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Wednesday, September 13, 2017
Thursday, August 24, 2017
जीने की राह पुस्तक घर घरमा राख्ने योग्य छ। यस्लाई पढ्ने तथा अपनाउनाले लोक तथा परलोक दुबैमा सुखि रहिने छ।
जीने की राह पुस्तक घर घरमा राख्ने योग्य छ। यस्लाई पढ्ने तथा अपनाउनाले लोक तथा परलोक दुबैमा सुखि रहिने छ। पापबाट बचिने छ, घरको कलह समाप्त हुनेछ। बुहारी-छोरीले आफ्ना आमा-बुबाको विशेष सेवा गर्ने छन्। घरमा परमात्माको निवास हुने छ। भुत-प्रेत, पितृ-भैरव-बेताल जस्ता आत्माहरु त्यस घरको आसपास आउने छैनन्। देवताले त्यस भक्त परिवारको सुरक्षा गर्ने छन्। अकाल मृत्यु त्यस भक्तको हुने छैन जस्ले यस पुस्तकलाई पढेर दिक्षा लिएर मर्यादामा साधाना गर्नेछ।
यो पुस्तक पढेमा उजडिएको परिवारको पुन: मेल हुनेछ जुन परिवारमा यो पुस्तक रहने छ, यस्लाई पढिने छ। जुन कारणले नशा आफै छुट्ने छ किनकि यसमा यस्तो प्रमाण छ कि आत्मालाई छुने छ। रक्सि, सुर्ति तथा अन्य नशाको प्रति यस्तो घृणा हुनेछ कि यसको नाम लिनु मात्रले आत्मा काँप्ने छ। पुरा परिवार सुखको जीवन बाच्ने छन्। जीवनको यात्रा सजिलै तय हुनेछ किनकि जीवनको मार्ग स्पष्ट हुनेछ।
यो पुस्तकमा, पूर्ण परमात्मा को हुन? उनको नाम के हो? उसको भक्ति कस्तो छ? सबै जानकारी पाईने छ। मानव जीवन सफल हुनेछ। परिवारमा कुनै प्रकारको खराबी रहने छैन। परमात्माको कृपा सधै बनिरहेनेछ। जीउने मार्ग उत्तम मिल्नाले यात्रा सजिलो हुनेछ। जस्ले यो पुस्तक घरमा राख्दैनन्, उनीहरु जीउने मार्ग उत्तम प्राप्त नहुनाले संसार रुपि जंगलमा भट्केर अनमोल जीवन नष्ट गर्नेछन्। परमात्माको घरमा गएर पश्चतापको अलवा केहि हाथ लाग्ने छैन्। त्यो समय तपाईलाई थाहा हुने छ कि जीउने मार्ग उत्तम नमिल्नाले जीन्दगी बर्बाद भयो। फेरि तपाईले परमात्मा संग विनय गर्नुहुने छ कि हे प्रभु एक अर्को मानव जीवन बक्स दिनुहोस्। म सत्य मनबाट सहि भक्ति गर्नेछु। जीवनको सहि मार्ग खोज्न सतसंगमा जानेछु। आजिवन भक्ति गर्ने छु। आफ्नो कल्याण गराउँनेछु।
त्यस परमात्माको दरबार (कार्यालय)मा तपाईको पूर्व जन्मको फिल्म चलाईने छ। जस्मा तपाईको प्रत्येक पटक जति-जति बेला मानव जीवन प्राप्त भएको थियो त्यसमा तपाईले यहि भन्नु भएको थियो कि मानव जीवन अर्को दिनुहोस कहिलै बुराई गर्ने छैन्। आजीवन भक्ति गर्ने छु। घरको काम निर्वाह गर्नको लागि गर्ने छु। पूर्ण सदगुरुबाट दिक्षा लिएर कल्याण गराउँनेछु। जुन गल्ति अहिलेको जीवनमा भएको छ, कहिल्यै दोहोर्यानउँने छैन।
फेरी परमात्माले भन्नु हुन्छ कि आफूले आफूलाई मुर्ख बनाएर जीवन नष्ट गरेर पापको गाडी भोरेर आएको छ, मलाई पनि मुर्ख बनाऊन चाहन्छस्। गर्कमा जा र फेरी चौरासि लाख प्रणिहरुको शरिरमा चक्कर लगा। कुनै समय मानव (स्त्री-पुरुष)को शरिर मिलेमा सावधान भएर संतको सत्संग सुन्नु र आफ्नो कल्याण गराउनु।
पाठकजनहरुमा यो निवेदन छ कि यो पुस्तक पढ्नाले तपाईको एक सौ एक पिढि लोक तथा परलोकमा सुखि रहनेछन्। यस्लाई परमात्माको आदेश मानेर पुरा परिवारले पढ्नु। एकले पढ्नु अरुले सुन्नु अथवा एक भन्दा धेरै पुस्तक लिएर छुट्टा-छुट्टै दिनदिनै पढ्नु। यसमा लेखिएको प्रत्येक प्रकरणलाई सत्य मान्नु। मजाकमा नलिनु। यो कुनै सांगीले बनाएको हैन, यो परमेश्वरको गुलाम रामपाल दासद्धारा हृदयबाट मानव कल्याणको उदेश्यले लिखिएको हो। लाभ उठाऊनुहोस्। सत साहेब।।
लेखक
दासन दास रामपाल दास
सतलोक आश्रम बरवाला
जिला-हिसार, हरियाणा (भरत)
दासन दास रामपाल दास
सतलोक आश्रम बरवाला
जिला-हिसार, हरियाणा (भरत)
Thursday, August 3, 2017
सारी उम्र सजाने सवारने में लगाते हो अंत में ये देहि राख बन जाएगी, और आपके हाथ कुछ नहीं लगेगा,
जिस देहि को आप सारी उम्र सजाने सवारने में लगाते हो अंत में ये देहि राख बन जाएगी, और आपके हाथ कुछ नहीं लगेगा,
कबीर साहेब कहते हैं”
ये तन काचा कुंभ था, तू लिए फीरे था साथ,
ठुबका लाग्या फुट गया, तेरे कुछ न आया हाथ”
इस कच्चे घड़े जैसे शरीर पर अभिमान न करके इससे हमे भगति करके मोक्ष प्राप्त करना चाहिए.. जिसे आप गहनों और मोतियों से सजाने सवारने में लगे रहते हो…अंत में पता चला कि गहने घर के लूट ले गए और शरीर राख बनते ही कुछ हवा ले गई और कुछ गंगा का नीर ले गया..जो काम इस देहि से लेना था हमने वो तो कभी लिया नहीं
“गहने मोति तन की शोभा ये तन तो काचो भाँडो,
बिना भजन फिर कुतिया बनोगी राम भजो न रांडो”
ये देह परमात्मा ने भगती और मोक्ष के लिए दी है ।अन्यथा हमसे अच्छा जीवन तो जानवर भी जी रहे हैं, पशु पक्षी भी जी रहे हैं.फिर मालिक को मानुष शरीर देने की क्या जरूरत पड़ी..
.कबीर साहेब-
पतिव्रता मैली भली, काली कुचल करूप..,
पतिव्रता के मुख पर बरहों कोटि स्वरूप
“पतिव्रता जमी पर जियूं, जियूं धर है पाँव,
समरथ झाड़ू दैत हैं, न कांटा लग जाव
“परमात्मा कहते हैं भक्ति करने वाली नारी चाहे गोरी हो चाहे काली, सूंदर हो अथवा नहीं.. परमात्मा को भगती प्यारी है फिर चाहे वो कोई भी करता हो कुरूप स्त्री अगर भक्ति करती है तो वो सुंदर स्त्री से कई गुना सूंदर है परमात्मा की नजरों में,क्या फायदा अगर ये देह सुन्दर है पर इससे भक्ति नहीं बनी/ किया तो अगला जनम कुतिया का होगा, फिर कहाँ जाएगी वो सुंदरता..
“बीबी परदे रहे थी, ड्योडी लगे थी बाहर..,
अब गात उघाड़े फिरती है वो बन कुतिया बाजार”
“वो परदे की सुंदरी, सुनो संदेसा मोर,
अब गात उघाड़े फिरती है वो करे सरायों शोर”
“नक बेसर नक पर बनी, पहने थी हार हमेल,
सुंदरी से कुतिया बनी सुण साहेब के खेल”
इस लिए सुन्दर देह का अभिमान न करके और इस को सजाने सवारने में समय बर्बाद ना करके, इस देहि से अपनी भक्ति रुपी कमाई करके सतलोक, सचखण्ड उस अमर धाम चलो जहाँ से फिर मुड़के इस गंदे लोक में न आना पड़े..
कबीर साहेब कहते हैं”
ये तन काचा कुंभ था, तू लिए फीरे था साथ,
ठुबका लाग्या फुट गया, तेरे कुछ न आया हाथ”
इस कच्चे घड़े जैसे शरीर पर अभिमान न करके इससे हमे भगति करके मोक्ष प्राप्त करना चाहिए.. जिसे आप गहनों और मोतियों से सजाने सवारने में लगे रहते हो…अंत में पता चला कि गहने घर के लूट ले गए और शरीर राख बनते ही कुछ हवा ले गई और कुछ गंगा का नीर ले गया..जो काम इस देहि से लेना था हमने वो तो कभी लिया नहीं
“गहने मोति तन की शोभा ये तन तो काचो भाँडो,
बिना भजन फिर कुतिया बनोगी राम भजो न रांडो”
ये देह परमात्मा ने भगती और मोक्ष के लिए दी है ।अन्यथा हमसे अच्छा जीवन तो जानवर भी जी रहे हैं, पशु पक्षी भी जी रहे हैं.फिर मालिक को मानुष शरीर देने की क्या जरूरत पड़ी..
.कबीर साहेब-
पतिव्रता मैली भली, काली कुचल करूप..,
पतिव्रता के मुख पर बरहों कोटि स्वरूप
“पतिव्रता जमी पर जियूं, जियूं धर है पाँव,
समरथ झाड़ू दैत हैं, न कांटा लग जाव
“परमात्मा कहते हैं भक्ति करने वाली नारी चाहे गोरी हो चाहे काली, सूंदर हो अथवा नहीं.. परमात्मा को भगती प्यारी है फिर चाहे वो कोई भी करता हो कुरूप स्त्री अगर भक्ति करती है तो वो सुंदर स्त्री से कई गुना सूंदर है परमात्मा की नजरों में,क्या फायदा अगर ये देह सुन्दर है पर इससे भक्ति नहीं बनी/ किया तो अगला जनम कुतिया का होगा, फिर कहाँ जाएगी वो सुंदरता..
“बीबी परदे रहे थी, ड्योडी लगे थी बाहर..,
अब गात उघाड़े फिरती है वो बन कुतिया बाजार”
“वो परदे की सुंदरी, सुनो संदेसा मोर,
अब गात उघाड़े फिरती है वो करे सरायों शोर”
“नक बेसर नक पर बनी, पहने थी हार हमेल,
सुंदरी से कुतिया बनी सुण साहेब के खेल”
इस लिए सुन्दर देह का अभिमान न करके और इस को सजाने सवारने में समय बर्बाद ना करके, इस देहि से अपनी भक्ति रुपी कमाई करके सतलोक, सचखण्ड उस अमर धाम चलो जहाँ से फिर मुड़के इस गंदे लोक में न आना पड़े..
