनी है काटनेँ दो तो रुक जाता हुँ नही तो मेँ अभी चला जाता हुँ।
ये सुनकर नम्बरदार की पत्नी नेँ अपनी बेईजती समझकर शोर मचा दिया कि ये मेरे साथ बदव्यवहार करने की कोशिश कर रहा था तब शोर सुनकर लोग इक्कठा हुऐ सदना को पकड़ लिया ।
सुबह नगरी के राजा के पास पेश किया गया वहाँ नम्बरदार की पत्नी ने झुठी गवाही दे दी कि ये मेरे साथ बदव्यवहार करने कि कोशिश कर रहा था।तब राजा ने सदना को सबके सामने मीनार मेँ चिन्ने की सजा सुना दी और कहा इसने नम्बरदार के साथ धोखा किया जो उसकी पत्नी के साथ बदव्यवहार की चेष्टा कि भुगतकर मरे मीनार मेँ चिन्न दो।
जब सदना के हाथ पैर बाँधकर कर मीनार मेँ चिन्न रहे थे तो वहाँ पर कुछ लोग बोल रहे थे कि देखो कैसा नीच था ये जगननाथ जाने कि बात कर रहा था और ये भगत कहावेँ कैसा नीच कर्मीँ है ऐसे ही इसके गुरु होगे।
ये सुनकर सदना की आँखो मे आँसू आ गऐ और बोला गुरुदेँव मै तो नीच था चाहे इस से भी बूरी मौत मरता पर ये इब मुझे भगत कहे थे कि मन्दिर मेँ जावेँ दुष्ट इसे इसके गुरु भी ऐसे होगेँ।मालिक ये तो आप के नाम पेँ बट्टा लग गया।
मालिक इस भगति की लाज राखियोँ मेरे मालिक,ये बोलकर फुट फुट कर रोने लगा।तभी बहुत जोर से धमाका हुआ और मीनार फट गया उसकी इट्टे अन्यायकारी राजा मँत्रियोँ के सिर मेँ लगी जिन्होने ये अन्याय का फैसला सुनाया व नम्बरदार की पत्नी के दोनो स्तन कट गऐ इट्टे लगने से ।
सदना के दोनो हाथ पुरे हो गऐ कटे हुऐ नही रहेँ ।
बोलो सतगुरुदेँव जी की जय हो
कबीर,जो जन मेरी शरण हे ,
ताका हूँ मैँ दास ।
गैल गेल लाग्या फिरू ,
जब लग धरती आकाश ।।
कृप्या शेयर करेँ जन जन तक पहुँचाऐँ परमेँश्वर का सन्देँश ।।

Monday, December 28, 2015

*** पूर्णमोक्ष VS अघुरा मोक्ष ***



*** पूर्णमोक्ष VS अघुरा मोक्ष ***

Supreme God VS God साहेब कबीर VS ब्रह्मा,विष्णु, शिव,दुर्गा,ब्रह्म

सतगुरू संत VS साधु,योगी,ऋषि,ब्रह्माणं विहंगम

(पक्षी)मार्ग VS पपील(चीटी) मार्ग
==========================

==== योगी साघुओ ऋषियो ब्रह्माण ====
योगी साधु अपने घरो को छोड देते हैा ये
ब्रह्मचारी रहने मे विश्वास रखते हैा.. ये ब्रह्मा
विष्णु शिव के पुजारी होते हैा कुछ एक ब्रह्म
निरंजन काल के पुजारी होते हैा..
ये मान बडाई के भूखे होते हैा इनमे बहुत ज्यादा
अंहकार होता हैा.. ये तरह तरह के आडम्बरो से
जानता का मुर्ख बनाते हैा कुछ नंगे घूमते हैा
जबकी शिव भगवान भी कपडे पहने हुए होते हैा नंगे
रहने से भगवान मिले तो सबसे पहले कुत्ते गधो को
मिल जाना चाहिये.. ये तप करते हैा इनका उदेश्य
सिद्धी पाना राज पाना या कोई संसारिक शक्ति
पाना होता हैा.. जैसे गोरखनाथ सिद्धी पाकर
प्रभु बन गया.. जैसे शिव ने रावण को वरदान दे
दिया.. ब्रह्मा ने हिरणाकश्यप को वर दे दिया..
जैसे विष्णु जी ने ध्रुव पहलाद को धरती और स्वर्ग
का राज दे दिया.. अधिकतर बहुत अंहकारी होते हैा
जैसे कपील ऋषि ने सगड के 60 हजार बेटो को जला
कर राखकर दिया.. दुर्वासा ऋषि ने 56 करोड यादवो
को सराप देकर यादव कुल का नाश कर दिया.. चुणक
ऋषि ने मानधाता राजा की 72 करोड सेना का
कत्लेआम कर दिया.. ये सभी ब्रह्मा विष्णु शिव
और काल ब्रह्म तक के ही पुजारी होते हैा..इनमे
कुछ ऋषि पंडीत होते है कुछ योगी साधु .. ये अपनी
भक्ति तप की कमाई को दुवा बदूवा देकर नष्ट कर
देते हैा ये मान बडाई के भूखे होते हैा योगी
साधुओ मे अपने सन्यासी होने का अहंकार होता
हैा तो ब्रह्माण ऋषियो मे जाति का अहंकार
होता हैा.. ये केवल 10 द्वार तक ही जा सकते हैा
ग्यारहवे और बारहवे द्वार का इनको ज्ञान नही
होता..
ये केवल 7 कमलो(चक्रो) तक ही ज्ञान रखते है
जबकी नौ कमल(चक्र) होते हैा
============= संत सतगुरू ==========
संत परम्परा कबीर साहेब से चली उनसे पहले कोई संत
नही था उनसे पहले ऋषि ब्रह्मांण योगी साधु हुआ
करते थे
संत ब्रह्मा विष्णु शिव ब्रह्म की पूजा नही करते
बल्कि इनका आदर करते है वह सीधे कबीर साहेब
पूर्णब्रह्म सतपुरूष की पूजा करते है और करवाते
हैा.. इनमे जाति अंहकार नही होता.. संत दास की
तरह रहते हैा ये सन्यासी नही होते गृहस्थी होते
हैा (क्योकि ब्रह्मचारी रहने से भगवान मिलता तो
सबसे पहले हिजडो को मिल जाता) ये लाल कपडे नही
पहनते.. सफेद कपडे पहनते हैा ये दाढी मुछ रखने मे
विश्वास नही रखते क्योकि भगवान दाढी मुछ देकर
दर्शन नही देता वह तो भक्ति के आधार से मिलता
हैा दाढी रखो या मत रखो जरूरी नही होती संतो के
लिए.. संत बाहरी आडम्बर नही करते दिखावे के
लिए.. संतो मे कोध नही होता ये सरप नही देते...
जैसे अंहकारी ऋषि महाऋषि दिया करते थे..
संतो मे सतगुरू मे सबसे पहला नाम कबीर साहेब का
आता हैा उन्होने गृहस्थी मे रहकर दिखाया..
