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Thursday, April 6, 2017

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बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
अर्थ : जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला. जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है.

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
अर्थ : बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके. कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा.

साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।
अर्थ : इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है. जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे.

तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है. यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है !

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
अर्थ : मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है. अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा !

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
अर्थ : कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती. कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो.

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
अर्थ : सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए. तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल का.

दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
अर्थ : यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत.

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
अर्थ : जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है. लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते.

बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।
अर्थ : यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है.

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
अर्थ : न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है. जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है.

निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।
अर्थ : जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है.

दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
अर्थ : इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है. यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं
लगता.

कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर.
अर्थ : इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो !

हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है. इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।


कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन.
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन.

अर्थ : कहते सुनते सब दिन निकल गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया. कबीर साहेब कहते हैं कि अब भी यह मन होश में नहीं आता.

जय हो बंदीछोड़ की

Wednesday, March 22, 2017

संत कबीर साहेब के लोकप्रिय दोहे

सोना  सज्जन  साधू  जन , टूट  जुड़े  सौ  बार  |
दुर्जन  कुम्भ  कुम्हार  के , एइके  ढाका  दरार  ||

अर्थ : सोने को अगर सौ बार भी तोड़ा जाए, तो भी उसे फिर जोड़ा जा सकता है। इसी तरह भले मनुष्य हर अवस्था में भले ही रहते हैं। इसके विपरीत बुरे या दुष्ट लोग कुम्हार के घड़े की तरह होते हैं जो एक बार टूटने पर दुबारा कभी नहीं जुड़ता।

प्रेम  न  बड़ी  उपजी , प्रेम  न  हात  बिकाय  |
राजा  प्रजा  जोही  रुचे , शीश  दी  ले  जाय  ||


कामी   क्रोधी  लालची , इनसे  भक्ति  ना  होए  |
भक्ति  करे  कोई  सूरमा , जाती  वरण  कुल  खोय  ||

उज्जवल  पहरे  कापड़ा , पान  सुपारी  खाय  |
एक  हरी  के  नाम  बिन , बंधा  यमपुर  जाय  ||


जा  पल  दरसन  साधू  का , ता  पल  की  बलिहारी  |
राम  नाम  रसना  बसे , लीजै  जनम  सुधारी  ||

जो  तू  चाहे  मुक्ति  को , छोड़  दे  सबकी  आस  |
मुक्त  ही  जैसा  हो  रहे , सब  कुछ  तेरे  पास  ||

Wednesday, September 7, 2016

कबीर साधु ऐसा चाहिए , जाका पूरा मंग । विपत्ति पडै छाडै नहीं , चढै चौगुना रंग ।।

कबीर, बंधे को बंधा मिला, छुटै कौन उपाय ।
कर सेवा निरबंध की, पल में लेत छुडाय ।
जो स्वयं ही बंधा हुआ है उसे दुसरा बंधा हुआ मिल गया तो वह किस प्रकार बन्धन मुक्त हो सकता है अतः सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त सद्गुरू की सेवा करो जो पल भर में अपने ज्ञान कि शक्ति से तुम्हें बन्धन मुक्त करा लेंगे ।

कबीर साधु ऐसा चाहिए , जाका पूरा मंग ।
विपत्ति पडै छाडै नहीं , चढै चौगुना रंग ।।
साधु ऐसा होना चाहिए जिसका मन पूर्ण रूप से संतुष्ट हो । उसके सामने कैसा भी विकट परिस्थिति क्यों न आये किन्तु वह तनिक भी विचलित न हो बल्कि उस पर सत्य संकल्प का रंग और चढ़े अर्थात संकल्प शक्ति घटने के बजाय बढे ।

कबीर, सतगुरु शरण न आवहीं , फ़िरिफ़िरि होय अकाज ।
जीव खोय सब जायेंगे , काल तिहुं पुर राज ।।
जो सतगुरु की शरण में नहीं आते , उनसे दूर रहते है उन्हें बारबार हानि होती है बिगड़ी बनाने वाले, अशरणो को शरण प्रदान कर जीवन के दुखो को दूर करने वाले एकमात्र सद्गुरु ही तो हैं । जो उनकी शरण में नहीं आयेंगे वे यूं ही नष्ट हो जायेंगे क्योंकि तीनों लोको में काल का ही साम्राज्य है ।

कबीर भक्ति निसैनी मुक्ति की , संत चढ़े सब धाय ।
जिन जिन मन आलस किया , जनम जनम पछिताय ।।
मुक्ति का मूल साधन भक्ति है इसलिए साधू जन और ज्ञानी पुरुष इस मुक्ति रूपी साधन पर दौड़ कर चढ़ते है । तात्पर्य यह है कि भक्ति साधना करते है किन्तु जो लोग आलस करते है । भक्ति नहीं करते उन्हें जन्म जन्म पछताना पड़ता है क्योंकि यह सुअवसर बार बार नहीं अाता ।