Monday, May 29, 2017
Tuesday, May 2, 2017
Sunday, April 30, 2017
Thursday, April 27, 2017
Friday, April 21, 2017
सृष्टी की रचना
सृष्टी की रचना
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प्रभु प्रेमी आत्माएँ प्रथम बार निम्न सृष्टी की रचना को पढेगे तो ऐसे लगेगा जैसे दन्त कथा हो, पbरन्तु सर्व पवित्र सद्ग्रन्थों के प्रमाणों को पढ़कर दाँतों तले ऊँगली दबाएँगे कि यह वास्तविक अमृत ज्ञान कहाँ छुपा था? कृप्या धैर्य के साथ पढ़ते रहिए तथा इस अमृत ज्ञान को सुरक्षित रखिए। आप की एक सौ एक पीढ़ी तक काम आएगा।
पवित्रात्माएँ कृप्या सत्यनारायण(अविनाशी प्रभु/सतपुरुष) द्वारा रची सृष्टी रचना का वास्तविक ज्ञान पढ़े।
1. पूर्ण ब्रह्म :- इस सृष्टी रचना में सतपुरुष-सतलोक का स्वामी (प्रभु), अलख पुरुष अलख लोक का स्वामी (प्रभु), अगम पुरुष-अगम लोक का स्वामी (प्रभु) तथा अनामी पुरुष- अनामी अकह लोक का स्वामी (प्रभु) तो एक ही पूर्ण ब्रह्म है, जो वास्तव में अविनाशी प्रभु है जो भिन्न-२ रूप धारणकरके अपने चारों लोकों में रहता
है। जिसके अन्तर्गत असंख्य ब्रह्माण्ड आते हैं।
2. परब्रह्म :- यह केवल सात संख ब्रह्माण्ड का स्वामी (प्रभु) है। यह अक्षर पुरुष भी कहलाता है। परन्तु यह तथा इसके ब्रह्माण्ड भी वास्तव में अविनाशी नहीं है।
3. ब्रह्म :- यह केवल इक्कीस ब्रह्माण्ड का स्वामी (प्रभु) है। इसे क्षर पुरुष,ज्योति निरंजन, काल आदि उपमा से जाना जाता है। यह तथा इसके सर्व ब्रह्माण्ड नाशवान हैं।
(उपरोक्त तीनों पुरूषों (प्रभुओं) का प्रमाण पवित्र श्री मद्भगवत गीता अध्याय
15 श्लोक 16-17 में भी है।)
4. ब्रह्मा:- ब्रह्म का ज्येष्ठ पुत्र है, विष्णु मध्य वाला पुत्र है तथा शिव ब्रह्म का अंतिम तीसरा पुत्र है। ये तीनों ब्रह्म के पुत्र केवल एक ब्रह्माण्ड में एक विभाग (गुण) के स्वामी (प्रभु) हैं तथा नाशवान हैं। विस्तृत विवरण के लिए कृप्या पढ़े निम्न लिखित सृष्टी रचना-
{कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने सुक्ष्म वेद अर्थात कबीर वाणी में अपने द्वारा रची सृष्टी का ज्ञान स्वयं ही बताया है जो निम्नलिखित है}
सर्व प्रथम केवल एक स्थान अनामी (अनामय) लोक' था। जिसे अकह लोक भी कहा जाता है, पूर्ण परमात्मा उस अनामी लोक में अकेला रहता था। उस परमात्मा का वास्तविक नाम कविर्देव अर्थात् कबीर परमेश्वर है। सभी आत्माएँ उस पूर्ण धनी के शरीर में समाई हुई थी। इसी कविर्देव का उपमात्मक (पदवी का) नाम अनामी पुरुष है (पुरुष का अर्थ प्रभु होता है। प्रभु ने मनुष्य को अपने ही स्वरूप में बनाया है, इसलिए मानव का नाम भी पुरुष ही पड़ा है।) अनामी पुरूष के एक रोम कूप का प्रकाश संख सूर्यों की रोशनी से भी अधिक है।
विशेष :- जैसे किसी देश के आदरणीय प्रधान मंत्री जी का शरीर का नाम तोअन्य होता है तथा पद का उपमात्मक (पदवी का) नाम प्रधानमंत्री होता है। कई बार प्रधानमंत्री जी अपने पास कई विभाग भी रख लेते हैं। तब जिस भी विभाग के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करते हैं तो उस समय उसी पद को लिखते हैं। जैसे गृह मंत्रालय के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करेगेंतो अपने को गृह मंत्री लिखेगें। वहाँ उसी व्यक्ति के हस्ताक्षर की शक्ति कम होती है। इसी प्रकार कबीर परमेश्वर (कविर्देव) की रोशनी में अंतर भिन्न-२ लोकों में होता जाता है।
ठीक इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने नीचे के तीन और लोकों (अगमलोक, अलख लोक, सतलोक) की रचना शब्द(वचन) से की।
यही पूर्णब्रह्म परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ही अगम लोक में प्रकट हुआ तथा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) अगम लोक का भी स्वामी है तथा वहाँ इनका उपमात्मक (पदवी का) नाम अगम पुरुष अर्थात् अगम प्रभु है। इसी अगम प्रभु का मानव सदृश शरीर बहुत तेजोमय है जिसके एक रोम कूप की रोशनी खरब सूर्य की रोशनी से
भी अधिक है।
यह पूर्ण कविर्देव (कबिर देव=कबीर परमेश्वर) अलख लोक में प्रकट परमात्मा हुआ तथा स्वयं ही अलख लोक का भी स्वामी है तथा उपमात्मक (पदवी का) नाम अलख पुरुष भी इसी परमेश्वर का है तथा इस पूर्ण प्रभु का मानव सदृश शरीर तेजोमय (स्वज्योंति) स्वयं प्रकाशित है। एक रोम कूप की रोशनी अरब सूर्यों के प्रकाश से भी ज्यादा है। यही पूर्ण प्रभु सतलोक में प्रकट हुआ तथा सतलोक का भी अधिपति यही है। इसलिए इसी का उपमात्मक (पदवी का) नाम सतपुरुष (अविनाशी प्रभु)है। इसी परमेश्वरका नाम अकालमूर्ति - शब्द स्वरूपी राम - पूर्ण ब्रहम - परम अक्षर ब्रहम आदि हैं। इसी सतपुरुष कविर्देव (कबीर प्रभु) का मानव सदृश शरीर तेजोमय है। जिसके एक रोमकूप का प्रकाश करोड़ सूयों तथा इतने ही चन्द्रमाओं के प्रकाश से भी अधिक है।
इस कविर्देव (कबीर प्रभु) ने सतपुरुष रूप में प्रकट होकर सतलोक में विराजमान होकर प्रथम सतलोक में अन्य रचना की। एक शब्द (वचन) से सोलह द्वीपों की रचना की। फिर सोलह शब्दों से सोलह पुत्रों की उत्पत्ति की। एक मानसरोवर की रचना की जिसमें अमृत भरा।
सोलह पुत्रों के नाम हैं :-
(1) “कूर्म',
(2)'ज्ञानी',
(3) 'विवेक',
(4) 'तेज',
(5) “सहज
(6) “सन्तोष',
(7)'सुरति”,
(8) “आनन्द',
(9) 'क्षमा',
(10) “निष्काम
(11) ‘जलरंगी'
(12)“अचिन्त',
(13) 'प्रेम',
(14) “दयाल',
(15) 'धैर्य'
(16) योग संतायन' अथति ''योगजीत
सतपुरुष कविर्देव ने अपने पुत्र अचिन्त को सतलोक की अन्य रचना का भार सौंपा तथा शक्ति प्रदान की। अचिन्त ने अक्षर पुरुष (परब्रह्म) की शब्द से उत्पत्ति की तथा कहा कि मेरी मदद करना। अक्षर पुरुष स्नान करने मानसरोवर पर गया वहाँ आनन्द आया तथा सो गया। लम्बे समय तक बाहर नहीं आया। तब अचिन्त की प्रार्थना पर अक्षर पुरुष को नींद से जगाने के लिए कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने उसी मानसरोवर से कुछ अमृत जल लेकर एक अण्डा बनाया तथा उस अण्डे में एक आत्मा प्रवेश की तथा अण्डे को मानसरोवर के अमृत जल में छोड़ा। अण्डे की गड़गड़ाहट से अक्षर पुरुष की निंद्रा भंग हुई। उसने अण्डे को क्रोध से देखा जिस कारण से अण्डे के दो भाग हो गए। उसमें से ज्योति निंरजन (क्षर पुरुष) निकला जो आगे चलकर ‘काल’ कहलाया। इसका वास्तविक नाम 'कैल' है।
तब सतपुरुष (कविर्देव) ने आकाशवाणी की कि आप दोनों बाहर आओ तथा अचिंत के द्वीप में रहो। आज्ञा पाकर अक्षर पुरुष तथा क्षर पुरुष (कैल) दोनों अचिंत के द्वीप में रहने लगे (बच्चों की नालायकी उन्हीं को दिखाई कि कहीं फिर प्रभुता की तड़प न बन जाए, क्योंकि समर्थ बिन कार्य सफल नहीं होता) फिर पूर्ण धनी कविर्देव नेसर्व रचना स्वयं की। अपनी शब्द शक्ति से एक राजेश्वरी (राष्ट्री) शक्ति उत्पन्न की, जिससे सर्व ब्रह्माण्डों को स्थापित किया। इसी को पराशक्ति परानन्दनी भी कहते हैं। पूर्ण ब्रह्म ने सर्व आत्माओं को अपने ही अन्दर से अपनी वचन शक्ति से अपने मानव शरीर सदृश उत्पन्न किया। प्रत्येक हंस आत्मा का परमात्मा जैसा ही शरीर रचा जिसका तेज 16 (सोलह) सूर्या जैसा मानव सदृश ही है। परन्तु परमेश्वर के शरीर के एक रोम कूप का प्रकाश करोड़ों सूयों से भी ज्यादा है। बहुत समयउपरान्त क्षर पुरुष (ज्योति निरंजन) ने सोचा कि हम तीनों (अचिन्त - अक्षर पुरुष और क्षर पुरुष) एक द्वीप में रह रहे हैं तथा अन्य एक-एक द्वीप में रह रहे हैं। मैं भी साधना करके अलग द्वीप प्राप्त करूंगा। उसने ऐसा विचार करके एक पैर पर खड़ाहोकर सत्तर (70) युग तक तप किया।
आत्माएँ काल के जाल में कैसे फंसी
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विशेष :- जब ब्रह्म (ज्योति निरंजन) तप कर रहा था हम सभी आत्माएँ, जो आज ज्योति निरंजन के इक्कीस ब्रह्माण्डों में रहते हैं इसकी साधना पर आसक्त होगए तथा अन्तरात्मा से इसे चाहने लगे। अपने सुखदाई प्रभु सत्य पुरूष से विमुख हो गए। जिस कारण से पतिव्रता पद से गिर गए।
