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Thursday, June 30, 2016

कायर बहुत पमांवहीं, बहकि न बोलै सूर। काम पड्यां हीं जाणिये, किस मुख परि है नूर!!

कबीर, कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति ना होय |
भक्ति करे कोई सूरमा, जाति वर्ण कुल खोय ||
भावार्थ: कबीर साहेब कहते है भक्ति तो कोई शूरवीर ही कर सकते है जो अन्दर आन्तरिक विकारो से लड़ते है साथ ही बाहर के सामाजिक विकारो (जात पात कुल परम्परा) से भी हट जाते है ।

`कबीर' संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत।
काम क्रोध सूं झूझणा, चौड़ै मांड्या खेत॥
भावार्थ - कबीर परमात्मा कहते हैं -- मेरे मन में कुछ भी संशय नहीं रहा, और हरि से लगन जुड़ गई। इसीलिए चौड़े में आकर काम और क्रोध से जूझ रहा हूँ रण-क्षेत्र में।

सूरा तबही परषिये, लड़ै धणी के हेत।
पुरिजा-पुरिजा ह्वै पड़ै, तऊ न छांड़ै खेत॥
भावार्थ - शूरवीर की तभी सच्ची परख होती है, जब वह अपने स्वामी के लिए जूझता है। पुर्जा-पुर्जा कट जाने पर भी वह युद्ध के क्षेत्र को नहीं छोड़ता।

अब तौ झूझ्या हीं बणै, मुड़ि चाल्यां घर दूर।
सिर साहिब कौं सौंपतां, सोच न कीजै सूर॥
भावार्थ - अब तो झूझते बनेगा, पीछे पैर क्या रखना ? अगर यहाँ से मुड़ोगे तो घर तो बहुत दूर रह गया है। साईं को सिर सौंपते हुए सूरमा कभी सोचता नहीं, कभी हिचकता नहीं।

जिस मरनैं थैं जग डरै, सो मेरे आनन्द।
कब मरिहूं, कब देखिहूं पूरन परमानंद॥
भावार्थ - जिस मरण से दुनिया डरती है, उससे मुझे
तो आनन्द होता है ,कब मरूँगा और कब देखूँगा मैं अपने पूर्ण सच्चिदानन्द को ! (गीता अध्याय 7/ 29)

कायर बहुत पमांवहीं, बहकि न बोलै सूर।
काम पड्यां हीं जाणिये, किस मुख परि है नूर!!
भावार्थ - बड़ी-बड़ी डींगे कायर ही हाँका करते हैं, शूरवीर कभी बहकते नहीं। यह तो काम आने पर ही जाना जा सकता है कि शूरवीरता का नूर किस चेहरे पर प्रकट होता है।

सतसाहेब जी
Suraj Kumar

कायर बहुत पमांवहीं, बहकि न बोलै सूर। काम पड्यां हीं जाणिये, किस मुख परि है नूर!!

कबीर, कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति ना होय |
भक्ति करे कोई सूरमा, जाति वर्ण कुल खोय ||
भावार्थ: कबीर साहेब कहते है भक्ति तो कोई शूरवीर ही कर सकते है जो अन्दर आन्तरिक विकारो से लड़ते है साथ ही बाहर के सामाजिक विकारो (जात पात कुल परम्परा) से भी हट जाते है ।

`कबीर' संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत।
काम क्रोध सूं झूझणा, चौड़ै मांड्या खेत॥
भावार्थ - कबीर परमात्मा कहते हैं -- मेरे मन में कुछ भी संशय नहीं रहा, और हरि से लगन जुड़ गई। इसीलिए चौड़े में आकर काम और क्रोध से जूझ रहा हूँ रण-क्षेत्र में।

सूरा तबही परषिये, लड़ै धणी के हेत।
पुरिजा-पुरिजा ह्वै पड़ै, तऊ न छांड़ै खेत॥
भावार्थ - शूरवीर की तभी सच्ची परख होती है, जब वह अपने स्वामी के लिए जूझता है। पुर्जा-पुर्जा कट जाने पर भी वह युद्ध के क्षेत्र को नहीं छोड़ता।

अब तौ झूझ्या हीं बणै, मुड़ि चाल्यां घर दूर।
सिर साहिब कौं सौंपतां, सोच न कीजै सूर॥
भावार्थ - अब तो झूझते बनेगा, पीछे पैर क्या रखना ? अगर यहाँ से मुड़ोगे तो घर तो बहुत दूर रह गया है। साईं को सिर सौंपते हुए सूरमा कभी सोचता नहीं, कभी हिचकता नहीं।

जिस मरनैं थैं जग डरै, सो मेरे आनन्द।
कब मरिहूं, कब देखिहूं पूरन परमानंद॥
भावार्थ - जिस मरण से दुनिया डरती है, उससे मुझे
तो आनन्द होता है ,कब मरूँगा और कब देखूँगा मैं अपने पूर्ण सच्चिदानन्द को ! (गीता अध्याय 7/ 29)

कायर बहुत पमांवहीं, बहकि न बोलै सूर।
काम पड्यां हीं जाणिये, किस मुख परि है नूर!!
भावार्थ - बड़ी-बड़ी डींगे कायर ही हाँका करते हैं, शूरवीर कभी बहकते नहीं। यह तो काम आने पर ही जाना जा सकता है कि शूरवीरता का नूर किस चेहरे पर प्रकट होता है।

सतसाहेब जी
Suraj Kumar