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Sunday, July 24, 2016

कबीर - इच्छा दासी यम की खडी रहे दरबार..

कबीर - इच्छा दासी यम की खडी रहे दरबार..
पाप पूण्य दो बीर , ये खसमी नार...
अर्थ- ये इच्छा काल की दासी हैा. इच्छा आत्मा को काल को दरबार मे खडा कर देती हैा पाप और पूण्य ये दो भाई है.. इच्छा इन दोनो की पत्नी है.. इच्छा ही पाप और पूण्य करवाती हैा...
पाप - को कबीर परमात्मा का सतनाम मंत्र समाप्त करेगा..
इच्छा- को आप समाप्त करो मालिक के तत्वज्ञान रूपी शास्त्र से ...
सतगुरू मिले तो इच्छा मिटे, पद मिले पद समाना..
चल हंसा उस लोक पठाऊ , जहा आदि अमर अस्थाना..
पूण्य- को काल के कर्ज के रूप मे दे देगे...
तब सतलोक जा सकते हैा...
कबीर - जिवित मुक्ता सो कहो आशा तृष्णा खंड..
मन के जीते जीत है क्यो भरमे ब्रह्मांड...
अर्थ- जिसकी आशा तृष्णा समाप्त हो गई है मतलब इच्छा समाप्त हो गई है उसको जिवित मरना कहते है वह जिवित संसार मे रहकर भी संसार से मुक्त हो जाता हैा. उसको ही मन जीतना कहते हैा मन को जीतने के बाद ही आप सतलोक जा सकते हैा.. जो योगी तप करते दिखाई देते है लेकिन इनका मन ब्रहाांड मे घूम रहा होता हैा तप से राज मिलता है मुक्ती नही..
भवार्थ- जिन लोगो की इच्छा सतलोक मे जाने की हो गई है उसकी इस संसार से आशा तृष्णा समाप्त हो गई हैा वह लोग इस संसार को जरूरत के हिसाब से जी रहे हैा लेकिन जो लोगो संसार को ख्वाईस के हिसाब से जी रहे हैा वह भगत नही हैा जैसे एक बीवी अापकी जरूरत हैा अपनी बीवी को छोडकर गैर स्त्री पर बुरी नजर डालना वो आपकी ख्वाईस कहलाती हैा.. एक इंसान के रहने के लिए एक कमरा जरूरत हैा कोठी बंगले आपकी खवाईस हैा.. जिनको मालिक ने कोटि बंगले दिये है अच्छी बात है लेकिन जिनके पास नही है वह भक्ति करे रीस ना ना करे..
दो वक्त की रोटी जरूरत हैा 36 तरह के पकवान की इच्छा आपकी ख्वाईस हैा....
भगत दास हो तो जरूरत के हिसाब से जीना सीख लो.. ख्वाईस के हिसाब से जो जीता है वह भगत नही हैा.. गुरू जी कहते है मालिक ने जिसको जितना दिया हैा उस मे खुश रहो.. दूसरो की रीस मत करो.. गुरू जी जरूरत के लिए मना नही करते बल्कि ख्वाईसो के लिए मना करते हैैा.. जैसे टी वी पर सतसंग देखना आपकी जरूरत हैा टी वी पर फिल्मे नाटक गेम खेलना जरूरत नही है जो लोग फिल्मे नाटक देखते है वह भगत नही हैा