पूर्ण प्रभु के बार-बार सावधान करने पर भी हमारी आसक्ति क्षर पुरुष से नहीं हटी।{यही प्रभाव आज भी इस काल की स्रष्टी में विद्यमान है। जैसे नौजवान बच्चे फिल्म स्टारों(अभिनेताओं तथा अभिनेत्रियों) की बनावटी अदाओं तथा अपने रोजगार उद्देश्य से कर रहे भूमिका पर अति आसक्त हो जाते हैं, रोकने से नहीं रूकते। यदि कोई अभिनेता या अभिनेत्री निकटवर्ती शहर में आ जाए तो देखें उन नादान बच्चों की भीड़ केवल दर्शन करने के लिए बहुत संख्या में एकत्रित हो जाती हैं। 'लेना एक न देने दो' रोजी रोटी अभिनेता कमा रहे हैं, नौजवान बच्चे लुट रहे हैं। माता-पिता कितना ही समझाएँ किन्तु बच्चे नहीं मानते। कहीं न कहीं कभी न कभी, लुक-छिप कर जाते ही रहते हैं।}
एक पैर पर खड़ाहोकर सत्तर (70) युग तक तप किया। पूर्ण ब्रह्मा कविर्देव (कबीर प्रभु) ने क्षर पुरुष से पूछा कि बोलो क्या चाहते हो? उसने कहा कि पिता जी यह स्थान मेरे लिए कम है, मुझे अलग से द्वीप प्रदानकरने की कृपा करें। हक्का कबीर (सत्तू कबीर) ने उसे 21 (इक्कीस) ब्रह्मण्ड प्रदानकर दिए।
कुछ समय उपरान्त ज्योति निरंजन ने सोचा इस में कुछ रचना करनी चाहिए। खाली ब्रह्मण्ड(प्लाट) किस काम के। यह विचार कर 70 युग तप करके पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर प्रभु) से रचना सामग्री की याचना की। सतपुरुष ने उसे तीन गुण तथा पाँच तत्व प्रदान कर दिए, जिससे ब्रह्म (ज्योति निरंजन) ने अपने ब्रह्माण्डों में कुछ रचना की। फिर सोचा कि इसमें जीव भी होने चाहिए, अकेले का दिल नहीं लगता। यह विचार करके 64 (चौसठ) युग तक फिर तप किया। पूर्ण परमात्मा कविरदेव के पूछने पर बताया कि मुझे कुछ आत्मा दे दो, मेरा अकेले का दिल नहीं लग रहा। तब सतपुरुष कविरग्नि (कबीर परमेश्वर) ने कहा कि ब्रहम तेरे तप के प्रतिफल में मैं तुझे और ब्रह्मण्ड दे सकता हूँ, परन्तु मेरी आत्माओं को किसी भी जप-तप साधना के फल रूप में नहीं दे सकता। हाँ, यदि कोई स्वेच्छा से तेरे साथ जाना चाहे तो वह जा सकता है।
युवा कवि (समर्थ कबीर) के वचनसुन कर ज्योति निरंजन हमारे पास आया। हम सभी हंस आत्मा पहले से ही उसपर आसक्त थे। हम उसे चारों तरफ से घेर कर खड़े हो गए। ज्योति निंरजन ने कहा कि मैंने पिता जी से अलग 21 ब्रह्मण्ड प्राप्त किए हैं। वहाँ नाना प्रकार के रमणीय स्थल बनाए हैं। क्या आप मेरे साथ चलोगे? हम सभी हंसों ने जो आज21 ब्रह्यण्डों में परेशान हैं, कहा कि हम तैयार हैं। यदि पिता जी आज्ञा दें तब क्षरपुरुष पूर्ण ब्रह्म महान् कविर (समर्थ कबीर प्रभु) के पास गया तथा सर्व वात कही।
तब कविरग्नि (कबीर परमेश्वर) ने कहा कि मेरे सामने स्वीकृति देने वाले को आज्ञा दूंगा। क्षर पुरुष तथा परम अक्षर पुरुष (कविरमितौजा) दोनों हम सभी हंसात्माओं के पास आए। सत् कविर्देव ने कहा कि जो हंस आत्मा ब्रह्म के साथ जाना चाहता है हाथ ऊपर करके स्वीकृति दे। अपने पिता के सामने किसी की हिम्मत नहीं हुई।किसी ने स्वीकृति नहीं दि बहुत समय तक सन्नाटा छाया रहा। तत्पश्चात् एक हंस आत्मा ने साहस किया तथा कहा कि पिता जी मैं जाना चाहता हूँ। फिर तो उसकी देखा-देखी (जो आज काल (ब्रह्म) के इक्कीस ब्रह्मण्डों में फंसी हैं) हम सभी आत्माओं ने स्वीकति दे दी।
परमेश्वर कबीर जी ने ज्योति निरंजन से कहा कि आप अपने स्थान पर जाओ। जिन्होंने तेरे साथ जाने की स्वीकृति दी है। मैं उन सर्वहंस आत्माओं को आपके पास भेज दूंगा। ज्योति निरंजन अपने 21 ब्रह्मण्डों में चला गया। उस समय तक यह इक्कीस ब्रह्माण्ड सतलोक में ही थे। पूर्ण ब्रह्म ने सर्व प्रथम स्वीकृति देने वाले हंस को लड़की का रूपदिया परन्तु स्त्री इन्द्री नहीं रची तथा सर्व आत्माओं को (जिन्होंने ज्योति निरंजन (ब्रह्म) के साथ जाने की सहमति दी थी) उस लड़की के शरीर में प्रवेश कर दिया तथा उसका नाम आष्ट्रा (आदि माया/ प्रकृति देवी/ दुर्गा) पड़ा तथा सत्य पुरूष ने कहा कि पुत्री मैंने तेरे को शब्द शक्ति प्रदान कर दी है जितने जीव ब्रह्म कहे आप उत्पन्न कर देना। पूर्ण ब्रह्म कविर्देव (कबीर साहेब) अपने पुत्र सहज दास के द्वारा प्रकृति को क्षर पुरुष के पास भिजवा दिया। सहज दास जी ने ज्योति निरंजन को बताया कि पिता जी ने इस बहन के शरीर में उन सर्व आत्माओं को प्रवेश कर दिया है जिन्होंने आपके साथ जाने की सहमति व्यक्त की थी तथा इसको पिता जी ने वचन शक्ति प्रदान की है, आप जितने जीव चाहोगे प्रकति अपने शब्द से उत्पन्न कर देगी। यह कह कर सहजदास वापिस अपने द्वीप में आ गया।
युवा होने के कारण लड़की का रंग-रूप निखरा हुआ था। ब्रह्म के अन्दर विषय-वासना उत्पन्न हो गई तथा प्रक्रति (कालान्तर में दुर्गा देवी इसी का नाम पडा) देवी के साथ अभद्र गति विधि प्रारम्भ की। तब दुर्गा ने कहा कि ज्योति निरंजन मेरे पास पिता जी की प्रदान की हुई शब्द शक्ति है। आप जितने प्राणी कहोगे मैं वचन से उत्पन्न कर दूंगी। आप मैथुन परम्परा शुरु मत करो। आप भी उसी पिता के शब्द से अण्डे से उत्पन्न हुए हो तथा मैं भी उसी परमपिता के वचन से ही बाद में उत्पन्न हुई हूँ। आप मेरे बड़े भाई हो, बहन-भाई का यह योग महापाप का कारण बनेगा। परन्तु ज्योति निरंजन ने प्रकृति देवी की एक भी प्रार्थना नहीं सुनी तथा अपनी शब्द शक्ति द्वारा नाखुनों से स्त्री इन्द्री (भग) प्रकृति को लगा दी तथा बलात्कार करने की ठानी। उसी समय दुर्गा ने अपनी इज्जत रक्षा के लिए कोई और चारा न देख सुक्ष्म रूप बनाया तथा ज्योति निरंजन के खुले मुख के द्वारा पेट में प्रवेश करके पूर्णब्रह्म कविरदेव से अपनी रक्षा के लिए याचना की। उसी समय कविर्देव (कवि देव) अपने पुत्र योग संतायन अर्थात् जोगजीत का रूप बनाकर वहाँ प्रकट हुए तथा कन्या को ब्रह्म के उदर से बाहर निकाला तथा कहा कि ज्योति निरंजन आज से तेरा नाम कैल 'काल' होगा। तेरे जन्म-मृत्यु होते रहेंगे। इसीलिए तेरा नाम क्षर पुरुष होगा तथा एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों को प्रतिदिन खाया करेगा व सवा लाख उत्पन्न किया करेगा। आप दोनों को इक्कीस ब्रह्माण्ड सहित निष्कासित किया जाता है। इतना कहते ही इक्कीस ब्रह्माण्ड विमान की तरह चल पड़े। सहज दास के द्वीप के पास से होते हुए सतलोक से सोलह संख कोस (एक कोस लगभग 3 कि. मी. का होता है) की दूरी पर आकर रूक गए।
विशेष विवरण - अब तक तीन शक्तियों का विवरण आया है।
1. पूर्णब्रह्म - जिससे अन्य उपमात्मक नामों से भी जाना जाता है, जैसे सतपुरुष अकालपुरुष, शब्द स्वरूपी राम, परम अक्षर ब्रह्म/पुरुष आदि। यह पूर्णब्रह्म असंख्यब्रह्मण्डों का स्वामी है तथा वास्तव में अविनाशी है।
2. परब्रह्म - जिसे अक्षर पुरुष भी कहा जाता है। यह वास्तव में अविनाशी नहीं है। यह सात शंख ब्रह्माण्डों का स्वामी है।
3. ब्रह्म - जिसे ज्योति निरंजन, काल, कैल, क्षर पुरुष तथा धर्मराय आदि नामों से जाना जाता है, जो केवल इक्कीस ब्रह्माण्ड का स्वामी है।
अब
आगे इसी ब्रह्मा (काल) की सृष्टी के एक ब्रह्माण्ड का परिचय दिया जाएगा, जिसमें तीन और नाम आपके पढ़ने में आयेंगे - ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव।
अब
आगे इसी ब्रह्मा (काल) की सृष्टी के एक ब्रह्माण्ड का परिचय दिया जाएगा, जिसमें तीन और नाम आपके पढ़ने में आयेंगे - ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव।
ब्रह्म तथा ब्रह्मा में भेद - एक ब्रह्माण्ड में बने सर्वोपरि स्थान पर ब्रहम (क्षर पुरुष) स्वयं तीन गुप्त स्थानों की रचना करके ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव रूप में रहता है तथा अपनी पत्नी प्रकृति (दुर्गा) के सहयोग से तीन पुत्रों की उत्पत्ति करता है। उनके नाम भी ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव ही रखता है।
जो ब्रह्म का पुत्र ब्रह्मा है वह एक ब्रह्माण्ड में केवल तीन लोकों (पृथ्वी लोक, स्वर्ग लोक तथा पाताल लोक) में एक रजोगुण विभाग का मंत्री (स्वामी) है। इसे त्रिलोकीय ब्रह्मा कहा है तथा ब्रह्म जो ब्रह्मलोक में ब्रह्म रूप में रहता है उसे महाब्रह्मा व ब्रह्मलोकीय ब्रह्मा कहा है। इसी ब्रह्म (काल) को सदाशिव, महाशिव, महाविष्णु भी कहा है.