कबीर भक्ति पंथ बहु कठिन है , रत्ती न चालै खोट ।
निराधार का खेल है, अधर धार की चोट ।।
भक्ति साधना करना बहुत ही कठिन है । इस मार्ग पर चलने वाले को सदैव सावधान रहना चाहिए क्योंकि यह ऐसा निराधार खेल है कि जरा सा चुकने पर रसातल में गिरकर महान दुःख झेलने होते है अतः भक्ति साधना करने वाले झूठ, अभिमान , लापरवाही आदि से सदैव दूर रहें ।

कबीर भक्ति बिना नहिं निस्तरै , लाख करै जो कोय ।
शब्द सनेही है रहै , घर को पहुचे सोय ।।
भक्ति के बिना उद्धार होना संभव नहीं है चाहे कोई लाख प्रयत्न करे सब व्यर्थ है । जो जीव सद्गुरु के प्रेमी है , सत्यज्ञान का आचरण करने वाले है वे ही अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सके है ।

कबीर सब रसायन हम पिया , प्रेम समान न कोय ।
रंचन तन में संचरै , सब तन कंचन होय ।।
मैंने संसार के सभी रसायनों को पीकर देखा किन्तु प्रेम रसायन के समान कोइ नहीं मिला । प्रेम अमृत रसायन के अलौकिक स्वाद के सम्मुख सभी रसायनों का स्वाद फीका है । यह शरीर में थोड़ी मात्रा में भी प्रवेश कर जाये तो सम्पूर्ण शरीर शुद्ध सोने की तरह अद्भुत आभा से चमकने लगता है अर्थात शरीर शुद्ध हो जाता है ।


Tuesday, July 5, 2016

कबीर भक्ति भक्ति सब कोई कहै , भक्ति न जाने भेद ।

कबीर भक्ति भक्ति सब कोई कहै , भक्ति न जाने भेद ।
पूरण भक्ति जब मिलै , कृपा करै गुरुदेव ।।
भक्ति भक्ति तो हर कोई प्राणी कहता है किन्तु भक्ति का ज्ञान उसे नहीं होता, भक्ति का भेद नहीं जानता । पूर्ण भक्ति तभी प्राप्त हो सकती है जब गुरु देव की कृपा प्राप्त हो अतः भक्ति मार्ग पर चलने से पहले गुरु की शरण में जाना अति आवश्यक है । गुरु के आशिर्वाद और ज्ञान से मन का अन्धकार नष्ट हो जायेगा ।


कबीर, मारग चलते जो गिरै , ताको नाहीं दोष ।
कहैं कबीर बैठा रहै , ता सिर करड़ै कोस ।।
कबीर साहिब जी कहते है कि सत मार्ग पर चलने वाला मनुष्य यदि गिर जाये तो उसका दोष नहीं है । महादोषी तो वह है जो खाली बैठा रहता है अर्थात सतमार्ग पर चलने का नाम ही नहीं लेता । ऐसे प्राणी के सामने सारा कठिन मार्ग ही पड़ा है ।

कबीर, लौ लागी विष भागिया , कालख डारी धोय ।
कहैं कबीर गुरु साबुन सों , कोई इक ऊजल होय ।।
गुरु से प्रीति होने के पश्चात वासना रूपी विष दूर भाग जाता है और मन में बुराइयों की जितनी भी कालिख होती है गुरु के ज्ञान रूपी साबुन से धुल जाती है । कबीर जी कहते है कि गुरुज्ञान के साबुन से कोई भक्त ही निर्मल होता है ।

 

Thursday, June 30, 2016

कायर बहुत पमांवहीं, बहकि न बोलै सूर। काम पड्यां हीं जाणिये, किस मुख परि है नूर!!

कबीर, कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति ना होय |
भक्ति करे कोई सूरमा, जाति वर्ण कुल खोय ||
भावार्थ: कबीर साहेब कहते है भक्ति तो कोई शूरवीर ही कर सकते है जो अन्दर आन्तरिक विकारो से लड़ते है साथ ही बाहर के सामाजिक विकारो (जात पात कुल परम्परा) से भी हट जाते है ।

`कबीर' संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत।
काम क्रोध सूं झूझणा, चौड़ै मांड्या खेत॥
भावार्थ - कबीर परमात्मा कहते हैं -- मेरे मन में कुछ भी संशय नहीं रहा, और हरि से लगन जुड़ गई। इसीलिए चौड़े में आकर काम और क्रोध से जूझ रहा हूँ रण-क्षेत्र में।

सूरा तबही परषिये, लड़ै धणी के हेत।
पुरिजा-पुरिजा ह्वै पड़ै, तऊ न छांड़ै खेत॥
भावार्थ - शूरवीर की तभी सच्ची परख होती है, जब वह अपने स्वामी के लिए जूझता है। पुर्जा-पुर्जा कट जाने पर भी वह युद्ध के क्षेत्र को नहीं छोड़ता।