उन्होने अपने मुहबोले माता पिता की सेवा की
उन्होने शादी नही की थी दो बच्चो को जीवित
किया था कमाल और कमाली उनको बच्चो के रूप मे
रखकर परवरिश कि..हमे उदारण दिया गृहस्थी मे भी
पार हो सकते है नानक जी रविदास धर्मदास गरीबदास
घीसादास सभी संत गृहस्थी थे. संत मान बडाई के
भूखे नही होते.. संत चमत्कार नही दिखाते संतो से
खुद चमत्कार होते हैा.. पूर्णसंत को बारहा द्वार
और नौ कमलो का ज्ञान होता हैा
*********** मार्ग ******************
मार्ग दो प्रकार के होते है 1.पापील(चीटी) मार्ग
2.विहंगम(पक्षी)मार्ग
1.पपील मार्ग-
इस मार्ग से गये हुए साधक स्वर्ग महास्वर्ग को
भोगकर पूण्य समाप्त होने पर लौटकर संसार मे
वापिस आते है. गीता अध्याय 9/20,21 देखे
साधु योगियो ऋषि ब्रह्मणो का मार्ग पपील मार्ग
मतलब चीटी मार्ग होता हैा जैसे चीटी पेड पर सरक
सरक नीचे जड तना डार से होती हुई पेड की चोटी पर
पहुचती हैा.. इस पपील मार्ग से ब्रह्मांड को पार
नही किया जा सकता . ये मार्ग चीटी मार्ग है ये
ब्रह्मांड एक सागर की तरह है चीटी समुंदर पार नही
कर सकती.. इसलिए पीर पैगम्बर ईसा मुसा देवी देवता
साधु योगी ऋषि ब्रह्मांण ब्रह्मा विष्णु शिव
दुर्गा ये सब एक ब्रह्मांड मे ही है ये सभी काल
जाल मे ही है इन सबका मार्ग पपील चीटी मार्ग है.
ये एक ब्रह्मांड को पार नही कर सकते.. ये केवल
त्रिकुटी तक ही जा सकते है ये त्रिकुटी से आगे
नही जा सकते .. इनको केवल दस द्वार का ज्ञान
होता है त्रिकुटी दसवे द्वार पर ही बनी हुई है
त्रिकुटी से आगे विहंगम पक्षी मार्ग लेकर जाता
है जो बारहा द्वारो को पार करवाता है..
विहंगम मार्ग हमे त्रिकुटी से आगे पक्षी की तरह
उडाकर सारे ब्रह्मांडो को पार करता हुआ दसवे
द्वार से निकाल कर बारहवे द्वार को पारकरा कर
पूर्ण मोक्ष दिलाता है विहंगम मार्ग वेद गीता
पुराण कुरान बाइबल गुरूग्रंथ किसी भी सदग्रंथ मे
नही है.. इसके लिए गीता 4/34 मे लिखा है
तत्वदर्शी संतो के पास जाओ.. कुरान शरीफ सु० फु
25 आयत 59 मे लिखा है किसी बाखबर इल्मवाले से
पूछो ...
आइए अब बताते है तत्वदर्शी संत बाखबर का विहंगम
मार्ग...
आगे पढिये विहंगम पक्षी वाला मार्ग..
2.विहंगम मार्ग-
इस मार्ग से साधक स्वर्ग महास्वर्ग को पार करके
सतलोक सचखंड चले जाते है जहा से लौटकर फिर कभी
संसार मे नही आते.. गीता 8/8,9,10 और 15/4 श्लोक
देखे
सतगुरू जो मार्ग बताते वह संतो का मार्ग होता है
वह विहंगम मार्ग होता हैा जैसे पक्षी नीचे से
उडकर सीधा पेड की चोटी पर जाकर बैठ जाता हैा.
ये ब्रह्मांड एक सागर की तरह है पक्षी सागर को
भी पार कर सकता है. संत इस काल के भवसागर को पार
कर जाते है. जैसे पक्षी समुंदर को पार कर जाता
है. कबीर परमात्मा की शरण मे आकर ये जीव तीनो
नाम गायत्री सतनाम और सारशब्द से काल के सभी
ब्रह्मांडो को पार जाता हैा कबीर परमात्मा का
प्रथम नाम जिसमे 5 प्रधान शक्तियो के 5 मंत्र
होते है वह त्रिकुटी दसवे द्वार तक पहुचाते है.
दूसरा सतनाम का मंत्र जिसमे दो अक्षर होते है
त्रिकुटी से आगे सतनाम का मंत्र आत्मा को
पक्षी की तरह उडाकर लेकर जाता है यह मंत्र काल
ब्रह्म के 21 ब्रह्मांडो को और परब्रह्म के 7संख
ब्रह्मांडो को पार करवाता है यह सतनाम का मंत्र
आत्मा को दसवे द्वार से निकालता हुआ काल
ब्रह्म के सर पर पैर रखकर ग्यारवे द्वार से होता
हुआ बारहवे द्वार के पास भव्वर गुफा पर छोड देता
है वहा से सचखंड सतलोक दिखाई देता हैा उससे आगे
तिसरा नाम सारनाम जो पूर्णब्रह्म कबीर साहेब
सतपुरूष का मंत्र है यह मंत्र आत्मा को बारहवे
द्वार से पार करवाकर सतलोक सचखंड मे ले जाकर
छोड देता है उसके बाद आत्मा इस संसार मे लौटकर
भी नही आती
गीता 8/8,910 और 15/4 शलोक मे लिखा है वहा गए हुए
साधक संसार मे लोटकर कभी नही आते..
आत्मा का पूर्ण मोक्ष हो जाता है.. सतलोक मे
आत्मा का नूरी अजर अमर शरीर होता है सदा वहा
आन्नद उठाती है.
कबीर - सिद्ध तारे पिंड अपना, साधु तारे खंड..
सतगुरू सोई जानिये, जो तार देवे ब्रह्मांड...
इस पूरी पृथ्वी पर संत रामपाल जी महाराज है जो
ये तीनो नाम तीन बार मे देते है वरना सभी एक बार
मे ही नाम देते हैा.. इस विहंगम मार्ग से कबीर
साहेब ने बहुत आत्माओ को पार किया.. सतयुग मे
कबीर साहेब सत सुकृत नाम से आये थे.. त्रेता मे
मुनिंद्र नाम से आये थे तब मंदोदरी हनुमान
चंद्रविजय भाट को पार किया था.. द्वापरयुग मे
कबीर साहेब करूणामय नाम से आये थे तब रानी
इंद्रमति और सुदर्शन भंगी को पार किया था.. और
सुपच का रूप बनाकर पांडोव की यज्ञ सफल किया
था. कलियुग मे अपने original नाम कबीर नाम से आये
थे. नानक धर्मदास दादू घीसा मलूक और गरीब दास
को पार किया सचखंड पहुचाया.. रविदास अब्रहिम
सुलतान को पार किया.. ये कुछ उदारण दिये है ना
जाने कितनी आत्माओ को पार किया..
**** पपील मार्ग विस्तार से *****
योगी साधु ब्रह्मांण ऋषि इस मार्ग से ब्रह्मा
विष्णु शिव दुर्गा काल(ब्रह्म) के साधक जाते हैा
===============================
ये तप करते हैा तप से राज मिलता है और साथ मे जो
जिसे इष्ट मानकर पूजता हैा वह साधक उसी के लोक
मे चला जाता हैा
कबीर - तपेशवरी सो राजेशवरी,राजेवरी सो
नरकेशवरी.