श्री विष्णु पुराण में प्रमाण :-
चतुर्थ अंश अध्याय 1 पृष्ठ 230-231 पर श्री ब्रह्माजी ने कहा :- जिस अजन्मा, सर्वमय विधाता परमेश्वर का आदि, मध्य, अन्त,स्वरूप, स्वभाव और सार हम नहीं जान पाते (श्लोक 83) जो मेरा रूप धारण कर संसार की रचना करता है, स्थिति के समय जो पुरूष रूप है तथा जो रूद्र रूप से विश्व का ग्रास कर जाता है, अनन्त रूप से सम्पूर्ण जगत् को धारण करता है। (श्लोक 86 )
चतुर्थ अंश अध्याय 1 पृष्ठ 230-231 पर श्री ब्रह्माजी ने कहा :- जिस अजन्मा, सर्वमय विधाता परमेश्वर का आदि, मध्य, अन्त,स्वरूप, स्वभाव और सार हम नहीं जान पाते (श्लोक 83) जो मेरा रूप धारण कर संसार की रचना करता है, स्थिति के समय जो पुरूष रूप है तथा जो रूद्र रूप से विश्व का ग्रास कर जाता है, अनन्त रूप से सम्पूर्ण जगत् को धारण करता है। (श्लोक 86 )
"श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी व श्री शिव जी की उत्पत्ति ”
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काल (ब्रह्म) ने प्रकृति (दुर्गा) से कहा कि अब मेरा कौन क्या बिगाडेगा? मनमानी करूंगा प्रक्रति ने फिर प्रार्थना की कि आप कुछ तो शर्म करो । प्रथम तो आप मेरे बड़े भाई हो, क्योंकि उसी पूर्ण परमात्मा (कविर्देव) की वचन शक्ति से आप की (ब्रह्मकी) अण्डे से उत्पत्ति हुई तथा बाद में मेरी उत्पत्ति उसी परमेश्वर के वचन से हुई है। दूसरे मैं आपके पेट से बाहर निकली हूँ, मैं आपकी बेटी हुई तथा आप मेरे पिता हुए। इन पवित्र नातों में बिगाड़ करना महापाप होगा। मेरे पास पिता की प्रदान की हुई शब्द शक्ति है, जितने प्राणी आप कहोगे मैं वचन से उत्पन्न कर दूंगी।
ज्योति निरंजन ने दुर्गा की एक भी विनय नहीं सुनी तथा कहा कि मुझे जो सजा मिलनी थी मिल गई, मुझे सतलोक से निष्कासित कर दिया। अब मनमानी करूंगा। यह कह कर काल पुरूष (क्षर पुरूष) ने प्रकृति के साथ जबरदस्ती शादी की तथा तीन पुत्रों (रजगुण युक्त - ब्रह्मा जी, सतगुण युक्त - विष्णु जी तथा तमगुण युक्त - शिव शंकर जी) की उत्पत्ति की . जवान होने तक तीनों पुत्रों को दुर्गा के द्वारा अचेत करवा देता है, फिर युवा होने पर श्री ब्रह्मा जी को कमल के फूल पर, श्री विष्णु जी को शेष नाग की शैय्या पर तथा श्री शिव जी को कैलाश पर्वत पर सचेत करके इक्ट्ठे कर देता है। तत्पश्चात् प्रकृति (दुर्गा) द्वारा इन तीनों का विवाह कर दिया जाता है तथा एक ब्रह्माण्ड में तीन लोकों (स्वर्ग लोक, पृथ्वी लोक तथा पाताल लोक) में एक-एक विभाग के मंत्री (प्रभु) नियुक्त कर देता है।
जैसे श्री ब्रह्मा जी को रजोगुण विभाग का तथा विष्णु जी को सत्तोगुण विभागका तथा श्री शिव शंकर जी को तमोगुण विभाग का तथा स्वयं गुप्त (महाब्रह्मा - महाविष्णु - महाशिव) रूप से मुख्य मंत्री पद को संभालता है।
एक ब्रह्माण्ड में एक ब्रह्मलोक की रचना की है। उसी में तीन गुप्त स्थान बनाए हैं। एक रजोगुण प्रधान स्थान है जहाँ पर यह ब्रह्म (काल) स्वयं महाब्रह्मा (मुख्यमंत्री) रूप में रहता है तथा अपनी पत्नी दुर्गा को महासावित्री रूप में रखता है। इन दोनों के संयोग से जो पुत्र इस स्थान पर उत्पन्न होता है वह स्वत: ही रजोगुणी बन जाता है। दूसरा स्थान सतोगुण प्रधान स्थान बनाया है। वहाँ पर यह क्षर पुरुष स्वयं महाविष्णु रूप बना कर रहता है तथा अपनी पत्नी दुर्गा को महालक्ष्मी रूप में रख कर जो पुत्र उत्पन्न करता है उसका नाम विष्णु रखता है, वह बालक सतोगुण युक्त होता है तथा तीसरा इसी काल ने वहीं पर एक तमोगुण प्रधान क्षेत्र बनाया है। उसमें यह स्वयं सदाशिव रूप बनाकर रहता है तथा अपनी पत्नी दुर्गा को महापार्वती रूप में रखता है। इन दोनों के पति-पत्नी व्यवहार से जो पुत्र उत्पन्न होता है उसका नाम शिव रख देते हैं तथा तमोगुण युक्त कर देते हैं।
(प्रमाण के लिए देखें पवित्र श्री शिव महापुराण, विद्यवेश्वर संहिता पृष्ठ 24-26 जिस में ब्रहमा, विष्णु, रूद्र तथा महेश्वरसे अन्य सदाशिव है तथा रूद्र संहिता अध्याय 6 तथा 7, 9 पृष्ठ नं. 100 से, 105 तथा 110 पर अनुवाद कर्ता श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार, गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित तथा पवित्र श्रीमद्देवीमहापुराण तीसरा स्कद पृष्ठ नं. 14 से 123 तक,गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित, जिसके अनुवाद कर्ता हैं श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार चिमन लाल गोस्वामी)
फिर इन्हीं को धोखे में रख कर अपने खाने के लिए जीवों की उत्पत्ति श्री ब्रहमा जी द्वारा तथा स्थिति (एक-दूसरे को मोह-ममता में रख कर काल जाल में रखना) श्री विष्णु जी से तथा संहार (क्योंकि काल पुरुष को शापवश एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों के सूक्ष्म शरीर से मैल निकाल कर खानाहोता है उसके लिए इक्कीसवें ब्रह्माण्ड में एक तप्तशिला है जो स्वत: गर्मी रहती है, उस पर गर्म करके मैल पिंघला कर खाता है, जीव मरते नहीं परन्तु कष्ट असहनीय होता है, फिर प्राणियों को कर्म आधार पर अन्य शरीर प्रदान करता है) श्री शिवजी द्वारा करवाता है।
जैसे किसी मकान में तीन कमरे बने हों। एक कमरे में अश्लील चित्र लगे हों। उस कमरे में जाते ही मन में वैसे ही मलिन विचार उत्पन्न हो जाते हैं। दूसरे कमरे में साधु-सन्तों, भक्तों के चित्र लगे हों तो मन में अच्छे विचार, प्रभु का चिन्तन ही बना रहता है। तीसरे कमरे में देश भक्तों व शहीदों के चित्र लगे हों तो मन में वैरसे ही जोशीले विचार उत्पन्न हो जाते हैं। ठीक इसी प्रकार ब्रह्म (काल) ने अपनी सूझ-बूझ से उपरोक्त तीनों गुण प्रधान स्थानों की रचना की हुई है।
जैसे किसी मकान में तीन कमरे बने हों। एक कमरे में अश्लील चित्र लगे हों। उस कमरे में जाते ही मन में वैसे ही मलिन विचार उत्पन्न हो जाते हैं। दूसरे कमरे में साधु-सन्तों, भक्तों के चित्र लगे हों तो मन में अच्छे विचार, प्रभु का चिन्तन ही बना रहता है। तीसरे कमरे में देश भक्तों व शहीदों के चित्र लगे हों तो मन में वैरसे ही जोशीले विचार उत्पन्न हो जाते हैं। ठीक इसी प्रकार ब्रह्म (काल) ने अपनी सूझ-बूझ से उपरोक्त तीनों गुण प्रधान स्थानों की रचना की हुई है।
*ब्रह्म (काल) की अव्यक्त रहने की प्रतिज्ञा*
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*सुक्ष्म वेद से शेष सृष्टि रचना* -------
तीनों पुत्रों की उत्पत्ति के पश्चात् ब्रह्म ने अपनी पत्नी दुर्गा (प्रकृति) से कहा मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि भविष्य में मैं किसी को अपने वास्तविक रूप में दर्शन नहीं दूंगा। जिस कारण से मैं अव्यक्त माना जाऊँगा। दुर्गा से कहा कि आप मेरा भेद किसी को मत देना। मैं गुप्त रहूँगा। दुर्गा ने पूछा कि क्या आप अपने पुत्रों को भी दर्शन नहीं दोगे ?
ब्रह्म ने कहा मैं अपने पुत्रों को तथा अन्य को किसी भी साधना से दर्शन नहीं दूंगा, यह मेरा अटल नियम रहेगा। दुर्गा ने कहा यह तो आपका उत्तम नियम नहीं है जो आप अपनी संतान से भी छुपे रहोगे। तब काल ने कहा दुर्गा मेरी विवशता है। मुझे एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों का आहार करने का शाप लगा है। यदि मेरे पुत्रों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) को पता लग गया तो ये उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार का कार्य नहीं करेंगे। इसलिए यह मेरा अनुत्तम नियम सदा रहेगा। जब ये तीनों कुछ बड़े हो जाएँ तो इन्हें अचेत कर देना। मेरे विषय में नहीं बताना, नहीं तो मैं तुझे भी दण्ड दूंगा, दुर्गा इस डर के मारे वास्तविकता नहीं बताती। इसीलिए गीता अध्याय 7 श्लोक 24 में कहा है कि यह बुद्धिहीन जन समुदाय मेरे अनुत्तम नियम से अपिरिचत हैं कि मैं कभी भी किसी के सामने प्रकट नहीं होता अपनी योग माया से छुपा रहता हूँ। इसलिए मुझ अव्यक्त को मनुष्य रूप में आया हुआ अथर्थात् कृष्ण मानते हैं। (अबुद्धय:) बुद्धि हीन (मम्) मेरे (अनुत्तमम्) अनुत्तम अर्थात् घटिया (अव्ययम्) अविनाशी (परम् भावम्) विशेष भाव को (अजानन्तः) न जानते हुए (माम् अव्यक्तम्) मुझ अव्यक्त को (व्यक्तिम्) मनुष्य रूप में (आपन्नम) आया (मन्यन्ते) मानते हैं अर्थात् मैं कृष्ण नहीं हूँ। (गीता अध्याय 7 श्लोक 24) गीता अध्याय 11 श्लोक 47 तथा 48 में कहा है कि यह मेरा वास्तविक काल रूप है। इसके दर्शन अर्थात् ब्रह्म प्राप्ति न वेदों में वर्णित विधि से, न जप से, न तप से तथा न किसी क्रिया से हो सकती है। जब तीनों बच्चे युवा हो गए तब माता भवानी (प्रकृति, अष्टगी) ने कहा कि तुम सागर मन्थन करो।
प्रथम बार सागर मन्थन किया तो (ज्योति निरंजन ने अपने श्वांसों द्वारा चार वेद उत्पन्न किए। उनको गुप्त वाणी द्वारा आज्ञा दी कि सागर में निवास करो) चारों वेद निकले वह ब्रह्मा ने लिए। वस्तु लेकर तीनों बच्चे माता के पास आए तब माता ने कहा कि चारों वेदों को ब्रह्मा रखे व पढ़े।
प्रथम बार सागर मन्थन किया तो (ज्योति निरंजन ने अपने श्वांसों द्वारा चार वेद उत्पन्न किए। उनको गुप्त वाणी द्वारा आज्ञा दी कि सागर में निवास करो) चारों वेद निकले वह ब्रह्मा ने लिए। वस्तु लेकर तीनों बच्चे माता के पास आए तब माता ने कहा कि चारों वेदों को ब्रह्मा रखे व पढ़े।