अब तौ झूझ्या हीं बणै, मुड़ि चाल्यां घर दूर।
सिर साहिब कौं सौंपतां, सोच न कीजै सूर॥
भावार्थ - अब तो झूझते बनेगा, पीछे पैर क्या रखना ? अगर यहाँ से मुड़ोगे तो घर तो बहुत दूर रह गया है। साईं को सिर सौंपते हुए सूरमा कभी सोचता नहीं, कभी हिचकता नहीं।

जिस मरनैं थैं जग डरै, सो मेरे आनन्द।
कब मरिहूं, कब देखिहूं पूरन परमानंद॥
भावार्थ - जिस मरण से दुनिया डरती है, उससे मुझे
तो आनन्द होता है ,कब मरूँगा और कब देखूँगा मैं अपने पूर्ण सच्चिदानन्द को ! (गीता अध्याय 7/ 29)

कायर बहुत पमांवहीं, बहकि न बोलै सूर।
काम पड्यां हीं जाणिये, किस मुख परि है नूर!!
भावार्थ - बड़ी-बड़ी डींगे कायर ही हाँका करते हैं, शूरवीर कभी बहकते नहीं। यह तो काम आने पर ही जाना जा सकता है कि शूरवीरता का नूर किस चेहरे पर प्रकट होता है।

सतसाहेब जी
Suraj Kumar

कायर बहुत पमांवहीं, बहकि न बोलै सूर। काम पड्यां हीं जाणिये, किस मुख परि है नूर!!

कबीर, कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति ना होय |
भक्ति करे कोई सूरमा, जाति वर्ण कुल खोय ||
भावार्थ: कबीर साहेब कहते है भक्ति तो कोई शूरवीर ही कर सकते है जो अन्दर आन्तरिक विकारो से लड़ते है साथ ही बाहर के सामाजिक विकारो (जात पात कुल परम्परा) से भी हट जाते है ।

`कबीर' संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत।
काम क्रोध सूं झूझणा, चौड़ै मांड्या खेत॥
भावार्थ - कबीर परमात्मा कहते हैं -- मेरे मन में कुछ भी संशय नहीं रहा, और हरि से लगन जुड़ गई। इसीलिए चौड़े में आकर काम और क्रोध से जूझ रहा हूँ रण-क्षेत्र में।

सूरा तबही परषिये, लड़ै धणी के हेत।
पुरिजा-पुरिजा ह्वै पड़ै, तऊ न छांड़ै खेत॥
भावार्थ - शूरवीर की तभी सच्ची परख होती है, जब वह अपने स्वामी के लिए जूझता है। पुर्जा-पुर्जा कट जाने पर भी वह युद्ध के क्षेत्र को नहीं छोड़ता।

अब तौ झूझ्या हीं बणै, मुड़ि चाल्यां घर दूर।
सिर साहिब कौं सौंपतां, सोच न कीजै सूर॥
भावार्थ - अब तो झूझते बनेगा, पीछे पैर क्या रखना ? अगर यहाँ से मुड़ोगे तो घर तो बहुत दूर रह गया है। साईं को सिर सौंपते हुए सूरमा कभी सोचता नहीं, कभी हिचकता नहीं।

जिस मरनैं थैं जग डरै, सो मेरे आनन्द।
कब मरिहूं, कब देखिहूं पूरन परमानंद॥
भावार्थ - जिस मरण से दुनिया डरती है, उससे मुझे
तो आनन्द होता है ,कब मरूँगा और कब देखूँगा मैं अपने पूर्ण सच्चिदानन्द को ! (गीता अध्याय 7/ 29)

कायर बहुत पमांवहीं, बहकि न बोलै सूर।
काम पड्यां हीं जाणिये, किस मुख परि है नूर!!
भावार्थ - बड़ी-बड़ी डींगे कायर ही हाँका करते हैं, शूरवीर कभी बहकते नहीं। यह तो काम आने पर ही जाना जा सकता है कि शूरवीरता का नूर किस चेहरे पर प्रकट होता है।

सतसाहेब जी
Suraj Kumar

Sunday, June 26, 2016

कबीर भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव । परमारथ के कराने , यह तन रहो कि जाव ।।

कबीर भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव ।
परमारथ के कराने , यह तन रहो कि जाव ।।

भक्तो की यह रीति है वे अपने मन एवम इन्द्रिय को पूर्णतया अपने वश में करके सच्चे मन से गुरु की सेवा करते है । लोगो के उपकार हेतु ऐसे सज्जन प्राणी अपने शरीर की परवाह नहीं करते । शरीर रहे अथवा मिट जाये परन्तु अपने सज्जनता रूपी कर्तव्य से विमुख नहीं होते ।