Sunday, April 24, 2016

पूर्ण गुरु से नाम लेने के बाद अनजाने में हुए पापों का दोष नहीं लगता ।।

पूर्ण गुरु से नाम लेने के बाद अनजाने में हुए पापों का दोष नहीं लगता ।।
गीता अध्याय 18 का श्लोक 5 से 28 तक का भाव है:
कि इस संसार में सर्व कर्म नहीं त्यागे जा सकते। जो घृणित कर्म (चोरी, जारी, शराब, सुल्फा, मांस आदि का सेवन करना) निंदा, झूठ, छुआ-छात, कटु वचन, त्यागने योग्य है तथा बच्चों का पालन-पोषण में जो कर्म (खेती करना उसमें भी जीव हिंसा, खाना पकाना - उसमें सुक्ष्म जीव जलना, पैदल चलना - उसमें भी जीव मरते हैं आदि) होते हैं वे त्यागे नहीं जा सकते। उनका समाधान है गुरु बनाए । फिर --
इच्छा कर मारै नहीं, बिन इच्छा मर जाय।
कहै कबीर तास का, पाप नहीं लगाय।।
जैसे किसी ड्राईवर से दुर्घटना (एक्सीडैंट) हो जाती है। यदि उसका लाईसैंस बना हो तो वह दोष मुक्त है। क्योंकि वह पूरा चालक है। जानबूझ कर तो दुर्घटना हुई नहीं। अन्य कोई कारण हो सकता है जिसमें वह दोषी नहीं। यदि कोई व्यक्ति बिना चालक लाईसैंस बनवाए गाड़ी चला रहा है तथा दुर्घटना हो जाए तो वह पूरा दोषी है। इसलिए जिसने पूर्ण गुरु नाम उपदेश ले रखा है वह घृणित कर्म नहीं करेगा। यदि अनजाने में जीव हिंसा हो जाती है तो वह दोषी नहीं है। यज्ञ दान आदि शुभ कर्म बिना फल की इच्छा से किए जाऐं तो वे साधक के कुछ पापों का विनाश करते हैं। इसलिए पाँचों यज्ञ विधिवत् अवश्य करने चाहिएं। ये त्यागने योग्य नहीं हैं।
कोई अज्ञानी यह कहे कि मैंने दान किया, मैंने पाठ करवा दिया। उसे भक्ति भाव का व्यक्ति मत जान। वह मलिन बुद्धि वाला है। जब प्राणी पूर्ण संत के माध्यम से परमेश्वर (कविर्देव) की शरण में आ जाता है तब वही पूर्ण प्रभु पाप कर्म से होने वाली हानि रोक देता है।
एक भक्त ने जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी से नाम उपदेश लिया। कहा कि आप से उपदेश लेने से पूर्व प्रतिवर्ष 25000(पच्चीस हजार) का खर्चा तो केवल दवाईयों आदि पर हो जाता था, अन्य हानि भी बहुत होती थी। अब तीन वर्ष उपदेश लिए हो चुके हैं। सर्व को बताता है कि वर्ष भर में केवल 500 रूपये की दवाईयों का खर्चा होता है तथा अन्य हानि भी नाम मात्रा ही है। अब वह पुण्यात्मा पाठ करवाता है। जिससे पाँचों यज्ञ (धर्म, ध्यान, हवन, प्रणाम, व ज्ञान) हो जाती हैं। वह वर्ष में दो बार तथा तीन बार भी पाठ करवा देता है। एक दिन दूसरे भक्त साथी ने कहा कि आप तो बहुत दान कर देते हो। उस भक्त ने कहा मैं दान करने योग्य कविरग्नि (कबीर परमेश्वर) ने बना दिया। मैं दान नहीं कर सकता था। मेरा सारा धन, रोग तथा अन्य पशु हानि में जाता था। जीव कुछ नहीं कर सकता। परमेश्वर ही करवा सकता है। अब यह पैसा तो पुण्य कर्म में लग रहा है। पहले व्यर्थ जा रहा था। मेरे मन में कभी भी नहीं आता कि मैं दान कर रहा हूँ, यह तो सर्व कृपा बन्दी छोड़ भगवान कविरंघारि (पापविनाशक कविर् परमेश्वर) की है। मुझे तो केवल निमित बनाया है।
इसी के प्रमाण में आदरणीय दादू साहेब जी कहते हैं:-
करे करावै साईयां, मन में लहर उठा।
दादू सिर धर जीव के, आप बगल हो जा।।
इसी प्रकर इस पवित्र गीता जी के ज्ञान को समझा जाएगा।
श्लोक 4 से 12 में कहा है कि शुभ कर्मों (यज्ञ, दान तथा तप) को नहीं त्यागना चाहिए। यहाँ हठ योग द्वारा किये जाने वाले तप के बारे में नहीं कहा है। जिस तप के विषय में गीता अध्याय 17 श्लोक 14 से 17 में कहा है उस तप के लिए कहा है जिस में लिखा है कि देव स्वरूप विद्धानों और तत्वदर्शी सन्त जनों की सेवा में पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा में जो संघर्ष व प्रयत्न किया जाता है। वह शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है। सत्य भाषण, शास्त्रों का पठन-पाठन वाणी सम्बन्धी तप है आदि।