नोट :- वास्तव में पूर्णब्रह्मा ने, ब्रहम अर्थात काल को पाँच वेद प्रदान किए थे। लेकिन ब्रह्म ने केवल चार वेदों को प्रकट किया। पाँचवां वेद छुपा दिया। जो पूर्ण परमात्मा ने प्रकट होकर कविगिंभीं:रवय अर्थात् कविर्वाणी (कबीर वाणी) द्वारा लोकोक्तियों व दोहों के माध्यम से प्रकट किया है।
दूसरी बार सागर मन्थन किया तो तीन कन्याएँ मिली। माता ने तीनों को बांट दिया। प्रकृति (दुर्गा) ने अपने ही अन्य तीन रूप (सावित्री, लक्ष्मी तथा पार्वती) धारण किए तथा समुन्द्र में छुपा दी। सागर मन्थन के समय बाहर आ गई। वही प्रकृति तीन रूप हुई तथा भगवान ब्रह्ममा को सावित्री, भगवान विष्णु को लक्ष्मी, भगवान शंकरको पार्वती पत्नी रूप में दी। तीनों ने भोग विलास किया, सुर तथा असुर दोनों पैदा हुए।{
जब तीसरी बार सागर मन्थन किया तो चौदह रत्न ब्रहमा को तथा अमृत विष्णुको व देवताओं को, मद्य(शराब) असुरों को तथा विष परमार्थ शिव ने अपने कटमें ठहराया। यह तो बहुत बाद की बात है।}
जब ब्रह्मा वेद पढ़ने लगा तो पता चला कि कोई सर्व ब्रह्माण्डों की रचना करने वाला कुल का मालिक पुरूष (प्रभु) और है। ब्रह्मा जी ने विष्णु जी व शंकर जी को बताया कि वेदों में वर्णन है कि सृजनहार कोई और प्रभु है परन्तु वेद कहते हैं कि भेद हम भी नहीं जानते, उसके लिए संकेत है कि किसी तत्वदर्शी संत से पूछो। तब ब्रह्मा माता के पास आया और सब वृतांत कह सुनाया। माता कहा करती थी कि मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं है। मैं ही कर्ता हूँ। मैं ही सर्वशक्तिमान हूँ परन्तु ब्रह्मा ने कहा कि वेद ईश्वर कृत हैं यह झूठ नहीं हो सकते। दुर्गा ने कहा कि तेरा पिता तुझे दर्शन नहीं देगा, उसने प्रतिज्ञा की हुई है। तब ब्रह्मा ने कहा माता जी अब आप की बात पर अविश्वास हो गया है। मैं उस पुरूष (प्रभु) का पता लगाकर ही रहूँगा। दुर्गा ने कहा कि यदि वह तुझे दर्शन नहीं देगा तो तुम क्या
करोगे? ब्रह्मा ने कहा कि मैं आपको शक्ल नहीं दिखाऊँगा। दूसरी तरफ ज्योति निरंजन ने कसम खाई है कि मैं अव्यक्त रहूँगा किसी को दर्शन नहीं दूंगा अथर्थात् 21 ब्रह्माण्ड में कभी भी अपने वास्तविक काल रूप में आकार में नहीं आऊँगा।
गीता अध्याय नं. 7 का श्लोक नं. 24
गीता अध्याय नं. 7 का श्लोक नं. 24
अव्यक्तम्, व्यक्तितम्, आपन्नम्, मन्यन्ते, माम्, अबुद्धय: ।
परम्, भावम्, अजानन्त:, मम, अव्ययम्, अनुत्तमम् | 124 ||
अनुवाद : (अबुद्धय) बुद्धिहीन लोग (मम्) मेरे (अनुतमम्) अश्रेष्ठ (अव्य म्) अटल (परम्) परम (भावम्) भावको (अजानन्तः) न जानते हुए (अव्यक्तम्) अदृश्यमान (माम्) मुझ कालको (व्यक्तितम) आकार में कृष्ण अवतार (आपन्नम्) प्राप्त हुआ (मन्यन्ते) मानते हैं।
गीता अध्याय नं. 7 का शलाक नं. 25
न, अहम्, प्रकाश:, सर्वस्य, यागमायारसमावत: ।
मूढ: अयम्, न, अभिजानाति, लोक:, माम्, अजम्, अव्य म् ||25 ||
अनुवाद : (अहम्) मैं (योगमाया समावृत) योगमायासे छिपा हुआ (सर्वस्य) सबके (प्रकाश) प्रत्यक्ष (न) नहीं होता अर्थात् अदृश्य अर्थात् अव्यक्त रहता हूँ इसलिये (अजम्) जन्म न लेने वाले (अव्य म्) अविनाशी अटल भावको (अयम्) यह (मूढ:) अज्ञानी (लोक) जनसमुदाय संसार (माम्) मुझे (न) नहीं (अभिजानाति) जानता अर्थात् मुझको अवतार रूप में आया समझता है |
क्योंकि ब्रह्म अपनी शब्द शक्ति से अपने नाना रूप बना लेता है, यह दुर्गा का पति है इसलिए इस मंत्र में कह रहा है कि कृष्ण आदि की तरह दुर्गा से जन्म नहीं लेता। *ब्रह्मा का अपने पिता (काल/ब्रह्म) की प्राप्ति के लिए प्रयत्न* तब दुर्गा ने ब्रह्मा जी से कहा कि अलख निंरजन तुम्हारा पिता है परन्तु वह तुम्हें दर्शन नहीं देगा। ब्रह्मा ने कहा कि मैं दर्शन करके ही लौटूगा। माता ने पूछा कि यदि तुझे दर्शन नहीं हुए तो क्या करेगा ? ब्रह्मा ने कहा मैं प्रतिज्ञा करता हूँ। यदि पिता के दर्शन नहीं हुए तो मैं आपके समक्ष नहीं आऊंगा। यह कह कर ब्रह्मा जी व्याकुल होकर उत्तर दिशा की तरफ चल दिया जहाँ अन्धेरा ही अन्धेरा है। वहाँ ब्रह्मा ने चार युग तक ध्यान लगाया परन्तु कुछ भी प्राप्ति नहीं हुई। काल ने आकाशवाणी की कि दुर्गा सृष्टी रचना क्यों नहीं की ? भवानी ने कहा कि आप का ज्येष्ठ पुत्र ब्रह्मा जिद्द करके आप की तलाश में गया है। ब्रह्म (काल) ने कहा उसे वापिस बुला लो। मैं उसे दर्शन नहीं दूंगा। ब्रह्मा के बिना जीव उत्पति का सब कार्य असम्भव है।
तब दुर्गा (प्रकृति) ने अपनी शब्द शक्ति से गायत्री नाम की लड़की उत्पन्न की तथा उसे ब्रह्मा को लौटा लाने को
क्योंकि ब्रह्म अपनी शब्द शक्ति से अपने नाना रूप बना लेता है, यह दुर्गा का पति है इसलिए इस मंत्र में कह रहा है कि कृष्ण आदि की तरह दुर्गा से जन्म नहीं लेता। *ब्रह्मा का अपने पिता (काल/ब्रह्म) की प्राप्ति के लिए प्रयत्न* तब दुर्गा ने ब्रह्मा जी से कहा कि अलख निंरजन तुम्हारा पिता है परन्तु वह तुम्हें दर्शन नहीं देगा। ब्रह्मा ने कहा कि मैं दर्शन करके ही लौटूगा। माता ने पूछा कि यदि तुझे दर्शन नहीं हुए तो क्या करेगा ? ब्रह्मा ने कहा मैं प्रतिज्ञा करता हूँ। यदि पिता के दर्शन नहीं हुए तो मैं आपके समक्ष नहीं आऊंगा। यह कह कर ब्रह्मा जी व्याकुल होकर उत्तर दिशा की तरफ चल दिया जहाँ अन्धेरा ही अन्धेरा है। वहाँ ब्रह्मा ने चार युग तक ध्यान लगाया परन्तु कुछ भी प्राप्ति नहीं हुई। काल ने आकाशवाणी की कि दुर्गा सृष्टी रचना क्यों नहीं की ? भवानी ने कहा कि आप का ज्येष्ठ पुत्र ब्रह्मा जिद्द करके आप की तलाश में गया है। ब्रह्म (काल) ने कहा उसे वापिस बुला लो। मैं उसे दर्शन नहीं दूंगा। ब्रह्मा के बिना जीव उत्पति का सब कार्य असम्भव है।
तब दुर्गा (प्रकृति) ने अपनी शब्द शक्ति से गायत्री नाम की लड़की उत्पन्न की तथा उसे ब्रह्मा को लौटा लाने को
कहा। गायत्री ब्रह्मा जी के पास गई परंतु ब्रह्मा जी समाधि लगाए हुए थे उन्हें कोई आभास ही नहीं था कि कोई आया है। तब आदि कुमारी (प्रकृति) ने गायत्री को ध्यान द्वारा बताया कि इस के चरण स्पर्श कर। तब गायत्री ने ऐसा ही किया। ब्रह्मा जी का ध्यान भंग हुआ तो क्रोध वश बोले कि कौन पापिन है जिसने मेरा ध्यान भंग किया है।
मैं तुझे शाप दूंगा। गायत्री कहने लगी कि मेरा दोष नहीं है। पहले मेरी बात सुनो तब शाप देना। मेरे को माता ने तुम्हें लौटा लाने को कहा है क्योंकि आपके बिना जीव उत्पत्ति नहीं हो सकती। ब्रह्मा ने कहा कि मैं कैसे जाऊँ? पिता जी के दर्शन हुए नहीं ऐसे जाऊँ तो मेरा उपहास होगा।
यदि आप माता जी के समक्ष यह कह दें कि ब्रह्मा ने पिता (ज्योति निरंजन) के दर्शन हुए हैं, मैंने अपनी आँखो से देखा है तो मैं आपके साथ चलू। तब गायत्री ने कहा कि आप मेरे साथ संभोग (सैक्स) करोगे तो मैं आपकी झूठी साक्षी (गवाही) भरूंगी। तब ब्रह्मा ने सोचा कि पिता के दर्शन हुए नहीं, वैसे जाऊँ तो माता के सामने शर्म लगेगी और चारा नहीं दिखाई दिया, फिर गायत्री से रति क्रिया (संभोग) की। तब गायत्री ने कहा कि क्यों न एक गवाह और तैयार किया जाए। ब्रह्मा ने कहा बहुत ही अच्छा है। तब गायत्री ने शब्द शक्ति से एक लड़की (पुहपवति नाम की) पैदा की तथा उससे दोनों ने कहा कि आप गवाही देना कि ब्रह्मा ने पिता के दर्शन किए हैं। तब पुहपवति ने कहा कि मैं क्यों झूठी गवाही दूं ? हाँ, यदि ब्रह्मा मेरे से रति क्रिया (संभोग) करे तो गवाही दे सकती हूँ। गायत्री ने ब्रह्मा को समझाया (उकसाया) कि और कोई चारा नहीं है तब ब्रह्मा ने पुहपवति से संभोग किया तो तीनों मिलकर आदि माया (प्रकृति) के पास आए। दोनों देवियों ने उपरोक्त शत इसलिए रखी थी कि यदि ब्रह्मा माता के सामने हमारी झूठी गवाही को बता देगा तो माता हमें शाप दे देगी। इसलिए उसे भी दोषी बना लिया।
यदि आप माता जी के समक्ष यह कह दें कि ब्रह्मा ने पिता (ज्योति निरंजन) के दर्शन हुए हैं, मैंने अपनी आँखो से देखा है तो मैं आपके साथ चलू। तब गायत्री ने कहा कि आप मेरे साथ संभोग (सैक्स) करोगे तो मैं आपकी झूठी साक्षी (गवाही) भरूंगी। तब ब्रह्मा ने सोचा कि पिता के दर्शन हुए नहीं, वैसे जाऊँ तो माता के सामने शर्म लगेगी और चारा नहीं दिखाई दिया, फिर गायत्री से रति क्रिया (संभोग) की। तब गायत्री ने कहा कि क्यों न एक गवाह और तैयार किया जाए। ब्रह्मा ने कहा बहुत ही अच्छा है। तब गायत्री ने शब्द शक्ति से एक लड़की (पुहपवति नाम की) पैदा की तथा उससे दोनों ने कहा कि आप गवाही देना कि ब्रह्मा ने पिता के दर्शन किए हैं। तब पुहपवति ने कहा कि मैं क्यों झूठी गवाही दूं ? हाँ, यदि ब्रह्मा मेरे से रति क्रिया (संभोग) करे तो गवाही दे सकती हूँ। गायत्री ने ब्रह्मा को समझाया (उकसाया) कि और कोई चारा नहीं है तब ब्रह्मा ने पुहपवति से संभोग किया तो तीनों मिलकर आदि माया (प्रकृति) के पास आए। दोनों देवियों ने उपरोक्त शत इसलिए रखी थी कि यदि ब्रह्मा माता के सामने हमारी झूठी गवाही को बता देगा तो माता हमें शाप दे देगी। इसलिए उसे भी दोषी बना लिया।
(यहाँ महाराज गरीबदास जी कहते हैं कि –“दास गरीब यह चूक धुरों धुर')
*"माता (दुर्गा) द्वारा ब्रह्मा को शाप देना*