कबीर- तप से राज,राध मध मानम.
जन्म तीसरे शुकर स्वानम्
अर्थ - जिसका जितना तप होता है उसको उसी हिसाब
से राज मिलता हैा किसी को पूरी पृथ्वी का राज,
तो किसी को स्वर्ग का राज मिलता है तो राजा मे
अंहकार होता है निर्दोष लोगो को सजा देता हैा
मदिरा पीता हैा फिर राज भोग कर नरक और कुत्ते
शूअर के शरीर प्राप्त करता हैा जैसे राजा
प्रियवर्त ने 11 अरब वर्ष तप किया फिर 11 अरब वर्ष
राज किया फिर नरक मे चला गया.. तप से सिद्धियां
मिलती है तप से स्वर्ग या पृथ्वी का राज मिलता
हैा फिर नरक चौरासी मिलती हैा..
ये साधक जिसे अपना इष्टदेव मानकर मंत्र जाप करते
है वह उसके लोक मे चला जाता है जैसे विष्णु का
साधक विष्णुलोक मे, शिव का साधक शिव लोक मे,
ब्रह्मा का साधक ब्रह्मालोक मे, काल ब्रह्म का
साधक ब्रह्मलोक मे चला जाता हैा गीता 9/25,26
और 8/8,9,10 श्लोक मे लिखा है जो जिसकी भक्ति
करता है उसी के पास चला जाता हैा गीता 9/20,21
मे लिखा है वह दिव्य स्वर्ग को भोगकर फिर
मुत्युलोक मे आते हैा..
मानव शरीर को पाने के लिए देवता भी तरसते है
क्योकि मानव शरीर मे ही आत्मा मोक्ष को
प्राप्त कर सकती हैा..
मानव शरीर मे कमल बने हुए है योगी जिनको चक्र
बोलते हैा इनको केवल सात कमलो का ज्ञान होता
हैा..
1.मूल कमल(चक्र) - इसमे गणेश जी का वास होता हैा
यह चार पखुडिया का होता हैा फोटो मे देख सकते
हो यह रीढ की हडडी के अन्त मे अन्दर की तरफ गुदा
के पास होता हैा..
2. स्वाद कमल- इसमे ब्रह्मा सवित्री का वास होता
हैा इसमे छह पखुडिया होती हैा यह रिढ की हडडी
मे अन्दर की तरफ गुप्तइंद्री के पास होता हैा
3.नाभिकमल- इसमे विष्णु लक्ष्मी जी का वास
होता हैा.. इसमे आठ पंखुडिया होती हैा यह नाभि
के पास पीछे रीढ की हडडी मे अन्दर की तरफ होता
हैा..
4. हदयकमल- इसमे शिव पार्वती का वास होता हैा
इसमे बारहा पखुडिया होती हैा यह हदय मे पीछे रीढ
की हडडी मे अन्दर की तरफ होता हैा..
5. कंठकमल - इसमे दुर्गा देवी का वास होता हैा
इसमे सोलहा पंखुडिया होती हैा यह कंठ मे पीछे
रीढ की हडडी मे अन्दर की तरफ होता हैा
6.त्रिकुटी कमल- यह दो पखुडियो का कमल होता है
काला और सफेद सुरत निरत से जाप .. यह सर के पीछे
जैसा फोटो मे दिखाई दे रहा हैा..
7. संहास्रार कमल- यह हजार पखुडियो का होता हैा
इसमे ब्रह्मा विष्णु शिव के पिता काल निरजन
ब्रह्म का वास होता हैा.. जहा ब्रह्मांण चोटी
रखते है वहा होता हैा....
आगे आठवा और नौवा कमल ओर होता है वह इस शरीर मे
मौजूद नही है क्योकि इस शरीर मे एक ब्रह्मांड का
ही नक्शा बना हुआ हैा आठवा और नौवा कमल काल
के 21 ब्रह्मांडो को पार करके आता हैा
इनको केवल सात कमल और दस द्वारो का ज्ञान होता
हैा.. दसवा द्वार को सुष्मना द्वार भी बोलते हैा
शरीर के नौ द्वार प्रत्यक्ष दिखाई देते हैा दसवा
द्वार नाक के दोनो छिदो के बीच मे उपर की तरफ
खुलता हैा जो सुई की नोक जितना होता हैा वह
मंत्रो के जाप से खुलता हैा दसवे द्वार मे आगे
चलकर त्रिकुटी आती हैा इनकी समाधी केवल
त्रिकुटी तक ही जा सकती हैा.. जब इनका शरीर
छुटता है तो ये त्रिकुटी पर जाते हैा त्रिकुटी पर
तीन रास्ते हो जाते हैा मोक्ष का रास्ता सामने
वाला होता है जिसको ब्रह्मरंद्र बोलते हैैा इन
योगी साधु पंडित ऋषियो के पास वह सतनाम का
मंत्र नही होता जो उस ब्रह्मरंद्र को खोलकर
ग्यारवे द्वार मे प्रवेश करवाता हैा.. इसलिए ये
सामने वाले ब्रह्मरंद्र को न खोल पाने के कारण
दाए और बाये अपनी अपनी भक्ति के कारण जिसने
जिस इष्ट की साधना की है ये उसी के लोक मे चले
जाते हैा अपने पूण्यो को खर्च करके फिर अपने
पापो को भोगने को के लिए नरक और लाख चौरासी
मे जाते हैा फिर कभी मानव जीवन मिलता है भक्ति
की तो स्वर्ग वरना नरक. देवी पुराण मे लिखा है
ब्रह्मा विष्णु शिव की जन्म मुत्यु होती हैा
गीता 2/12 और 4/5,9 श्लोक मे ब्रह्म कहता हैा
अर्जुन तेरे मेरे बहुत से जन्म हो चुके हैा उनको
तु नही जानता मै जानता हैा मेरे जन्म और कर्म
दिव्य अलौकिक हैा..
नोट- इससे स्पष्ट होता है जब ब्रह्मा विष्णु शिव
और काल ब्रह्म भी नाशवान हैा तो इनके पुजारी
साधक कैसे जन्म मरण से मुक्त हो सकते हैा..
अर्थात ये सभी जन्ममरण मे हैा इसलिए गीता
4/34,32 शलोक मे गीता ज्ञान देने वाला भगवान कह
रहा है अर्जुन तू तत्वदर्शी संतो के पास जा वो
तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश करेगे जिसको जानकर
तू कर्म बंधन से सर्वथा मुक्त हो जायेगा.. गीता
8/8,9,10 और 15/3,4 श्लोक मे गीता ज्ञान देने
वाला भगवान कहता है तू उस परमेशवर की शरण मे चला
जायेगा जहा गये हुए साधक इस संसार मे लौटकर कभी
नही आते मै गीता का ज्ञान देने वाला भगवान भी
उसी आदि नारायण परमेश्वर की शरण मे हुं..... मतलब
वह मेरा भी पूज्यदेव हैा. आओ आपको संतो का वह
विंहगम मार्ग बताते है जहा गये हुए साधक लौटकर
इस संसार मे नही आते...