कबीर भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव । परमारथ के कराने , यह तन रहो कि जाव ।।

कबीर भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव ।
परमारथ के कराने , यह तन रहो कि जाव ।।

भक्तो की यह रीति है वे अपने मन एवम इन्द्रिय को पूर्णतया अपने वश में करके सच्चे मन से गुरु की सेवा करते है । लोगो के उपकार हेतु ऐसे सज्जन प्राणी अपने शरीर की परवाह नहीं करते । शरीर रहे अथवा मिट जाये परन्तु अपने सज्जनता रूपी कर्तव्य से विमुख नहीं होते ।

Thursday, June 16, 2016

कबीर, गुरु महिमा गावत सदा, मन राखो अतिमोद ।

कबीर, गुरु महिमा गावत सदा, मन राखो अतिमोद ।
सो भव फिर आवै नहीं, बैठे प्रभू की गोद ।।

कबीर साहिब कहते है जो प्राणी गुरु की महिमा का सदैव बखान करता फिरता है और उनके आदेशों का प्रसन्नता पूर्वक पालन करता है उस प्राणी का पुनःइस भव बन्धन रुपी संसार मे आवागमन नहीं होता । संसार के भव चक्र से मुक्त होकर सतलोक को प्राप्त होता है ।
कबीर जैसी प्रीती कुटुम्ब की, तैसी गुरु सों होय ।
कहैं कबीर ता दास का, पला न पकडै कोय ।।


हे मानव । जैसा तुम अपने परिवार से करते हो वैसा ही प्रेम गुरु से करो । जीवन की समस्त बाधाएँ मिट जायेंगी । कबीर जी कहते हैं कि ऐसे सेवक की कोई मायारूपी बन्धन में नहीं बांध सकता , उसे मोक्ष प्राप्ती होगी, इसमें कोई संदेह नहीं ।

कबीर, भूखा भूखा क्या करे , क्या सुनावे लोग ।
भांडा घड़ा निज मुख दिया , सोई पूरण जोग ।।
तू अपने को भूखा भूखा कहकर लोगों को क्या सुनाता फिरता है क्या लोग तेरी क्षुधा भा देंगे । जिस परम पिता परमेश्वर ने तुझे मुंह दिया है । उस पर विश्वास रख । वही तेरे पेट भर ने का साधन भी देगा ।
बंदीछोड सतगुरू रामपाल जी की जय हो..........

Wednesday, June 1, 2016

कबीर सुखिया ढुंढत मैं फिरू, सुखिया मिले न कोय।

कबीर सुखिया ढुंढत मैं फिरू, सुखिया मिले न कोय।
जाके आगे दुःख कहुँ, पहले उठे रोय।
अर्थ - कबीर साहब कहते है की दुनिया में सुखी आदमी जब ढुढंने के लिये गया, तो पूरी दुनिया में कोई भी सुखी आदमी नहीं मिला। कबीर साहब ने जिसको अपना दुःख बताया तो पता चला की वो पहले से ही दुःखी हो रहा है|
कबीर जाके आगे एक कहूँ, सो कहे इक्कीस ।
एक एक से दाझिया(जलना), कहाँ से काढू बीस।|
अर्थ - कबीर साहब कहते है की जिसे आप एक दुःख बताते है, वो आपको खुद के इक्कीस (21) दुःख बताना शुरू करते है। एक दुःख से आदमी जलता है, कबीर साहब के मन में एक प्रश्न तैयार होता है, की एक ही दुःख से मैं इतना परेशान हूँ तो उस व्यक्ति के और बीस दुःख मैं कैसे निकालू |

कबीर जा दिन ये जीव जनमिया (जन्म होना), कबहू न पाया सुख।
डाल डाल मैं फिरा, पातें पातें दुःख।।
अर्थ - जन्म से ही दुःख हमारे साथ है। कबीर साहब कहते है, वृक्ष की डाल डाल और पत्ती पत्ती मैं फिरा और देखा की दुनिया में दुःख हर जगह पर है।
कबीर सात दिप नौ खंड में, तीन लोक ब्रम्हाण्ड।
कहे कबीर सबको लगे, देह धरे का दंड(दुःख)।|
अर्थ - कबीर साहब ने पुरे विश्व में सात द्वीप,नौ खंड और तीनो ब्रम्हाण्ड में दुःख को देखा है। जिसने जिसने देह धारण किया है, उसे उसे दंड(दुःख) है।
कबीर, राजा दुःखी संन्यासी दुःखी, अमिर दुःखी रंक दुःखी ब प्रीती|
कह कबीर और सब दुःखीया एक संत सुखी मन जीती||
अर्थ -- कबीर जी कहते है कि राजा, संन्यासी, अमीर और गरीब सब दुःखी है, यहा तो वो ही सुखी है जिसने मन को जीत लिया |
कबीर, देह धरे का दंड है, सब काहू को होय।
ज्ञानी भुगते ज्ञान करे, अज्ञानी भुगते रोय।।
अर्थ - जिसने मनुष्य का देह धारण किया है, उन सभी लोगो को दुःख है।ज्ञानी व्यक्ति जिंदगी में दुःख है इस सच्चाई को ध्यान में रखते हुये, उस दुःख को बर्दाश्त करता है, उसे तकलीफ कम होती है। अज्ञानी व्यक्ति दुःख होने के बाद रोते बैठता है और इस तरह दुःख से होनेवाली तकलीफ उसे ज्यादा परेशान करती है। कुछ लोग दुःख है इस वास्तव को स्वीकार करने के बजाय दुःख से छुटकारा पाने के लीये जंतर मंतर उपायो के पीछे पड जाते है।