तब माता ने ब्रह्मा से पूछा क्या तुझे तेरे पिता के दर्शन हुए? ब्रह्मा ने कहा हाँ मुझेपिता के दर्शन हुए हैं। दुर्गा ने कहा साक्षी बता। तब ब्रह्मा ने कहा इन दोनों के समक्ष साक्षात्कार हुआ है। देवी ने उन दोनों लड़कियों से पूछा क्या तुम्हारे सामने ब्रह्म का साक्षात्कार हुआ है तब दानों ने कहा कि हाँ, हमने अपनी आँखों से देखा है। फिर भवानी (प्रकृति) को संशय हुआ कि मुझे तो ब्रह्म ने कहा था कि मैं किसी को दर्शन नहीं दूंगा, परन्तु ये कहते हैं कि दर्शन हुए हैं। तब अष्टगी ने ध्यान लगाया और काल/ज्योति निरंजन से पूछा कि यह क्या कहानी है? ज्योति निंरजन जी ने कहा कि ये तीनों झूठ बोल रहे हैं। तब माता ने कहा तुम झूठ बोल रहे हो। आकाशवाणी हुई है कि इन्हें कोई दर्शन नहीं हुए। यह बात सुनकर ब्रहमा ने कहा कि माता जी मैं सौगंध खाकर पिता की तलाश करने गया था। परन्तु पिता (ब्रह्म) के दर्शन हुए नहीं। आप के पास आने में शर्म लग रही थी। इसलिए हमने झूठ बोल दिया। तब माता (दुर्गा) ने कि अब मैं तुम्हें शाप देती हूँ।
ब्रह्मा को शाप : - तेरी पूजा जग में नहीं होगी। आगे तेरे वंशज होंगे वे बहुत पाखण्ड करेंगे। झूठी बात बना कर जग को दजगांग । ऊपर से तो कर्म काण्ड करते दिखाई देंगे अन्दर से विकार करेंगे। कथा पुराणों को पढ़कर सुनाया करेंगे, स्वयं को ज्ञान नहीं होगा कि सद्ग्रन्थों में वास्तविकता क्या है, फिर भी मान वश तथा धन प्राप्ति के लिए गुरु बन कर अनुयाइयों को लोकवेद (शास्त्र विरुद्ध दंत कथा) सुनाया करेंगे। देवी-देवों की पूजा करके तथा करवाके, दूसरों की निन्दा करके कष्ट पर कष्ट उठायेंगे। जो उनके अनुयाई होंगे उनको परमार्थ नहीं बताएंगे। दक्षिणा के लिए जगत को गुमराह करते रहेंगे। अपने आपको सबसे अच्छा मानेंगे, दूसरों को नीचा समझेगे। जब माता के मुख से यह सुना तो ब्रह्मा मुछित होकर जमीन पर गिर गया। बहुत समय उपरान्त होश में आया।
इस प्रकार तीनों को शाप देकर माता भवानी बहुत पछताई। {इस प्रकार पहले तो जीव बिना सोचे मन (काल निरंजन) के प्रभाव से गलत कार्य कर देता है परन्तु जब आत्मा (सतपुरूष अंश) के प्रभाव से उसे ज्ञान होता है तो पीछे पछताना पड़ता है। जिस प्रकार माता-पिता अपने बच्चों को छोटी सी गलती के कारण ताड़ते हैं (क्रोधवश होकर) परन्तु बाद में बहुत पछताते हैं। यही प्रक्रिया मन (काल-निंरजन) के प्रभाव से सर्व जीवों में क्रियावान हो रही है।)}
हाँ, यहाँ एक बात विशेष है कि निरंजन (काल-ब्रह्म) ने भी अपना कानून बना रखा है कि यदि कोई जीव किसी दुर्बल जीव को सताएगा तो उसे उसका बदला देना पड़ेगा। जब आदि भवानी (प्रकृति, अष्टगी) ने ब्रहमा, गायत्री व पुहपवति को शाप दिया तो अलख निंरजन (ब्रह्म-काल) ने कहा कि हे भवानी (प्रकृति/अष्टगी) यह आपने अच्छा नहीं किया। अब मैं (निरंजन) आपको शाप देता हूँ कि द्वापर युग में तेरे भी पाँच पति होंगे। (द्रोपदी ही आदिमाया का अवतार हुई है।) जब यह आकाश वाणी सुनी तो आदि माया ने कहा कि हे ज्योति निंरजन (काल) मैं तेरे वश पड़ी हूँ जो चाहे सो कर ले।
गायत्री को शाप : - तेरे कई सांड पति होंगे। तू मृतलोक में गाय बनेगी। पुहपवति को शाप : - तेरी जगह गंदगी में होगी। तेरे फूलों को कोई पूजा में नहीं लाएगा। इस झूठी गवाही के कारण तुझे यह नरक भोगना होगा। तेरा नाम केवड़ा केतकी होगा। (हरियाणा में कुसोंधी कहते हैं। यह गंदगी (कुरड़ियों) वाली जगह पर होती है।)
*विष्णु का अपने पिता (काल/ब्रहम ) की प्राप्ति के लिए प्रस्थान*
व माता का आशीर्वाद पाना इसके बाद विष्णु से प्रकृति ने कहा कि पुत्र तू भी अपने पिता का पता लगा ले। तब विष्णु अपने पिता जी काल (ब्रह्म) का पता करते-करते पाताल लोक में चले गए, जहाँ शेषनाग था। उसने विष्णु को अपनी सीमा में प्रविष्ट होते देख कर क्रोधित हो कर जहर भरा फटकारा मारा। उसके विष के प्रभाव से विष्ण जी का रंग सांवला हो गया, जैसे स्प्रे पेंट हो जाता है। तब विष्णु ने चाहा कि इस नाग को मजा चखाना चाहिए। तब ज्योति निरंजन (काल) ने देखा कि अब विष्णु को शांत करना चाहिए। तब आकाशवाणी हुई कि विष्णु अब तू अपनी माता जी के पास जा और सत्य-सत्य सारा विवरण बता देना तथा जो कष्ट आपको शेषनाग से हुआ है, इसका प्रतिशोध द्वापर युग में लेना। द्वापर युग में आप (विष्णु) तो कृष्ण अवतार धारण करोगे और
कालीदह में कालिन्दी नामक नाग, शेष नाग का अवतार होगा।
ऊँच होई के नीच सतावै, ताकर ओएल (बदला) मोही सों पावै।
ऊँच होई के नीच सतावै, ताकर ओएल (बदला) मोही सों पावै।
जो जीव देई पीर पुनी कॉहु, हम पुनि ओएल दिवावें ताहूँ।
तब विष्णु जी माता जी के पास आए तथा सत्य-सत्य कह दिया कि मुझे पिता के दर्शन नहीं हुए। इस बात से माता (प्रकृति) बहुत प्रसन्न हुई और कहा कि पुत्र तू सत्यवादी है। अब मैं अपनी शक्ति से आपको तेरे पिता से मिलाती हूँ तथा तेरे मन का संशय खत्म करती हूँ।
कबीर देख पुत्र तोहि पिता भीटाऊँ, तौरे मन का धोखा मिटाऊँ।
कबीर देख पुत्र तोहि पिता भीटाऊँ, तौरे मन का धोखा मिटाऊँ।
मन स्वरूप कर्ता कह जानों, मन ते दूजा और न मानो।
स्वर्ग पाताल दौर मन केरा, मन अस्थीर मन अहै । अनेरा।
निंरकार मन ही को कहिए, मन की आस निश दिन रहिए।
देख हूँ पलटि सुन्य मह ज्योति, जहाँ पर झिलमिल झालर होती।
इस प्रकार माता (अष्टगी, प्रकृति) ने विष्णु से कहा कि मन ही जग का कर्ता है,यही ज्योति निरंजन है। ध्यान में जो एक हजार ज्योतियाँ नजर आती हैं वहीं उसका रूप है। जो शंख, घण्टा आदि का बाजा सुना, यह महास्वर्ग में निरंजन का ही बज रहा है। तब माता (अष्टगी, प्रकृति) ने कहा कि हे पुत्र तुम सब देवों के सरताज हो और तेरी हर कामना व कार्य मैं पूर्ण करूंगी। तेरी पूजा सर्व जग में होगी। आपने मुझे सच-सच बताया है। काल के इक्कीस ब्रह्मण्ड़ों के प्राणियों की विशेष आदत है कि अपनी व्यर्थ महिमा बनाता है। जैसे दुर्गा जी श्री विष्णु जी को कह रही है कि तेरी पूजा जग में होगी। मैंने तुझे तेरे पिता के दर्शन करा दिए। दुर्गा ने केवल प्रकाश दिखा कर श्री विष्णु जी को बहका दिया। श्री विष्णु जी भी प्रभु की यही स्थिति अपने अनुयाइयों को समझाने लगे कि परमात्मा का केवल प्रकाश दिखाई देता है। परमात्मा निराकार है।
इसके बाद आदि भवानी रूद्र (महेश जी) के पास गई तथा कहा कि महेश तू भी कर ले अपने पिता की खोज तेरे दोनों भाइयों को तो तुम्हारे पिता के दर्शन नहीं हुए उनको जो देना था वह प्रदान कर दिया है। अब आप माँगो जो माँगना है। तब महेश ने कहा कि हे जननी ! मेरे दोनों बड़े भाईयों को पिता के दर्शन नहीं हुए फिर प्रयत्न करना व्यर्थ है। कृपा मुझे ऐसा वर दो कि मैं अमर (मृत्युजय) हो जाऊँ। तब माता ने कहा कि यह मैं नहीं कर सकती। हाँ युक्ति बता सकती हूँ, जिससे तेरी आयु सबसे अधिक होगी. तब दुर्गा ने शिवजी को योग समाधि बिधि बताई कि बेटा अपनी श्वासौ को 10 वे द्वार में स्थित करो जिससे तेरी श्वास की गति कम हो जायेगी.क्युकी श्वासौं से सभी की उम्र निर्धारित होती है.
आपने इसको पूरा पढा.
आपका धन्यवाद
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Wednesday, April 19, 2017
Tuesday, April 18, 2017
Wednesday, April 12, 2017
मनमे उठे कु भाव को ख़त्म कैसे_करे???
एक भक्त ने सतगुरु जी से पूछा कि : “गुरुवर, मै इतना प्रभुनाम लेता हूँ, धर्म चर्चा करता हूँ, चिंतन-मनन करता हूँ, सभी नित्य नियम भी करता हु। फिर भी समय-समय पर मेरे मन में कुभाव क्यों उठते है?”
सतगुरु देव जी साधक को समझाते हुए बोले :
“एक आदमी ने एक कुत्ता पाल रखा था। वह रात-दिन उसी को लेकर मग्न रहता, कभी उसे गोद में लेता तो कभी उसके मुँह में मुँह लगाकर बैठा रहता था। उसके इस मूर्खतापूर्ण आचरण को देख एक दिन किसी जानकार व्यक्ति ने उसे यह समझाकर सावधान किया कि ‘कुत्ते का इतना लाड-दुलार नहीं करना चाहिए, आखिर जानवर की ही जात ठहरी, न जाने किस दिन लाड करते समय काट खाए।’
इस बात ने उस आदमी के मन में घर कर लिया। उसने उसी समय कुत्ते को गोद में से फेंक दिया और मन में प्रतिज्ञा कर ली कि अब कभी कुत्ते को गोद में नहीं लेगा । पर भला कुत्ता यह कैसे समझे ! वह तो मालिक को देखते ही दौड़कर उसकी गोद पर चढ़ने लगता। आखिर मालिक को कुछ दिनोंतक उसे पीट-पीट कर भगाना पड़ा तब कंही उसकी यह आदत छूटी।
गुरु जी ने कहा- तुम लोग भी वास्तव मे ऐसे ही हो । जिस कुत्ते(कुभाव,बिकार) को तुम इतने दीर्घ – काल तक छाती से लगाते आये हो उस से अब अगर तुम छुटकारा पाना भी चाहो तो वह भला तुन्हें इतनी आसानी से कैसे छोड़ सकता है ? अब से तुम उसका लाड करना छोड़ दो और अगर वह तुम्हारी गोद में चढने आए तो उसकी अच्छी तरह से मरम्मत करो। ऐसा करने से कुछ ही दिनों के अन्दर तुम उससे पूरी तरह छुटकारा पा जाओगे।”
बिशेष:- मित्र अगर कभी भी आपके मनमे कोई भी कुभाव,बिकार उत्पन्न हो जाये तो आप उसको तत्वज्ञान रूपी तलवार से डराओ,धमकाओ,अच्छी तरह से मरमत करो। फिर देखना कुछ ही दिनो में वही शैतान रूपी मन आपका बहोत अच्छी मित्र बन जायेगा और सदैब आपको सही रास्ता,सकारात्मक बिचार,और अच्छी ब्याहवार में परिवर्तन कर देगा । फिर परमात्मा की चिंतन,भक्ति करने में सहयोग करेंगे।
अगर आप अभी से ही खुद को मिटी से स्वर्ण में परिवर्तन करना चाहते हे तो ...आप इस अनमोल पुस्तक ज्ञान गंगा का ज्ञान गहराई से अवश्य ग्रहण करे। !!सत् साहेब!!