*** विहंगम मार्ग विस्तार से (संतो का मार्ग)****
इस मार्ग से पूर्णब्रह्म Supreme God कबीर साहेब
के साधक जाते हैा नानक जी रविदास जी गरीब दास
सभी इसी मार्ग से गये हैा
==============================
जैसे हम पहले बता चुके है शरीर मे सात कमल और दस
द्वारो के बारे मे...
सातवा संहसार कमल- इसमे ब्रह्म(क्षरपुरूष) काल
का वास होता है ये एक हजार पंखुडी का बना होता
हैा..
आठवा कमल- इसमे परब्रह्म (अक्षरपुरूष) का वास
होता है यह दस हजार पंखुडी का बना होता हैा..
नौवा कमल- इसमे पूर्णब्रह्म(परमअक्षरपुरूष) कबीर
साहेब का वास होता हैा..इसकी असख्य पंखुडिया
होती हैा.
अब बताते है नौ कमल और.बारहा द्वारो के बारे मे
शुरू से....
संत रामपाल जी महाराज हमे जो पहला गायत्री
मंत्र देते है वह कमल के पांच प्रधानो का होता
हैा जिसके जाप से हमारा मूल कमल से त्रिकुटी तक
का रास्ता साफ हो जाता हैा मूलकमल से त्रिकुटी
तक सीधी सडक जाती हैा जैसे हमे विदेश जाना हो
तो international airport तक हम बस या कार से जाते
हैा त्रिकुट समझो international airport होता हैा
airport के बाद उडकर जाना होता हैा तो दूसरा
सतनाम का दो अक्षर का मंत्र हमे त्रिकुटी से
उडाकर लेकर जाता हैा... जैसे विदेश से अपने देश
मे आना हो तो विदेश मे ऋण मुक्त सर्टीफिकेट
लेना पडता हैा जब विदेश से स्वदेश आने की
अनुमति मिलती हैा हमे अपने स्वदेश सतलोक जाना
है फिर कभी काल के लोक मे नही आना हैा इसलिए
हमे सभी कमल प्रधानो से ऋण मुक्त सर्टीफिकेट
लेना पडेगा तब ही हम अपने स्वदेश सतलोक आ सकते
हैा
नोट- योगी,साधु,ब्रह्मांण,ऋषियो को तत्वदर्शी
संत ना मिलने के कारण इनके पास वह मोक्ष मंत्र
नही होता जो ऋण मुक्त करके इनके सतलोक भेज दे..
इनकी भक्ति काल ब्रह्म तक ही होती हैा इसलिए ये
अपनी साधना के अनुसार स्वर्ग महास्वर्ग मे घूमकर
फिर पृथ्वी लोक पर चले जाते हैा)
कबीर -पीर पैगम्बर कुतब ओलिया,सुरनर मुनिजन
ज्ञानी..
ऐता को तो राह नही पाया, ये काल के बंधे प्राणी
अर्थ- पीर पैगम्बर कुतब ओलिया मे मुसलमानो के ह०
मुहोम्मद आदम मुसा ईसा ये सब आ जाते है.. सुरनर
मुनिजन ज्ञानी मे हिन्दूओ के देवता ब्रह्मा
विष्णु शिव और ऋषि योगी साघु ब्रह्मांण सब आ
जाते हैा कबीर साहेब कहते है इनको भी वो मार्ग
नही मिला ये सब काल की भगती करके काल की कैद
मे ही रह गये हैा ये काल की जन्म मरण की डोरी मे
बंधे हैा
आओ जो मार्ग इन सब को नही मिला.. जो मार्ग काल
की कैद से आपको निकाल ले जायेगा वह मार्ग
विहंगम मार्ग आपको बताते हैा...
संत रामपाल जी महाराज का पहला मंत्र हमे हमारे
कमलो के पांच प्रधानो से ऋण मुक्त सर्टीफिकेट
दिलवायेगा..
मूल कमल से त्रिकुटी तक सीधा रास्ता जाता हैा..
1.हम मूल कमल मे जाकर गणेश जी के मंत्र जाप की
कमाई गणेश जी को दे देगे तो गणेश जी हमे अपने ऋण
से मुक्त कर देगे..
2. उसके बाद हम स्वाद कमल मे ब्रह्मा सावित्री के
लोक से होकर गुजरेगे तो ब्रह्मा सवित्री के मंत्र
की कमाई हम उनको दे देगे तो ब्रह्मा जी हमे अपने
ऋण से मुक्त कर देगे क्योकी ब्रह्मा जी सभी
जीवो की उत्पति करते हैा
3. उसके बाद हम नाभिकमल मे विष्णु लक्ष्मी के
लोक से होकर गुजरेगे तो उनके मंत्र की कमाई
विष्णु लक्ष्मी जी को दे देगे तो विष्णु जी हमे
अपने ऋण से मुक्त कर देगे.. क्योकि विष्णु जी
पालन पोषन करते है हमारा...
4. उसके बाद हम हदय कमल मे शिव पार्वती के लोक से
होकर गुजरेगे तो शिव पार्वती के मंत्र की कमाई
उनको दे देगे.. तो वे हमे अपने ऋण से मुक्त कर
देगे.. क्योकि शिव संहार करते है सभी जीवो का...
5. उसके बाद हम कंठ कमल मे दुर्गा माता जी के
लोक से गुजरेगे तो दुर्गा जी के मंत्र की कमाई
दुर्गा माता जी को दे देगे तो दुर्गा माता जी
हमे अपने ऋण से मुक्त कर देगी.. भक्ति की कमाई
कम नही बल्कि ज्यादा होनी चाहिए...
आगे चलकर दसवे द्वार पर हम international airport
त्रिकुट पर पहुच जाते हैा त्रिकुटी पर आगे चलकर
तीन रास्ते हो जाते है वैसे तो परमात्मा शब्द रूप
मे हमारे साथ चलते है हर जगह लेकिन त्रिकुटी पर
कबीर परमात्मा गुरू रूप मे आते हैा आगे चलकर तीन
रास्ते हो जाते हैा दसवे द्वार के सामने वाले गेट
को ब्रह्मरंद्र बोलते है उस पर ताला लगा होता हैा
..आगे वो ही साधक जाता है जिसके पास सतनाम का
मंत्र होता हैा ये योगी ऋषि साधु ब्रह्मांण
ब्रह्मा विष्णु शिव ये आगे नही जा सकते ये
त्रिकुट से वापिस दाय बाय मुड जाते हैा कहते है
शिव ने 97 बार कौशिस की थी ब्रह्मरंद्र को
खोलने की लेकिन खोल नही पाये क्याकि उनके
पास भी वह सतनाम का मंत्र नही हैा..
गरीब- ब्रह्मरान्द्र को खोलत है कोई एक,उल्टे फिर
जाते है ऐसे अनेक...
गीता 17/23 मे लिखा है ओम तत सत ऐसे यह उस पूर्ण
परमात्मा का नाम कहा हैा.. तत सत इसमे सांकेतिक
हैा उनको गीता 4/34 श्लोक मे तत्वदर्शी संत
बतायेगा..
गरीब- भक्ति मुक्ती ले उतरे , मेटन तीनो ताप..
जुलाये का घर डेरा लिया कह कबीरा बाप...