कबीर, सुख में सुमिरण ना किया, दुःख में करते याद।
कहे कबीर दास की, कौन सुने फरियाद।।
अर्थ - सुख में मग्न होकर आदमी जिंदगी को नहीं समझता है और जब दुःख आता है तब जिंदगी को समझने की कोशिश करता है, लेकिन उस समय उसकी फरियाद कोई नहीं सुनता है।प्यास(दुःख) लगने के बाद कुँआ अगर खोदने की कोशिश की तो प्यास नहीं बुझती, लेकिन प्यास लगने के पहले ही अगर आदमी कुँआ खोदेगा तो जब उसे प्यास लगेगी तो उसकी प्यास तुरंत बुझेगी।
कबीर दुःख में सुमिरण सब करे, सुख में करे ना कोय।
जो सुख में सुमिरण करे, दुःख काहे को होय।।
अर्थ - जब आदमी सुख के दौर से गुजरता है, अगर उस समय उसने जिंदगी के सच्चाई को गहराई तक समझने की कोशिश की तो उसे दुःख भला क्यों होगा।

Wednesday, April 27, 2016

`कबीर' निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध। सीस उतारि पग तलि धरै, तब निकट प्रेम का स्वाद॥

`कबीर' निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध। 
सीस उतारि पग तलि धरै, तब निकट प्रेम का स्वाद॥

भावार्थ - कबीर कहते हैं -अपना खुद का घर तो इस जीवात्मा का प्रेम ही है। मगर वहाँ तक पहुँचने का रास्ता बड़ा विकट है, और लम्बा इतना कि उसका कहीं छोर ही नहीं मिल रहा। प्रेम रस का स्वाद तभी सुगम हो सकता है, जब कि अपने सिर को उतारकर उसे पैरों के नीचे रख दिया जाय।

प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न हाटि बिकाइ।
राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ॥

भावार्थ - अरे भाई ! प्रेम खेतों में नहीं उपजता, और न हाट-बाजार में बिका करता है यह महँगा है और सस्ता भी यों कि राजा हो या प्रजा, कोई भी उसे सिर देकर खरीद ले जा सकता है। 

`कबीर' घोड़ा प्रेम का, चेतनि चढ़ि असवार।
ग्यान खड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार॥

भावार्थ - कबीर कहते हैं - क्या ही मार-धाड़ मचा दी है इस चेतन शूरवीर ने।सवार हो गया है प्रेम के घोड़े
पर। तलवार ज्ञान की ले ली है, और काल-जैसे शत्रु के सिर पर वह चोट- पर-चोट कर रहा है।

बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि, हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।

अर्थ : जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला. जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है.
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
अर्थ : बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके. कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा.
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।
अर्थ : इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है. जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे.
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है. यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है !
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
अर्थ : मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है. अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु  आने पर ही लगेगा !
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
अर्थ : कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती. कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या  फेरो.
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
अर्थ : सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए. तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल का.
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।

अर्थ : यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह  दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत.
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
अर्थ : जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते  हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है. लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते.
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।
अर्थ : यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है.
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
अर्थ : न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है. जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है.
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।
अर्थ : जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है.
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
अर्थ : इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है. यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता  झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं
लगता.
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर.
अर्थ : इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो !
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी  मुए, मरम न कोउ जाना।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है. इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।

Monday, April 25, 2016

साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय, सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।

       कबीर ज्ञानगंगा
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई
उड़ाय।
अर्थ : इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है
जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप
होता है. जो सार्थक को बचा लेंगे और
निरर्थक को उड़ा देंगे.

तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन
तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी
होय।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके
की भी कभी निंदा न करो जो
तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है.
यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ
गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा
होती है !

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
अर्थ : मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है.
अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ
घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु
आने पर ही लगेगा !

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का
फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
अर्थ : कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में
लेकर मोती की माला तो घुमाता है,
पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके
मन की हलचल शांत नहीं होती. कबीर
की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ
की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के
मोतियों को बदलो या फेरो.