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सतगुरु देव जी साधक को समझाते हुए बोले :
“एक आदमी ने एक कुत्ता पाल रखा था। वह रात-दिन उसी को लेकर मग्न रहता, कभी उसे गोद में लेता तो कभी उसके मुँह में मुँह लगाकर बैठा रहता था। उसके इस मूर्खतापूर्ण आचरण को देख एक दिन किसी जानकार व्यक्ति ने उसे यह समझाकर सावधान किया कि ‘कुत्ते का इतना लाड-दुलार नहीं करना चाहिए, आखिर जानवर की ही जात ठहरी, न जाने किस दिन लाड करते समय काट खाए।’
इस बात ने उस आदमी के मन में घर कर लिया। उसने उसी समय कुत्ते को गोद में से फेंक दिया और मन में प्रतिज्ञा कर ली कि अब कभी कुत्ते को गोद में नहीं लेगा । पर भला कुत्ता यह कैसे समझे ! वह तो मालिक को देखते ही दौड़कर उसकी गोद पर चढ़ने लगता। आखिर मालिक को कुछ दिनोंतक उसे पीट-पीट कर भगाना पड़ा तब कंही उसकी यह आदत छूटी।
गुरु जी ने कहा- तुम लोग भी वास्तव मे ऐसे ही हो । जिस कुत्ते(कुभाव,बिकार) को तुम इतने दीर्घ – काल तक छाती से लगाते आये हो उस से अब अगर तुम छुटकारा पाना भी चाहो तो वह भला तुन्हें इतनी आसानी से कैसे छोड़ सकता है ? अब से तुम उसका लाड करना छोड़ दो और अगर वह तुम्हारी गोद में चढने आए तो उसकी अच्छी तरह से मरम्मत करो। ऐसा करने से कुछ ही दिनों के अन्दर तुम उससे पूरी तरह छुटकारा पा जाओगे।”
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Tuesday, April 11, 2017
भक्ति का दिखाई देना वह धुन सुनाई देना।
सत साहेब
जय हो बन्दी छोड सत गुरु रामपाल जी महाराज कि जय हो
Tuesday, March 21, 2017
परमेश्वर कि भक्ति के लिए साधना करनी अनिवार्य हैं
यज्ञ अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान :-
यज्ञ कई प्रकार की हैं। जैसे :-
1-धर्म यज्ञ :- धार्मिक भण्डारे करना, धर्मशाला, प्याऊ आदि बनवाना।
2-ध्यान यज्ञ :- परमेश्वर में अटूट मन लगाना संत मत की ध्यान यज्ञ है। कुछ व्यक्तियों ने इसको अंग्रेजी में मेडिटेशन कहकर इसकी परिभाषा ही बदल डाली। उनका मानना है अर्थात् सिद्धांत है कि एकांत स्थान में बैठकर आँखें बंद करके विचार शुन्य हो जाना मेडिटेशन है। यह योगासन का एक अंग कहा है। वे मानते हैं कि इससे कई शारीरिक उपचार होते हैं। विचार करें यह तो एक व्यायाम है जो दिमाग के लिए की जाती है। संत मत में जो ध्यान है, वह परमात्मा की प्राप्ति की तड़फ में प्रति क्षण उसी की याद बनी रहे जैसे चिंता (टैंशन) होती है तो पल-पल मन उसी केन्द्र पर केन्द्रित हो जाता है। कोशिश करने पर भी नहीं हटता। ठीक ऐसे परमात्मा की चिंता जो चिंतन कहा जाता है, संत-मत का ध्यान यज्ञ है।
3-हवन यज्ञ :- इस यज्ञ को कई प्रकार से करते हैं :- जो अपने आपको वेदवित् कहते हैं, वे हवन कुण्ड बनाते हैं या वैसे पृथ्वी को लीपकर शुद्ध करके लकड़ियाँ जलाकर, गाय या भैंस का घी डालकर वेद के कुछ मंत्रा बोलते हैं। इस प्रकार हवन यज्ञ करते हैं।
-> कुछ व्यक्ति केवल धूप अगरबत्ती जलाकर ही हवन करते हैं। धूप या अगरबत्ती को घी से बनी मानते हैं।
-> कुछ व्यक्ति कुछ जड़ी-बूटियों को कूटकर घी में मिलाकर अग्नि के अंगारों के ऊपर डालकर हवन यज्ञ करते हैं।
विचार करें :- प्रत्येक साधक को अपने सद्ग्रन्थों में वर्णित भक्ति कर्म ही करने चाहिऐं। श्रीमद् भगवत गीता अध्याय
16 श्लोक 23.24 में भी यही कहा है कि जो साधक शास्त्राविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, उसको न कोई सुख प्राप्त होता है, न सिद्धि प्राप्त होती है और न ही उसकी गति होती है। (गीता अध्याय 16 श्लोक 23) इससे तेरे लिए अर्जुन! कर्तव्य अर्थात् जो भक्ति कर्म करने चाहिऐं और अकर्तव्य अर्थात् जो भक्ति कर्म नहीं करने चाहिऐं, उनके लिए शास्त्र ही प्रमाण हैं। (गीता अध्याय 16 श्लोक 24) भक्ति करने की साधना के सद्ग्रन्थ केवल वेद हैं।
वेद जो सँख्या में चार हैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद, इन्हीं चारों वेदों का सारांश श्रीमद् भगवत गीता है।
सूक्ष्म वेद :- यह वह वेद है जिसको परमेश्वर स्वयं पृथ्वी पर प्रकट होकर अपने मुख कमल से कवित्व से बोलकर सुनाते हैं। जिसको गीता अध्याय 4 श्लोक 32 तथा 34 के अनुसार तत्वज्ञान भी कहते हैं। वह संपूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान है, इसी के विषय में ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 मंत्र 26.27, मण्डल 9 सूक्त 82 मंत्र 1.2, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 20 मंत्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 94 मंत्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 95 मंत्र 2 और ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 17.18 में वर्णन है।
संत-मत :- संत-मत सूक्ष्मवेद पर आधारित है। जिसमें हवन यज्ञ का प्रावधान शुद्ध गाय या भैंस के घी का दीप जलाना है, इसको ‘ज्योति यज्ञ‘ कहा जाता है। इसी का समर्थन ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 मंत्र 10 में है कि साधक को ज्योति जलाकर हवन यज्ञ करना चाहिए। सूक्ष्मवेद की अमृतवाणी परमात्मा के श्री मुखकमल से उच्चारित होने के कारण अधिक प्रभाव करती हैं। हम ज्योति यज्ञ करते हैं तथा साधकों से करवाते हैं। सूक्ष्मवेद की आरती तथा अन्य वाणी बोलते हैं।
4- प्रणाम यज्ञ :- यह दो प्रकार की होती है :-
-> नमस्कार अर्थात् प्रणाम :- इसमें दोनों हाथ जोड़कर शीश झुकाकर नमस्कार, प्रणाम या नमस्ते शब्द बोला जाता है जो गणमान्य देवों व मनुष्यों के लिए है। गीता अध्याय 18 श्लोक 65 तथा अध्याय 9 श्लोक 14 तथा 34 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मुझे नमस्कार कर।
-> डण्डवत प्रणाम :- इसमें जमीन पर मुख के बल लेटकर हाथों को सिर के आगे सीधा जोड़कर दोनों पैरों को भी जोड़कर डण्डे की तरह सीधा रहकर प्रणाम या नमस्कार शब्द बोला जाता है। इसे डण्डवत प्रणाम या दण्डवत प्रणाम कहते हैं। यह केवल परम संत तथा पूर्ण परमात्मा को ही करना होता है जिसका प्रमाण गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में दिया है, कहा है कि जिस संत के पास सूक्ष्मवेद अर्थात् तत्वज्ञान है, उसको दण्डवत प्रणाम करो।
5-ज्ञान यज्ञ :- सद्ग्रन्थों का पठन-पाठन तथा संतों के विचार सुनना अर्थात् सत्संग सुनना-सुनाना ज्ञान यज्ञ कहलाता है। (ख) भक्ति की साधना में ‘नाम स्मरण‘ साधना भी है।
क्रमश:.....................
साभार: जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी के कर कमलों द्वारा अनुवादित यथार्थ भगती बोध
सत साहेब
यज्ञ कई प्रकार की हैं। जैसे :-
1-धर्म यज्ञ :- धार्मिक भण्डारे करना, धर्मशाला, प्याऊ आदि बनवाना।
2-ध्यान यज्ञ :- परमेश्वर में अटूट मन लगाना संत मत की ध्यान यज्ञ है। कुछ व्यक्तियों ने इसको अंग्रेजी में मेडिटेशन कहकर इसकी परिभाषा ही बदल डाली। उनका मानना है अर्थात् सिद्धांत है कि एकांत स्थान में बैठकर आँखें बंद करके विचार शुन्य हो जाना मेडिटेशन है। यह योगासन का एक अंग कहा है। वे मानते हैं कि इससे कई शारीरिक उपचार होते हैं। विचार करें यह तो एक व्यायाम है जो दिमाग के लिए की जाती है। संत मत में जो ध्यान है, वह परमात्मा की प्राप्ति की तड़फ में प्रति क्षण उसी की याद बनी रहे जैसे चिंता (टैंशन) होती है तो पल-पल मन उसी केन्द्र पर केन्द्रित हो जाता है। कोशिश करने पर भी नहीं हटता। ठीक ऐसे परमात्मा की चिंता जो चिंतन कहा जाता है, संत-मत का ध्यान यज्ञ है।
3-हवन यज्ञ :- इस यज्ञ को कई प्रकार से करते हैं :- जो अपने आपको वेदवित् कहते हैं, वे हवन कुण्ड बनाते हैं या वैसे पृथ्वी को लीपकर शुद्ध करके लकड़ियाँ जलाकर, गाय या भैंस का घी डालकर वेद के कुछ मंत्रा बोलते हैं। इस प्रकार हवन यज्ञ करते हैं।
-> कुछ व्यक्ति केवल धूप अगरबत्ती जलाकर ही हवन करते हैं। धूप या अगरबत्ती को घी से बनी मानते हैं।
-> कुछ व्यक्ति कुछ जड़ी-बूटियों को कूटकर घी में मिलाकर अग्नि के अंगारों के ऊपर डालकर हवन यज्ञ करते हैं।
विचार करें :- प्रत्येक साधक को अपने सद्ग्रन्थों में वर्णित भक्ति कर्म ही करने चाहिऐं। श्रीमद् भगवत गीता अध्याय
16 श्लोक 23.24 में भी यही कहा है कि जो साधक शास्त्राविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, उसको न कोई सुख प्राप्त होता है, न सिद्धि प्राप्त होती है और न ही उसकी गति होती है। (गीता अध्याय 16 श्लोक 23) इससे तेरे लिए अर्जुन! कर्तव्य अर्थात् जो भक्ति कर्म करने चाहिऐं और अकर्तव्य अर्थात् जो भक्ति कर्म नहीं करने चाहिऐं, उनके लिए शास्त्र ही प्रमाण हैं। (गीता अध्याय 16 श्लोक 24) भक्ति करने की साधना के सद्ग्रन्थ केवल वेद हैं।
वेद जो सँख्या में चार हैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद, इन्हीं चारों वेदों का सारांश श्रीमद् भगवत गीता है।
सूक्ष्म वेद :- यह वह वेद है जिसको परमेश्वर स्वयं पृथ्वी पर प्रकट होकर अपने मुख कमल से कवित्व से बोलकर सुनाते हैं। जिसको गीता अध्याय 4 श्लोक 32 तथा 34 के अनुसार तत्वज्ञान भी कहते हैं। वह संपूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान है, इसी के विषय में ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 मंत्र 26.27, मण्डल 9 सूक्त 82 मंत्र 1.2, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 20 मंत्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 94 मंत्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 95 मंत्र 2 और ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 17.18 में वर्णन है।
संत-मत :- संत-मत सूक्ष्मवेद पर आधारित है। जिसमें हवन यज्ञ का प्रावधान शुद्ध गाय या भैंस के घी का दीप जलाना है, इसको ‘ज्योति यज्ञ‘ कहा जाता है। इसी का समर्थन ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 मंत्र 10 में है कि साधक को ज्योति जलाकर हवन यज्ञ करना चाहिए। सूक्ष्मवेद की अमृतवाणी परमात्मा के श्री मुखकमल से उच्चारित होने के कारण अधिक प्रभाव करती हैं। हम ज्योति यज्ञ करते हैं तथा साधकों से करवाते हैं। सूक्ष्मवेद की आरती तथा अन्य वाणी बोलते हैं।
4- प्रणाम यज्ञ :- यह दो प्रकार की होती है :-
-> नमस्कार अर्थात् प्रणाम :- इसमें दोनों हाथ जोड़कर शीश झुकाकर नमस्कार, प्रणाम या नमस्ते शब्द बोला जाता है जो गणमान्य देवों व मनुष्यों के लिए है। गीता अध्याय 18 श्लोक 65 तथा अध्याय 9 श्लोक 14 तथा 34 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मुझे नमस्कार कर।
-> डण्डवत प्रणाम :- इसमें जमीन पर मुख के बल लेटकर हाथों को सिर के आगे सीधा जोड़कर दोनों पैरों को भी जोड़कर डण्डे की तरह सीधा रहकर प्रणाम या नमस्कार शब्द बोला जाता है। इसे डण्डवत प्रणाम या दण्डवत प्रणाम कहते हैं। यह केवल परम संत तथा पूर्ण परमात्मा को ही करना होता है जिसका प्रमाण गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में दिया है, कहा है कि जिस संत के पास सूक्ष्मवेद अर्थात् तत्वज्ञान है, उसको दण्डवत प्रणाम करो।
5-ज्ञान यज्ञ :- सद्ग्रन्थों का पठन-पाठन तथा संतों के विचार सुनना अर्थात् सत्संग सुनना-सुनाना ज्ञान यज्ञ कहलाता है। (ख) भक्ति की साधना में ‘नाम स्मरण‘ साधना भी है।
क्रमश:.....................