अर्थ- गरीबदास जी महाराज बता रहे है वह परमात्मा
कबीर साहेब इस धरती पर सही भक्ति और मुक्ती
मार्ग को लेकर आते हैा 600 साल पहले उन्होने एक
जुलाये
के घर वास किया और उसको अपना बाप बनाया...
रामपाल जी महाराज सतनाम का मंत्र देते हैैा जो
कबीर साहेब ने नानक जी को दिया था.. उस मंत्र से
त्रिकुटी के सामने का रास्ता ब्रह्मरांद्र खुल
जाता हैा गुरू रूप मे परमात्मा हमारे साथ होते
हैा... सतनाम का मंत्र international Airport त्रिकुटी
से हमे उडाकर लेकर जाता हैा रास्ते मे डाकनी
साकनी बहुत भयानक आकृति के यम के दूत मिलते
हैा.. सतनाम के जाप से वो सब भाग जाते हैा आगे
जब हम सातवे संहासार कमल से होकर गुजरते हैा तो
21 वे ब्रह्मांड मे दसवे द्वार के End मे ब्रह्मा
विष्णु शिव के पिता काल निरंजन ब्रह्म बैठे हैा
काल का बहुत भयानक और बहुत विशाल शरीर है अपने
सर से ग्यारवे द्वार को काल ने बंद कर रखा हैा..
गीता 18/66 शलोक मे काल ब्रह्म कहता हैा अर्जुन
सभी धार्मिक अनुष्ठानो की कमाई तू मुझे देकर
एक सर्व शक्तिमान परमेशवर की शरण मे चला जा मै
तुझे सब पापो से मुक्त कर दूंगा..(नोट-व्रज का
अर्थ जाना होता है नकली गुरूओ ने आना किया
हैा)
सतनाम मे दो मंत्र गुरू जी देते है एक ब्रह्म
(क्षरपुरूष) का दूसरा परब्रह्म(अक्षरपुरूष) का
मंत्र होता हैैा तो हम ब्रह्म क्षरपुरूष काल को
उसके एक मंत्र के जाप की कमाई और सारे पूण्य दे
देगे जिसके कारण काल भगवान हमे अपने ऋण से
मुक्त कर देगा और हमे हमारे स्वदेश सतलोक जाने
देगा..
जब हम वहा सतनाम और सारनाम का जाप करेगे तो
काल भगवान सर झुका देगा उसके सर पर पैर रखकर हम
परब्रह्म के लोक मे आठवे कमल मे ग्यारहवे द्वार मे
प्रवेश कर जायेगे.. हमारा सूक्ष्म शरीर भी छूट
जाता हैा आगे परब्रह्म के 7 संख ब्रह्मांडो को
हमे पार करना पडता हैा सतनाम का दूसरा मंत्र
परब्रह्म(अक्षरपुरूष) का होता हैा दूसरे मंत्र की
कमाई परब्रह्म को देगे तो वह अपने सात संख
ब्रह्मांडो को पार करने लंघाने की अनुमति दे
देगा..
नानक- सोई गुरू पूरा कहावे दो अक्षर का भेद
बतावे..
एक छुडावे एक लघांवे , तो प्राणी निज घर को
पावे.
अर्थ- नानक जी कहते है वह गुरू पूरा होगा जो
सतनाम के दो अक्षरो का भेद बतायेगा.. एक अक्षर
काल से छुडवायेगा दूसरा अक्षर परब्रह्म के 7 संख
ब्रह्मांडो को लंघायेगा...
जब हम परब्रह्म के सात संख ब्रह्मांडो को पार
करेगे तो हमारा कारण और महाकारण शरीर छुट जाता
हैा केवल कैवल्य शरीर बचता हैा जब परब्रह्म के
सात संख ब्रह्मांडो को पार कर लेते है भव्वर
गुफा के पास मान सरोवर आता हैा कबीर परमात्मा
वहा आत्मा से पूछते है तेरी कोई संसार की इच्छा
तो मन मे नही रही अगर संसार मे इच्छा रह गई होगी
तो अात्मा को मालिक दुबारा काल के लोक मे भेज
देते हैा लेकिन वहा आत्मा काल की मोह माया से
बाहर हो जाती हैा आत्मा कहती है कोई इच्छा नही
रही मालिक सतलोक ले चलो.. फिर कबीर परमात्मा
आत्मा को मानसरोवर मे स्नान करवा देते हैा तो
आत्मा का कैवल्य शरीर छुट जाता हैा आत्मा का
Original नूरी शरीर हो जाता हैा जिसकी 16 सुरज 16
चंद्रमा जितना प्रकाश हो जाता हैा वहा से
सतलोक दिखाई देता हैा फिर सारनाम की कमाई हमे
भव्वर गुफा पार करवा कर सतलोक हमारे निजलोक
हमारे स्वदेश ले जाती हैा उसके बाद हम नौवे कमल
पूर्णब्रह्म के लोक बारहरवे द्वार मे प्रवेश कर
जाते हैा वह हमारा सतलोक है वहा कभी जन्म मरन
नही हैा ऐसे ये आत्मा अपने घर पहुच जाती हैा..
फिर कभी काल के लोक मे वापिस नही आती ..
आत्मा सतलोक मे पूर्ण आन्नद उठाती हैा.. इसको
पूर्णमोक्ष कहते हैा
कबीर - जहा के बिछुडे तहा मिलाऊ करो साध सतसंग
रे..
कबीर- अमर करू सतलोक पठाऊ , ताते बंदिछोड कहाऊ
========== सतलोक महिमा=========
पूर्णब्रह्म कबीर साहेब ने सतलोक मतलब अमरलोक मे
सभी आत्माओ की उत्पति की.. सभी आत्माओ को
सुंदर नूरी शरीर दिया.उस शरीर की चमक इतनी थी
जितनी 16 सुरज और चांद की मिलकर रोशनी भी
फिकी रहे.. और परमातमा कबीर साहेब की एक रोम
कूप की शोभा इतनी है कि करोड सुरज और करोड
चांद की मिली जुली ऱोशनी भी फिकी रहे.. अमर
लोक हिरे की तरह खुद तेजोमेय है. वहा बाग बगीचे
फल फूल हर चीज का अपना परकाश है.. वहा नर नारी है
वहा जनम मरन नही है..कोई बीमारी या दुख नही
है..केवल सुख ही सुख था..
हम ऐसे सुनदर देश अमरलोक मे रहा करते थे..
(कबीर - हंसा देश सुदेश का, पडा कुदेशो आये
जिनका चारा मोतीया वो घोघो कयो पतियाये)
कबीर साहेब बता रहे है तू उस सुंदर देश का रहने
वाला हंस मतलब अच्छी आत्मा था वहा मोती खाता
था. आैर यहाँ काल के लोक मे तू बगुला काग बन गया
है मोती छोड घोघे कीडे खा रहा है..
=======सतलोक अमरलोक की महिमा=======
कबीर वानी कबीर सागर से..
तहँवा रोग सोग नहि होई, कीरडा विनोद सब कोई..
चंदर ना सूरज ना दिवस नही राती, वरण भेद ना जाती
अजाती..
satlok m koi rog nhi h koi sok nhi karta Sab koi mooj
masti karte h. waha na chand h na suraj na din na raat
h. waha na Jati h na koi varan h.
तहँवा जरा मरन नही होई, अमरत भोजन करत आहारा.
