कबीर, जीव हने हिंसा करे, प्रकट पाप सिर होय।
निगम पुनि ऐसे पाप तें, भिस्त गया नहिं कोय।।1।।
कबीर, तिलभर मछली खायके, कोटि गऊ दे दान।
काशी करौंत ले मरे, तो भी नरक निदान।।2।।
कबीर, बकरी पाती खात है, ताकी काढी खाल।
जो बकरीको खात है, तिनका कौन हवाल।।3।।
कबीर, गला काटि कलमा भरे, कीया कहै हलाल।
साहब लेखा मांगसी, तब होसी कौन हवाल।।4।।
कबीर, दिनको रोजा रहत हैं, रात हनत हैं गाय।
यह खून वह वंदगी, कहुं क्यों खुशी खुदाय।।5।।
कबीर, कबिरा तेई पीर हैं, जो जानै पर पीर।
जो पर पीर न जानि है, सो काफिर बेपीर।।6।।
कबीर, खूब खाना है खीचडी, मांहीं परी टुक लौन।
मांस पराया खायकै, गला कटावै कौन।।7।।
कबीर, मुसलमान मारैं करदसो, हिंदू मारैं तरवार।
कहै कबीर दोनूं मिलि, जैहैं यमके द्वार।।8।।
कबीर, मांस अहारी मानव, प्रत्यक्ष राक्षस जानि।
ताकी संगति मति करै, होइ भक्ति में हानि।।9।।
कबीर, मांस खांय ते ढेड़ सब, मद पीवैं सो नीच।
कुलकी दुरमति पर हरै, राम कहै सो ऊंच।।10।।
कबीर, मांस मछलिया खात हैं, सुरापान से हेत।
ते नर नरकै जाहिंगे, माता पिता समेत।।11।।
गरीब, जीव हिंसा जो करते हैं, या आगे क्या पाप।
कंटक जुनी जिहान में, सिंह भेडि़या और सांप।।
झोटे बकरे मुरगे ताई। लेखा सब ही लेत गुसाईं।।
मग मोर मारे महमंता। अचरा चर हैं जीव अनंता।।
जिह्वा स्वाद हिते प्राना। नीमा नाश गया हम जाना।।
तीतर लवा बुटेरी चिडि़या। खूनी मारे बड़े अगडि़या।।
अदले बदले लेखे लेखा। समझ देख सुन ज्ञान विवेका।।
निगम पुनि ऐसे पाप तें, भिस्त गया नहिं कोय।।1।।
कबीर, तिलभर मछली खायके, कोटि गऊ दे दान।
काशी करौंत ले मरे, तो भी नरक निदान।।2।।
कबीर, बकरी पाती खात है, ताकी काढी खाल।
जो बकरीको खात है, तिनका कौन हवाल।।3।।
कबीर, गला काटि कलमा भरे, कीया कहै हलाल।
साहब लेखा मांगसी, तब होसी कौन हवाल।।4।।
कबीर, दिनको रोजा रहत हैं, रात हनत हैं गाय।
यह खून वह वंदगी, कहुं क्यों खुशी खुदाय।।5।।
कबीर, कबिरा तेई पीर हैं, जो जानै पर पीर।
जो पर पीर न जानि है, सो काफिर बेपीर।।6।।
कबीर, खूब खाना है खीचडी, मांहीं परी टुक लौन।
मांस पराया खायकै, गला कटावै कौन।।7।।
कबीर, मुसलमान मारैं करदसो, हिंदू मारैं तरवार।
कहै कबीर दोनूं मिलि, जैहैं यमके द्वार।।8।।
कबीर, मांस अहारी मानव, प्रत्यक्ष राक्षस जानि।
ताकी संगति मति करै, होइ भक्ति में हानि।।9।।
कबीर, मांस खांय ते ढेड़ सब, मद पीवैं सो नीच।
कुलकी दुरमति पर हरै, राम कहै सो ऊंच।।10।।
कबीर, मांस मछलिया खात हैं, सुरापान से हेत।
ते नर नरकै जाहिंगे, माता पिता समेत।।11।।
गरीब, जीव हिंसा जो करते हैं, या आगे क्या पाप।
कंटक जुनी जिहान में, सिंह भेडि़या और सांप।।
झोटे बकरे मुरगे ताई। लेखा सब ही लेत गुसाईं।।
मग मोर मारे महमंता। अचरा चर हैं जीव अनंता।।
जिह्वा स्वाद हिते प्राना। नीमा नाश गया हम जाना।।
तीतर लवा बुटेरी चिडि़या। खूनी मारे बड़े अगडि़या।।
अदले बदले लेखे लेखा। समझ देख सुन ज्ञान विवेका।।
गरीब, शब्द हमारा मानियो, और सुनते हो नर नारि।
जीव दया बिन कुफर है, चले जमाना हारि।।
अनजाने में हुई हिंसा का पाप नहीं लगता।
बन्दी छोड़ कबीर साहिब कहते हैं:
"इच्छा कर मारै नहीं, बिन इच्छा मर जाए।
जीव दया बिन कुफर है, चले जमाना हारि।।
अनजाने में हुई हिंसा का पाप नहीं लगता।
बन्दी छोड़ कबीर साहिब कहते हैं:
"इच्छा कर मारै नहीं, बिन इच्छा मर जाए।
कहैं कबीर तास का, पाप नहीं लगाए।।"