साभार: जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी के कर कमलों द्वारा अनुवादित यथार्थ भगती बोध
सत साहेब
Sunday, March 5, 2017
अगर एक भगत आँप कि बजह से भगती छोड देगा तो उसका पाप का भागिदार कोन होगा ???
भगतो हालकी आपने सुने होन्गे कि पवन सन्जय को मलिक के औडिओ् \ लेटर से गुरु द्रोही बताये हुये । पर अब तो भगत हि गुरु होने लगे जिस्ने उस्कि बात नहि मानि उस को हि गुरु द्रोही बोल्देते हे । उस मे तनिक भि समय नहि लगता।
,
अगर एक भगत को कोइ सन्का उब्जि तो उन्का हल कर्ने के बजये । उतर दे कर भगतो को दृढ बनाने के बजये उन को गुरु द्रोही बता देना आसन हो गया । क्या मलिक ने आँप को आदेस दिया हे क्या किसि को गुरु द्रोही बता ने को ।
अगर एक भगत आँप कि बजह से भगती छोड देगा तो उसका पाप का भागिदार कोन होगा ???
,
भगतो क्या यहि साधु सङत हे क्या ?
क्या मलिक ने यहि सिखये थे क्या ?
क्या हम सब मलिक के बच्चे नहि हे क्या?
क्या आँप के कम जोरि किसि ने बता दि तो क्या वो गुरु द्रोही हुवा अवोर आँप के हम सफर ???
भगतो उतर जरुर देना !!!! अगर हम सब मालिक के बच्चे हे तो।।।।।
Thursday, February 23, 2017
Saturday, February 4, 2017
VERY VERY IMPORTANT SMS FOR ALL BHAKAT,S
सत साहेब।।
परमात्मा की वाणी है ....
चार पहर धंधे गया तीन पहर गया सोय,
एक पहर हरी नाम बिना मुक्ति कहा से होय
चार पहर धंधे गया तीन पहर गया सोय,
एक पहर हरी नाम बिना मुक्ति कहा से होय
परमात्मा ने दया की हम तुच्छ जीवो पर और एक पहर की भक्ति के विषय में समझाया कि वह एक पहर क्या है और एक पहर भी वह कोनसी भक्ति साधना है जिसके तन मन से कर लेने से भी इस कलयुग में मोक्ष संभव है।
1 पहर 3 घंटे का होता है, और 8 पहर में 24 घंटे अर्थात एक दिन रात होता है
जिसमे से 4 पहर अर्थात 8 घंटे का समय भक्त अपनी रोजी रोटी के लिये धंधे में व्यतीत कर देता है। 3 पहर अर्थात 9 घंटे भक्त रात्रि विश्राम में व्यतीत कर देता है अब भक्त के पास केवल 1 पहर अर्थात 3 घंटे बचे, और यदि एक पहर भी हमने भक्ति नहीं की तो परमेश्वर हमसे कैसे खुश होंगे।
1 पहर की भक्ति क्या है। परमपूज्य सतगुरु देव जी (संत शिरोमणि रामपाल जी महाराज जी) ने हमें..
सुबह का नित्य नियम जो 47:38 मिनट का है
दोपहर की असुर निकंदन रमैनी जो 16: 31 मिनटकी है।
संध्या आरती जो 35:44 मिनट की है
प्रथम मन्त्र जो 26:22 मिनट का है
प्रति दिन का सत्संग 1 घंटे सुनना सभी के लिए अति आवश्यक है।
सतनाम जोकि अजप्पा जाप बताया है मालिक ने वह तो सतगुरु के बताये अनुसार अनवरत चलता ही रहना चाहिए।
जब हम तीनो समय की आरती, मन्त्र व् 1 घंटे के सत्संग को काउंट करेंगे तो कुल समय 3 घंटे 5 मिनट 35 सेकंड अर्थात 1 पहर हो जाता है।
सतगुरु देव जी के बताए अनुसार सतलोक प्राप्ति के लिए यह 1 पहर की भक्ति मर्यादाओं के साथ अति आवश्यक है, और हमें उसी विधि से करनी होगी जो सर्वश्रेष्ठ विधि हमें सतगुरु देव जी ने बताई है। इस गंदे लोक में समय कभी नहीं मिलेगा, लेकिन प्रभु से बार बार विनती करके हमें तीनो गुणों से संघर्ष करते हुए समय निकालना पड़ेगा, क्योंकि सतगुरु ने हमें रास्ता बता दिया है अब उस पर चलने की हिम्मत हमें स्वयं ही करनी पड़ेगी,
यह massage भक्त बहन भाइयो के लिए एक प्रार्थना स्वरुप है कोई त्रुटि हुई हो तो दास सभी से क्षमा प्रार्थी है
परमात्मा के ज्ञान आधार व् भविष्य वाणियो के अनुसार लगातार बढ़ रही रज व् तम की डिग्री के प्रभाव व् विनाशकारी समय में यदि कोई बचाव का तरीका है तो सतगुरु देव जी के बताये अनुसार केवल उपरोक्त भक्ति विधि है।
सत साहेब।।
Wednesday, January 11, 2017
Wednesday, November 16, 2016
40 साल और 4 सालके भकती bhakti 40 sal and 4 sal ki
जीवन तो थोडा हि भाला जो सत सुमरन होए
लख बर्षका जिवना लेखे धरेना कोए
लख बर्षका जिवना लेखे धरेना कोए
Saturday, October 29, 2016
आज लग्या साहिब को भोग, दीन के टुकड़े पानी का !
आज लग्या साहिब को भोग, दीन के टुकड़े पानी का !
कोई जाग्या पुरबला भाग , सफल हुआ दिन जिंदगानी का !
कोई जाग्या पुरबला भाग , सफल हुआ दिन जिंदगानी का !
व्यंजन छतीसो ये नहीं चावें जो मिल ज्यावे रूचि रूचि पावे !!
प्रसाद अलूणा ये पा ज्यावे भाव लर देख प्राणी का !!
कोई जाग्या पुरबला भाग , सफल हुआ दिन जिंदगानी का !
प्रसाद अलूणा ये पा ज्यावे भाव लर देख प्राणी का !!
कोई जाग्या पुरबला भाग , सफल हुआ दिन जिंदगानी का !
सम्मन जी ने भोग लगाया, सर लड़के का काट के ल्याया
बंदी छोड़ ने तुरंत जिवाया पाया फल संत यजमानी का,
कोई जग्य पुरबला भाग सफल हुआ दिन जिंदगानी का !!
बंदी छोड़ ने तुरंत जिवाया पाया फल संत यजमानी का,
कोई जग्य पुरबला भाग सफल हुआ दिन जिंदगानी का !!
जिन भगतों के ये भोग लग ज्यावे , उनके तीनो तीनों ताप नसाये!
कोटि तीर्थ का फल वो पावे, लाभ ये संतो की वाणी का !!
कोई जग्य पुरब्ला भाग सफल हुआ दिन जिंदगानी का !
कोटि तीर्थ का फल वो पावे, लाभ ये संतो की वाणी का !!
कोई जग्य पुरब्ला भाग सफल हुआ दिन जिंदगानी का !
संतो की वाणी है अनमोल, इसे न समझ सके अनभल !
साहिब ने भेद दिया सब खोल, अपनी सतलोक राजधानिका!!
कोई जग्य पुरब्ला भाग सफल हुआ दिन जिंदगानी का !!
साहिब ने भेद दिया सब खोल, अपनी सतलोक राजधानिका!!
कोई जग्य पुरब्ला भाग सफल हुआ दिन जिंदगानी का !!
बलि राजा ने धरम किया था, हरी ने आ के दान लिया था !
पाताल लोक का राज दिया था, ऊँचा है दर्ज दानी का!
कोई जग्य पुरब्ला भाग सफल हुआ दिन जिंदगानी का !!
पाताल लोक का राज दिया था, ऊँचा है दर्ज दानी का!
कोई जग्य पुरब्ला भाग सफल हुआ दिन जिंदगानी का !!
धरमदास ने याग रचाई, बिन दर्शन नहीं जीवन गुसाई!!
दर्शन दे कर प्यास बुझाई, भाव लिया देख क़ुरबानी का !!
कोई जग्य पुरब्ला भाग सफल हुआ दिन जिंदगानी का !!
दर्शन दे कर प्यास बुझाई, भाव लिया देख क़ुरबानी का !!
कोई जग्य पुरब्ला भाग सफल हुआ दिन जिंदगानी का !!
रह्या क्यों मोह ममता में सोया, जगत में जीवन है दिन दोय !
पता न आवन हो के न होय, तेरे इस स्वास सैलानी का !
कोई जग्य पुरब्ला भाग, सफल हुआ दिन जिंदगानी का !१
पता न आवन हो के न होय, तेरे इस स्वास सैलानी का !
कोई जग्य पुरब्ला भाग, सफल हुआ दिन जिंदगानी का !१
जीव जो ना सतसंग में आया, भेद न उसे भजन का पाया !
गरीबदास को भी बावला बताया, के करले इस दुनिया सयानी का !!
कोई जग्य पुरब्ला भाग सफल हुआ दिन जिंदगानी का !!
गरीबदास को भी बावला बताया, के करले इस दुनिया सयानी का !!
कोई जग्य पुरब्ला भाग सफल हुआ दिन जिंदगानी का !!
साध सांगत से भेद जो पाया, गुरु रामदेवनन्द जी ने सफल बनाया !!
संत रामपाल को राह दिखाया, श्री धाम छुड़ानी का !!
कोई जाग्या पुरब्ला भाग सफल हुआ दिन जिंदगानी का!!
संत रामपाल को राह दिखाया, श्री धाम छुड़ानी का !!
कोई जाग्या पुरब्ला भाग सफल हुआ दिन जिंदगानी का!!
आज लग्या साहिब को भोग दीन के टुकड़े पानी का !
कोई जाग्या पुरब्ला भाग, सफल हुआ दीन जिंदगानी का !!
कोई जाग्या पुरब्ला भाग, सफल हुआ दीन जिंदगानी का !!
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