काया सुंदर ताहि परमाना,उदित भये जनु षोडस
भाना..
waha budapa maran nhi h sabi amrat bhozan karte h.
har ek ki body ka itna parkash h jitna 16 suraj ek sath
chamak jaye..
इतना एक हंस उजियारा,शोभित चिकुर तहा जनु तारा.
विमल बास तहँवा बिसगाई,योजन चार लो बास उडाई.
satlok m koi smell badbu Nhi h.. is dharti ki badbu 400
yojan matlab 1200 km uper tak jati h..
सदा मनोहर छत्र सिर छाजा, बूझ न परै रंक और राजा.
नहि तहां काल वचन की खानी,अमरत वचन बोल भल
वानी..
us manohar parmatma ke sar par chhatar h mukut.
waha kaal ka dar nhi h. sabi badi piyari boli bolte h..
आलस निंदा नही परकाशा, बहुत परेम सुख करै
विलासा.
.Saltok m koi alash nindra nhi h. sabi Bade prem se
rehte h.
साखी- अस सुख है हमरे घर, कह कबीर समुझाय
सतशबद को जान के, असथिर बैठे जाये..
kabir Parmatma kehte h ki hamare Ghar satlok m ehsa
sukh h.. Jo insan pure Guru se Satsabd le kar bagti
karega. wo hi satlok m ja sakta h..
SATLOK KI Mahima :- गरीबदास जी की वानी
शवेत सिंहासन शवेत ही अंगा, शवेत छत्र जाका शवेत
रंगा..
शवेत खवास शवेत ही चौरा, शवेत पोप शवेत ही
भौरा..
शवेत नाद शवेत ही तूरा, शवेत सिंहासन नाचे हुरा..
शवेत नदी जहा शवेत ही वृक्षा ,शवेत चंदर जहा
मसतक चरचा..
शवेत सरोवर शवेत ही हंसा, शवेत जाका सब कुल
वंशा..
शवेत मंदिर चंदर जयोती,शवेत माणक मुकता मोती.
शवेत गुबंद जहा शवेत ही शयाना, शवेत धवजा जहां
शवेत ही निशाना..
गरीबदास ये धाम हमार

पुरी में श्री जगन्नाथ जी का मन्दिर अर्थात् धाम कैसे बना ??

उड़ीसा प्रांत में एक इन्द्रदमन नाम का राजा था। वह भगवान श्री कृष्ण जी का अनन्य भक्त था। एक रात्री को श्री कृष्ण जी ने राजा को स्वपन में दर्शन देकर कहा कि जगन्नाथ नाम से मेरा एक मन्दिर बनवा दे। श्री कृष्ण जी ने यह भी कहा था कि इस मन्दिर में मूर्ति पूजा नहीं करनी है। केवल एक संत छोड़ना है जो दर्शकों को पवित्र गीता अनुसार ज्ञान प्रचार करे। समुद्र तट पर वह स्थान भी दिखाया जहाँ मन्दिर बनाना था। सुबह उठकर राजा इन्द्रदमन ने अपनी पत्नी को बताया कि आज रात्री को भगवान श्री कृष्ण जी दिखाई दिए। मन्दिर बनवाने के लिए कहा है। रानी ने कहा शुभ कार्य में देरी क्या? सर्व सम्पत्ति उन्हीं की दी हुई है। उन्हीं को समर्पित करने में क्या सोचना है? राजा ने उस स्थान पर मन्दिर बनवा दिया जो श्री कृष्ण जी ने स्वपन में समुद्र के किनारे पर दिखाया था। मन्दिर बनने के बाद समुद्री तुफान उठा, मन्दिर को तोड़ दिया। निशान भी नहीं बचा कि यहाँ मन्दिर था। ऐसे राजा ने पाँच बार मन्दिर बनवाया। पाँचों बार समुद्र ने तोड़ दिया। राजा ने निराश होकर मन्दिर न बनवाने का निर्णय ले लिया। यह सोचा कि न जाने समुद्र मेरे से कौन-से जन्म का प्रतिशोध ले रहा है। कोष रिक्त हो गया, मन्दिर बना नहीं। कुछ समय उपरान्त पूर्ण परमेश्वर (कविर्देव) ज्योति निरंजन (काल) को दिए वचन अनुसार राजा इन्द्रदमन के पास आए तथा राजा से कहा आप मन्दिर बनवाओ। अब के समुद्र मन्दिर (महल) नहीं तोड़ेगा। राजा ने कहा संत जी मुझे विश्वास नहीं है। मैं भगवान श्री कृष्ण (विष्णु) जी के आदेश से मन्दिर बनवा रहा हूँ। श्री कृष्ण जी समुद्र को नहीं रोक पा रहे हैं। पाँच बार मन्दिर बनवा चुका हूँ, यह सोच कर कि कहीं भगवान मेरी परीक्षा ले रहे हों। परन्तु अब तो परीक्षा देने योग्य भी नहीं रहा हूँ क्योंकि कोष भी रिक्त हो गया है। अब मन्दिर बनवाना मेरे वश की बात नहीं। परमेश्वर ने कहा इन्द्रदमन जिस परमेश्वर ने सर्व ब्रह्मांडों की रचना की है, वही सर्व कार्य करने में सक्षम है, अन्य प्रभु नहीं। मैं उस परमेश्वर की वचन शक्ति प्राप्त हूँ। मैं समुद्र को रोक सकता हूँ (अपने आप को छुपाते हुए यर्थाथ कह रहे थे)। राजा ने कहा कि संत जी मैं नहीं मान सकता कि श्री कृष्ण जी से भी कोई प्रबल शक्ति युक्त प्रभु है। जब वे ही समुद्र को नहीं रोक सके तो आप कौन से खेत की मूली हो। मुझे विश्वास नहीं होता तथा न ही मेरी वितिय स्थिति मन्दिर (महल) बनवाने की है। संत रूप में आए कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने कहा राजन् यदि मन्दिर बनवाने का मन बने तो मेरे पास आ जाना मैं अमूक स्थान पर रहता हूँ। अब के समुद्र मन्दिर को नहीं तोड़ेगा। यह कह कर प्रभु चले आए।