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
अर्थ : सज्जन की जाति न पूछ कर उसके
ज्ञान को समझना चाहिए. तलवार का
मूल्य होता है न कि उसकी मयान का –
उसे ढकने वाले खोल का.

दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
अर्थ : यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह
दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब
उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न
आदि है न अंत.

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
अर्थ : जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे
ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने
वाला गोताखोर गहरे पानी में
जाता है और कुछ ले कर आता है. लेकिन कुछ
बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के
भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते है।
सत साहेब जी

Sunday, April 24, 2016

संत ना छोडे संतता, चाहे कोटिक मिले असंत चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।

कबीर, कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन
कह कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।
अर्थ : कहते सुनते सब दिन निकल गए, पर यह मन
उलझ कर न सुलझ पाया। कबीर साहिब जी कहते है कि अब भी यह मन होश में नहीं आता। आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के समान ही है।

कबीर, लहर समुंद्र की, मोती बिखरे आय
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनि-चुनि खाय।
अर्थ : कबीर साहिब जी कहते हैं कि समुद्र की लहर में मोती
आकर बिखर गए. बगुला उनका भेद नहीं जानता,
परन्तु हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है. इसका अर्थ
यह है कि किसी भी वस्तु का महत्व
जानकार ही जानता है।

जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।
अर्थ : कबीर साहिब जी कहते हैं कि जब गुण को परखने
वाला गाहक मिल जाता है तो गुण की कीमत
होती है पर जब ऐसा गाहक नहीं मिलता, तब
गुण कौड़ी के भाव चला जाता है।

कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस।
अर्थ : कबीर साहिब जी कहते हैं कि हे मानव ! तू क्या गर्व
करता है? काल अपने हाथों में तेरे केश पकड़े हुए है.
मालूम नहीं, वह घर या परदेश में, कहाँ पर तुझे मार
डाले।

पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात
एक दिना छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात।
अर्थ : कबीर का कथन है कि जैसे पानी के
बुलबुले, इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है।
जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये
देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी.

हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास.
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।
अर्थ : यह नश्वर मानव देह अंत समय में लकड़ी की
तरह जलती है और केश घास की तरह जल उठते हैं.
सम्पूर्ण शरीर को इस तरह जलता देख, इस अंत
पर कबीर का मन उदासी से भर जाता है. —

जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
अर्थ : इस संसार का नियम यही है कि जो उदय
हुआ है,वह अस्त होगा। जो विकसित हुआ है वह
मुरझा जाएगा. जो चिना गया है वह गिर
पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा।

झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद
सकल चबैना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद।
अर्थ : कबीर साहिब जी कहते हैं कि अरे जीव ! तू झूठे सुख
को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख
यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के
समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद
में खाने के लिए रखा है।

संत ना छोडे संतता, चाहे कोटिक मिले असंत
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।
अर्थ : सज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें
फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता.
चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी
शीतलता नहीं छोड़ता.

कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय.
सीस चढ़ाए पोटली, ले जाता न देख्या कोय।
अर्थ : कबीर परमेश्वर जी कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो
जो भविष्य में काम आएं। सर पर धन सम्पत्ति की गठरी
बाँध कर ले जाते हुए तो किसी को नहीं देखा।

कबीर, माया मरी न मन मरा, मर-मर गये शरीर
आशा तृष्णा ना मरी, यों कह गए साहेब कबीर।
अर्थ : कबीर साहिब जी कहते हैं कि संसार में रहते हुए न
माया मरती है न मन मरता है। शरीर न जाने कितनी बार
मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी
नहीं मरी।
लेकिन परमात्मा के सच्चे मंत्रो के जाप(सतनाम सारनाम) और तत्वज्ञान से आशा तृष्णा खत्म हो जाती है।

मनुवा मनोरथ छोड़ दे, तेरा किया ना होय
पानी में घीव निकसे, तो रूखा खाए न कोई।
अर्थ : मनुष्य मात्र को समझाते हुए कबीर साहिब जी कहते हैं
कि मन की इच्छाएं छोड़ दो , उन्हें तुम अपने बूते
पर पूर्ण नहीं कर सकते। यदि पानी से घी निकल
आए तो रूखी रोटी कोई न खाएगा।

जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाहीं |
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ||
अर्थ : जब मैं अपने अहंकार में डूबा था – तब प्रभु
को न देख पाता था – लेकिन जब गुरु ने ज्ञान
का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब
अज्ञान का सब अन्धकार मिट गया – ज्ञान
की ज्योति से अहंकार जाता रहा और ज्ञान
के आलोक में प्रभु को पाया।

कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी |
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ||
अर्थ : कबीर कहते हैं – अज्ञान की नींद में सोए
क्यों रहते हो? ज्ञान की जागृति को हासिल
कर प्रभु का नाम लो। सजग होकर प्रभु का
ध्यान करो। वह दिन दूर नहीं जब तुम्हें गहन
निद्रा में सो ही जाना है – जब तक जाग सकते
हो जागते क्यों नहीं? प्रभु का नाम स्मरण(सतनाम जाप) क्यों
नहीं करते ?

