संध्या आरती
बंदी छोड़ कबीर साहेब द्वारा रचित आठ आरती
( 1 )
पहली आरती हरी दरबारे , तेज पुंज जहाँ प्राण उधारे । 1।
अर्थ_ सब से पहले मई परमेश्वर के दरबार में आरती करता हूँ । जहाँपर वह् प्रकाश स्वरूप परमेश्वर , सब प्राणियो का उद्धार करता है ।
पाती पंच पोहप कर पूजा , देव निरजन ओर न दुजा ।। 2।।
अर्थ _ उस परमात्मा की पूजा अपनी पाचो इन्द्रियों से करो । अर्थात _ तु अपनी बाहिर मुखी पाँचो इन्द्रियों को पुष्प के समान केंद्रित करके उस एक परमात्मा की पूजा कर । संसार से अपनी इन्द्रियों को हटाकर परमात्मा की पूजा शब्द , स्पर्श , रूप , रस , ओर गंध से कर । वह परमात्मा माया से रहित है , उस के सिवा दूसरा कोई नहीं है।
खण्ड खण्ड में आरती गाजे , सकलमयी ज्योत विराजे।।3।।
अर्थ _ हर एक कण में उस परमात्मा की आरती गूँज रही है , सभी में उस हरी याने की परमात्मा की ज्योत विराज मान है।
शान्ति सरोवर मज्जन कीजे, जाट की धोती तन पर लीजे ।। 4 ।।
अर्थ _ उस परमात्मा की आरती के लिये तू अपने मन को एका ग्रह करके शान्ति के सरोवर में स्नान कर । जिस प्रकार धोती को अपने तन पर धारण करता है। उसी प्रकार तू सयंम को धारण कर।
ग्यान अंगोछा मैल न राखे , धर्म जनेऊ सत् मुख भाखे ।।5
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अर्थ _ जिस प्रकार से तू टोलियों से अपने शारीर साफ करता है, उसी तरह ज्ञान से अपने मन की मैल को दूर कर। तेरे धर्म के प्रतिक यह जनेऊ नहीं बल्कि सच्चा बोलना ही तेरा धर्म है । तू इसी जनेऊ को धारण कर ।
दया भाव तिल मस्तक दीजे , प्रेम भक्ति का आचमन लीजे ।।6।।
अर्थ _ दया की भाव से तू अपने माथे पर तिलक लगा , अर्थात दया भाव को अपनी बुद्धि में हमेशा बनाय रख । ओर सब से प्रेम कर्ताहुआ प्रेम भक्ति का पान कर ।
जो नर ऐसी कर कमावे , कंठी माला सहज समावे ।। 7 ।।
अर्थ _ जो मनुष्य ऐसे नियमो का पालन करता है , उसका आपनेआप ही (नाम ) सिमरन चल पड़ता है । उसे लोक दिखावे के लिये गले में माला नहीं डालनी पड़ती है, अर्थात वह सहज भाव से ही हर श्वास के साथ ( सत् ) नाम का स्मरण करता रहता है।
गायत्री सो जो गिनती खोवे , तर्पण सो जो तमक न होवे ।। 8 ।।
अर्थ _ जो भगतजी श्वास श्वास के साथ नाम स्मरण करे , जिसका अजपा जाप चल पड़ता है । जो हर समय अपने मूल स्वरूप में खोया रहता है उसे गिनती के हिसाब से माला या गायत्री जाप करने की जरुरत नहीं , वह तो हमेशाहि गायत्री जाप करता रहता है। जिसके अंदर का अंधकार मिट गया समझो वह संतुस्ट हुआ उसका तर्पण हो गया ।
संध्या सो जो संधि पिछाने , मन पसरेकु घर में आने ।। 9 ।।
अर्थ _ वास्तव में संध्या तो वही है , जिसमे साधक जिव ओर ब्रह्म की एकता को पहचानता है ओर बाहय पदार्थोमे फैले हुए मन को समेट कर अपने भीतर में स्थित परमात्मा में लगा देता है। यही सच्ची संध्या आरती या पूजा है।
सो संध्या हमरे मन मानी , कहे कबीर सुनो रे ज्ञानी ।।10।।
अर्थ _ बंदी छोड़ कबीर साहेब जी कहते है की , हे विचारवान जिज्ञासुओं सुनो यही संध्या हमारे मन को अच्छी लगती है।
सत् साहेब