उसी रात्री में प्रभु श्री कृष्ण जी ने फिर राजा इन्द्रदमन को दर्शन दिए तथा कहा इन्द्रदमन एक बार फिर महल बनवा दे। जो तेरे पास संत आया था उससे सम्पर्क करके सहायता की याचना कर ले। वह ऐसा वैसा संत नहीं है। उसकी भक्ति शक्ति का कोई वार-पार नहीं है। राजा इन्द्रदमन नींद से जागा, स्वपन का पूरा वृतान्त अपनी रानी को बताया। रानी ने कहा प्रभु कह रहे हैं तो आप मत चुको। प्रभु का महल फिर बनवा दो। रानी की सद्भावना युक्त वाणी सुन कर राजा ने कहा अब तो कोष भी खाली हो चुका है। यदि मन्दिर नहीं बनवाऊंगा तो प्रभु अप्रसन्न हो जायेंगे। मैं तो धर्म संकट में फंस गया हूँ। रानी ने कहा मेरे पास गहने रखे हैं। उनसे आसानी से मन्दिर बन जायेगा। आप यह गहने लो तथा प्रभु के आदेश का पालन करो, यह कहते हुए रानी ने सर्व गहने जो घर रखे थे तथा जो पहन रखे थे निकाल कर प्रभ के निमित अपने पति के चरणों में समर्पित कर दिये। राजा इन्द्रदमन उस स्थान पर गया जो परमेश्वर ने संत रूप में आकर बताया था। कबीर प्रभु अर्थात् अपरिचित संत को खोज कर समुद्र को रोकने की प्रार्थना की। प्रभु कबीर जी (कविर्देव) ने कहा कि जिस तरफ से समुद्र उठ कर आता है, वहाँ समुद्र के किनारे एक चैरा (चबूतरा) बनवा दे। जिस पर बैठ कर मैं प्रभु की भक्ति करूंगा तथा समुद्र को रोकूंगा।
राजा ने एक बड़े पत्थर को कारीगरों से चबूतरा जैसा बनवाया, परमेश्वर कबीर उस पर बैठ गए। छटी बार मन्दिर बनना प्रारम्भ हुआ। उसी समय एक नाथ परम्परा के सिद्ध महात्मा आ गए। नाथ जी ने राजा से कहा राजा बहुत अच्छा मन्दिर बनवा रहे हो, इसमें मूर्ति भी स्थापित करनी चाहिए। मूर्ति बिना मन्दिर कैसा? यह मेरा आदेश है। राजा इन्द्रदमन ने हाथ जोड़ कर कहा नाथ जी प्रभु श्री कृष्ण जी ने मुझे स्वपन में दर्शन दे कर मन्दिर बनवाने का आदेश दिया था तथा कहा था कि इस महल में न तो मूर्ति रखनी है, न ही पाखण्ड पूजा करनी है। राजा की बात सुनकर नाथ ने कहा स्वपन भी कोई सत होता है। मेरे आदेश का पालन कीजिए तथा चन्दन की लकड़ी की मूर्ति अवश्य स्थापित कीजिएगा। यह कह कर नाथ जी बिना जल पान ग्रहण किए उठ गए। राजा ने डर के मारे चन्दन की लकड़ी मंगवाई तथा कारीगर को मूर्ति बनाने का आदेश दे दिया। एक मूर्ति श्री कृष्ण जी की स्थापित करने का आदेश श्री गोरख नाथ जी का था। फिर अन्य गुरुओं-संतों ने राजा को राय दी कि अकेले प्रभु कैसे रहेंगे? वे तो श्री बलराम को सदा साथ रखते थे। एक ने कहा बहन सुभद्रा तो भगवान श्री कृष्ण जी की लाड़ली बहन थी, वह कैसे अपने भाई बिना रह सकती है? तीन मूर्तियाँ बनवाने का निर्णय लिया गया। तीन कारीगर नियुक्त किए। मूर्तियाँ तैयार होते ही टुकड़े-टुकड़े हो गई। ऐसे तीन बार मूर्तियाँ खण्ड हो गई। राजा बहुत चिन्तित हुआ। सोचा मेरे भाग्य में यह यश व पुण्य कर्म नहीं है। मन्दिर बनता है वह टूट जाता है। अब मूर्तियाँ टूट रही हैं। नाथ जी रूष्ट हो कर गए हैं। यदि कहूँगा कि मूर्तियाँ टूट जाती हैं तो सोचेगा कि राजा बहाना बना रहा है, कहीं मुझे शाप न दे दे। चिन्ता ग्रस्त राजा न तो आहार कर रहा है, न रात्री भर निन्द्रा आई। सुबह अशान्त अवस्था में राज दरबार में गया। उसी समय पूर्ण परमात्मा (कविर्देव) कबीर प्रभु एक अस्सी वर्षीय कारीगर का रूप बनाकर राज दरबार में उपस्थित हुआ। कमर पर एक थैला लटकाए हुए था जिसमें आरी बाहर स्पष्ट दिखाई दे रही थी, मानों बिना बताए कारीगर का परिचय दे रही थी तथा अन्य बसोला व बरमा आदि थेले में भरे थे। कारीगर वेश में प्रभु ने राजा से कहा मैंने सुना है कि प्रभु के मन्दिर के लिए मूर्तियाँ पूर्ण नहीं हो रही हैं। मैं 80वर्ष का वृद्ध हो चुका हूँ तथा 60वर्ष का अनुभव है।
चन्दन की लकड़ी की मूर्ति प्रत्येक कारीगर नहीं बना सकता। यदि आप की आज्ञा हो तो सेवक उपस्थित है। राजा ने कहा कारीगर आप मेरे लिए भगवान ही कारीगर बन कर आये लगते हो। मैं बहुत चिन्तित था। सोच ही रहा था कि कोई अनुभवी कारीगर मिले तो समस्या का समाधान बने। आप शीघ्र मूर्तियाँ बना दो। वृद्ध कारीगर रूप में आए कविर्देव (कबीर प्रभु) ने कहा राजन मुझे एक कमरा दे दो, जिसमें बैठ कर प्रभु की मूर्ति तैयार करूंगा। मैं अंदर से दरवाजा बंद करके स्वच्छता से मूर्ति बनाऊंगा। ये मूर्तियां जब तैयार हो जायेंगी तब दरवाजा खुलेगा, यदि बीच में किसी ने खोल दिया तो जितनी मूर्तियाँ बनेगी उतनी ही रह जायेंगी। राजा ने कहा जैसा आप उचित समझो वैसा करो। बारह दिन मूर्तियाँ बनाते हो गए तो नाथ जी आ गए। नाथ जी ने राजा से पूछा इन्द्रदमन मूर्तियाँ बनाई क्या? राजा ने कर बद्ध हो कर कहा कि आप की आज्ञा का पूर्ण पालन किया गया है महात्मा जी। परन्तु मेरा दुर्भाग्य है कि मूर्तियाँ बन नहीं पा रही हैं। आधी बनते ही टुकड़े-टुकड़े हो जाती हैं नौकरों से मूर्तियों के टुकड़े मंगवाकर नाथ जी को विश्वास दिलाने के लिए दिखाए।
नाथ जी ने कहा कि मूर्ति अवश्य बनवानी है। अब बनवाओं मैं देखता हूँ कैसे मूर्ति टूटती है। राजा ने कहा नाथ जी प्रयत्न किया जा रहा है। प्रभु का भेजा एक अनुभवी 80 वर्षीय कारीगर बन्द कमरें में मूर्ति बना रहा है। उसने कहा है कि मूर्तियाँ बन जाने पर मैं अपने आप द्वार खोल दूंगा। यदि किसी ने बीच में द्वार खोल दिया तो जितनी मूर्तियाँ बनी होंगी उतनी ही रह जायेंगी। आज उसे मूर्ति बनाते बारह दिन हो गये। न तो बाहर निकला है, न ही जल पान तथा आहार ही किया है। नाथ जी ने कहा कि मूर्तियाँ देखनी चाहिये, कैसी बना रहा है? बनने के बाद क्या देखना है। ठीक नहीं बनी होंगी तो ठीक बनायेंगे। यह कहकर नाथ जी राजा इन्द्रदमन को साथ लेकर उस कमरे के सामने गए जहाँ मूर्ति बनाई जा रही थी तथा आवाज लगाई कारीगर द्वार खोलो। कई बार कहा परन्तु द्वार नहीं खुला तथा जो खट-खट की आवाज आ रही थी, वह भी बन्द हो गई। नाथ जी ने कहा कि 80वर्षीय वृद्ध बता रहे हो, बारह दिन खाना-पिना भी नहीं किया है। अब आवाज भी बंद है, कहीं मर न गया हो। धक्का मार कर दरवाजा तोड़ दिया, देखा तो तीन मूर्तियाँ रखी थी, तीनों के हाथ के व पैरों के पंजे नहीं बने थे। कारीगर अन्तध्र्यान था।