आछे दिन पाछे गए, सदगुरु से किया न हेत |
अब पछतावा क्या करें, जब चिडिया चुग गई खेत ||
अर्थ : देखते ही देखते अच्छा दिन समय
बीतता चला गया तुमने सदगुरु से हेत क्यों नहीं किया अर्थात् सदगुरु बनाकर परमात्मा की भक्ति क्यों नहीं की।
अब समय बीत जाने पर पछताने
से क्या मिलेगा? पहले जागरूक नहीं थे – ठीक उसी
तरह जैसे कोई किसान अपने खेत की रखवाली
ही न करें और देखते ही देखते पंछी उसकी फसल
बर्बाद कर जाएं।

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।
हीरा जन्म अनमोल सा, कोड़ी बदले जाय॥
अर्थ : रात नींद में नष्ट कर दी – सोते रहे – दिन
में भोजन से फुर्सत नहीं मिली। यह मनुष्य जन्म
हीरे के सामान बहुमूल्य था जिसे तुमने व्यर्थ कर
दिया – कुछ सार्थक किया नहीं तो जीवन
का क्या मूल्य बचा ? एक कौड़ी –
--
मानव जीवन का मूल उद्देश्य : भक्ति से भगवान तक है। क्यों हम मानवता व मानव जीवन के उद्देश्य को भूला चुके हैं ?
परमेश्वर कबीर साहिब जी अपनी वाणियों के माध्यम से मानव समाज को समझा रहे है कि यह मनुष्य जीवन अनमोल है अति दुर्लभ है। चौरासी लाख योनियों का कष्ट भोगने के बाद ही यह मनुष्य जीवन मिलता परमात्मा की भक्ति करने के लिए, मोक्ष पाने के लिए, जन्म मरण का रोग मिटाने के लिए...
लेकिन इस अनमोल मनुष्य जीवन में हम परमात्मा की भक्ति ना करके धन माया सम्पत्ति जोडने में ही व्यस्त रहते है और सम्पत्ति जोडते-जोडते ही हमारी मृत्यु हो जाती है तब हमें बहुत पछतावा होता है कि जिस काम के लिए हमें मनुष्य शरीर मिला था वो काम तो हमने शुरु भी नहीं किया था...इसलिए परमात्मा हमें बार-बार मनुष्य जीवन का मूल उद्देश्य याद दिलाते है कि यह मनुष्य जीवन परमात्मा की भक्ति कर मोक्ष पाने के लिए ही मिला है
इसलिए उस परमपिता परमेश्वर की भक्ति करो जो सर्वसुखदायी है, समर्थ है, जो हमारे सभी कष्टों को दूर करता है, जन्म मरण का रोग काटने वाला है।
परमेश्वर कबीर साहिब जी कहते है...
"भजन कर राम दुहाई रे, भजन कर राम दुहाई रे,
जनम अनमोली तुझे दिया, नर देही पाई रे,
इस देही को देवा लोचते, सुर नर मुनिजन भाई रे,
भजन कर राम दुहाई रे...
परमात्मा कह रहे है कि भगवान की भक्ति किया करो तुम्हें राम दुहाई है, इस नर देही को पाने के लिए देवता भी तरसते है और वो अनमोल मनुष्य देही आपको मिली हुई है।
इसलिए परमात्मा की भक्ति करो सदगुरु बनाकर...बिना गुरु के भक्ति सफल नहीं होती है
"कबीर, बिन गुरु मिले मोहे ना पावै, जन्म जन्म बहु धक्के खावै"
गुरु परमात्मा से मिलाने वाला माध्यम होता है। गुरु बिना परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। राम कृष्ण जी ने भी गुरु बनाकर भक्ति की थी।
"कबीर, राम कृष्ण से कौन बडा, उन्होंने भी गुरु किन्ह,
          तीन लोक के वे धनी, गुरु आगे आधीन"
गुरु भी पूरा होना चाहिए, पूरे गुरु के बिना परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। पूर्ण गुरु/संत ही परमात्मा की सच्ची भक्ति विधि अर्थात् मोक्षदायक मंत्र(सतनाम सारनाम) एवं तत्वज्ञान प्रदान करता है। अधूरे गुरु परमात्मा के विषय में अधूरा ज्ञान रखते है। इसलिए परमात्मा की भक्ति पूर्ण सन्त की शरण में जाकर ही करनी चाहिए।
'गुरु सोहे सत् ज्ञान सुनावै और गुरु कोई काम न आवै,
गुरु सोहे तत्वज्ञान सुनावै और गुरु कोई काम न आवै,
सच्चा गुरु अर्थात् पूर्ण सन्त वही होगा जो सच्चा ज्ञान यानि तत्वज्ञान बतायेगा तथा परमात्मा पाने के पूर्ण मोक्षदायक मंत्र सतनाम सारनाम प्रदान करेगा।(गीता अध्याय 17, श्लोक 23)
जगतगुरु तत्वदर्शी सन्त रामपाल जी महाराज का तत्वज्ञान सुनने के लिए अवश्य देखिये...'साधना चैनल' सांय 7:40 to 8:40pm.
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Saturday, April 23, 2016