मन्दिर बन कर तैयार हो गया और चारा न देखकर अपने हठ पर अडिग नाथ जी ने कहा ऐसी ही मूर्तियों को स्थापित कर दो, हो सकता है प्रभु को यही स्वीकार हो, लगता है श्री कृष्ण ही स्वयं मूर्तियां बना कर गए हैं। मुख्य पांडे ने शुभ मूहूर्त निकाल कर अगले दिन ही मूर्तियों की स्थापना कर दी। सर्व पाण्डे तथा मुख्य पांडा व राजा तथा सैनिक व श्रद्धालु मूर्तियों में प्राण स्थापना करने के लिए चल पड़े।
पूर्ण परमेश्वर (कविर्देव) एक शुद्र का रूप धारण करके मन्दिर के मुख्य द्वार के मध्य में मन्दिर की ओर मुख करके खड़े हो गए। ऐसी लीला कर रहे थे मानों उनको ज्ञान ही न हो कि पीछे से प्रभु की प्राण स्थापना की सेना आ रही है। आगे-आगे मुख्य पांडा चल रहा था। परमेश्वर फिर भी द्वार के मध्य में ही खड़े रहे। निकट आ कर मुख्य पांडे ने शुद्र रूप में खड़े परमेश्वर को ऐसा धक्का मारा कि दूर जा कर गिरे तथा एकान्त स्थान पर शुद्र लीला करते हुए बैठ गए। राजा सहित सर्व श्रद्धालुओं ने मन्दिर के अन्दर जा कर देखा तो सर्व मूर्तियाँ उसी द्वार पर खड़े शुद्र रूप परमेश्वर का रूप धारण किए हुए थी। इस कौतूक को देखकर उपस्थित व्यक्ति अचम्भित हो गए। मुख्य पांडा कहने लगा प्रभु क्षुब्ध हो गया है क्योंकि मुख्य द्वार को उस शुद्र ने अशुद्ध कर दिया है। इसलिए सर्व मूर्तियों ने शुद्र रूप धारण कर लिया है। बड़ा अनिष्ठ हा गया है। कुछ समय उपरान्त मूर्तियों का वास्तविक रूप हो गया। गंगा जल से कई बार स्वच्छ करके प्राण स्थापना की गई।
{ कविर्देव ने कहा अज्ञानता व पाखण्ड वाद की चरम सीमा देखें। कारीगर मूर्ति का भगवान बनता है। फिर पूजारी या अन्य संत उस मूर्ति रूपी प्रभु में प्राण डालता है अर्थात् प्रभु को जीवन दान देता है। तब वह मिट्टी या लकड़ी का प्रभु कार्य सिद्ध करता है, वाह रे पाखण्डियों खूब मूर्ख बनाया प्रभु प्रेमी आत्माओं को। }
मूर्ति स्थापना हो जाने के कुछ दिन पश्चात् लगभग 40फूट ऊँचा समुद्र का जल उठा जिसे समुद्री तुफान कहते हैं तथा बहुत वेग से मन्दिर की ओर चला। सामने कबीर परमेश्वर चैरा (चबुतरे) पर बैठे थे। अपना एक हाथ उठाया जैसे आर्शीवाद देते हैं, समुद्र उठा का उठा रह गया तथा पर्वत की तरह खड़ा रहा, आगे नहीं बढ़ सका। विप्र रूप बना कर समुद्र आया तथा चबूतरे पर बैठे प्रभु से कहा कि भगवन आप मुझे रास्ता दे दो, मैं मन्दिर तोड़ने जाऊंगा। प्रभु ने कहा कि यह मन्दिर नहीं है। यह तो महल (आश्रम) है। इसमें विद्वान् पुरुष रहा करेगा तथा पवित्र गीता जी का ज्ञान दिया करेगा। आपका इसको विधवंश करना शोभा नहीं देता। समुद्र ने कहा कि मैं इसे अवश्य तोडूंगा। प्रभु ने कहा कि जाओ कौन रोकता है? समुद्र ने कहा कि मैं विवश हो गया हूँ। आपकी शक्ति अपार है। मुझे रस्ता दे दो प्रभु। परमेश्वर कबीर साहेब जी ने पूछा कि आप ऐसा क्यों कर रहे हो? विप्र रूप में उपस्थित समुद्र ने कहा कि जब यह श्री कृष्ण जी त्रेतायुग में श्री रामचन्द्र रूप में आया था तब इसने मुझे अग्नि बाण दिखा कर बुरा भला कह कर अपमानित करके रास्ता मांगा था। मैं वह प्रतिशोध लेने जा रहा हूँ। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि प्रतिशोध तो आप पहले ही ले चुके हो। आपने द्वारिका को डूबो रखा है। समुद्र ने कहा कि अभी पूर्ण नहीं डूबा पाया हूँ, आधी रहती है। वह भी कोई प्रबल शक्ति युक्त संत सामने आ गया था जिस कारण से मैं द्वारिका को पूर्ण रूपेण नहीं समा पाया। अब भी कोशिश करता हूँ तो उधर नहीं जा पा रहा हूँ। उधर जाने से मुझे बांध रखा है।
तब परमेश्वर कबीर (कविर्देव) ने कहा वहाँ भी मैं ही पहुँचा था। मैंने ही वह अवशेष बचाया था। अब जा शेष बची द्वारिका को भी निगल ले, परन्तु उस यादगार को छोड़ देना, जहाँ श्री कृष्ण जी के शरीर का अन्तिम संस्कार किया गया था (श्री कृष्ण जी के अन्तिम संस्कार स्थल पर बहुत बड़ा मन्दिर बना दिया गया। यह यादगार प्रमाण बना रहेगा कि वास्तव में श्री कृष्ण जी की मृत्यु हुई थी तथा पंच भौतिक शरीर छोड़ गये थे। नहीं तो आने वाले समय में कहेंगे कि श्री कृष्ण जी की तो मृत्यु ही नहीं हुई थी)। आज्ञा प्राप्त कर शेष द्वारिका को भी समुद्र ने डूबो लिया। परमेश्वर कबीर जी (कविर्देव) ने कहा अब आप आगे से कभी भी इस जगन्नाथ मन्दिर को तोड़ने का प्रयत्न न करना तथा इस महल से दूर चला जा। आज्ञा प्रभु की मान कर प्रणाम करके समुन्द्र मन्दिर से दूर लगभग डेढ़ किलोमीटर अपने जल को ले गया। ऐसे श्री जगन्नाथ जी का मन्दिर अर्थात् धाम स्थापित हुआ।
पुण्य आत्माओ इस मंदिर पर आज भी छुआ छूत नही होती |
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|| सत साहेब ||