संध्या आरती

संध्या आरती

बंदी छोड़ कबीर साहेब द्वारा रचित आठ आरती

        (  1  )
पहली आरती हरी दरबारे , तेज पुंज जहाँ प्राण उधारे । 1।
अर्थ_ सब से पहले मई परमेश्वर के दरबार में आरती करता हूँ । जहाँपर वह् प्रकाश स्वरूप परमेश्वर , सब प्राणियो का उद्धार करता है ।

पाती पंच पोहप कर पूजा , देव निरजन ओर न दुजा ।। 2।।
अर्थ _ उस परमात्मा की पूजा अपनी पाचो इन्द्रियों से करो । अर्थात _ तु अपनी बाहिर मुखी पाँचो इन्द्रियों को पुष्प के समान केंद्रित करके उस एक परमात्मा की पूजा कर । संसार से अपनी इन्द्रियों को हटाकर परमात्मा की पूजा शब्द , स्पर्श , रूप , रस , ओर गंध से कर । वह परमात्मा माया से रहित है , उस के सिवा दूसरा कोई नहीं है।

खण्ड खण्ड में आरती गाजे , सकलमयी ज्योत विराजे।।3।।
अर्थ _ हर एक कण में उस परमात्मा की आरती गूँज रही है , सभी में उस हरी याने की परमात्मा की ज्योत विराज मान है।
शान्ति सरोवर मज्जन कीजे, जाट की धोती तन पर लीजे ।। 4 ।।
अर्थ _ उस परमात्मा की आरती के लिये तू अपने मन को एका ग्रह करके शान्ति के सरोवर में स्नान कर । जिस प्रकार धोती को अपने तन पर धारण करता है। उसी प्रकार तू सयंम को धारण कर।

ग्यान अंगोछा मैल न राखे , धर्म जनेऊ सत् मुख भाखे ।।5

अर्थ _ जिस प्रकार से तू टोलियों से अपने शारीर साफ करता है, उसी तरह ज्ञान से अपने मन की मैल को दूर कर। तेरे धर्म के प्रतिक यह जनेऊ नहीं बल्कि सच्चा बोलना ही तेरा धर्म है । तू इसी जनेऊ को धारण कर ।

दया भाव तिल मस्तक दीजे , प्रेम भक्ति का आचमन लीजे ।।6।।
अर्थ _ दया की भाव से तू अपने माथे पर तिलक लगा , अर्थात दया भाव को अपनी बुद्धि में हमेशा बनाय रख । ओर सब से प्रेम कर्ताहुआ प्रेम भक्ति का पान कर ।

जो नर ऐसी कर कमावे , कंठी माला सहज समावे ।। 7 ।।
अर्थ _ जो मनुष्य ऐसे नियमो का पालन करता है , उसका आपनेआप ही (नाम ) सिमरन चल पड़ता है । उसे लोक दिखावे के लिये गले में माला नहीं डालनी पड़ती है, अर्थात वह सहज भाव से ही हर श्वास के साथ ( सत् ) नाम का स्मरण करता रहता है।

गायत्री सो जो गिनती खोवे , तर्पण सो जो तमक न होवे ।। 8 ।।
अर्थ _ जो भगतजी श्वास श्वास के साथ नाम स्मरण करे , जिसका अजपा जाप चल पड़ता है । जो हर समय अपने मूल स्वरूप में खोया रहता है उसे गिनती के हिसाब से माला या गायत्री जाप करने की जरुरत नहीं , वह तो हमेशाहि गायत्री जाप करता रहता है। जिसके अंदर का अंधकार मिट गया समझो वह संतुस्ट हुआ उसका तर्पण हो गया ।

संध्या सो जो संधि पिछाने , मन पसरेकु घर में आने ।। 9 ।।
अर्थ _ वास्तव में संध्या तो वही है , जिसमे साधक जिव ओर ब्रह्म की एकता को पहचानता है ओर बाहय पदार्थोमे फैले हुए मन को समेट कर अपने भीतर में स्थित परमात्मा में लगा देता है। यही सच्ची संध्या आरती या पूजा है।

सो संध्या हमरे मन मानी , कहे कबीर सुनो रे ज्ञानी ।।10।।
अर्थ _ बंदी छोड़ कबीर साहेब जी कहते है की , हे विचारवान जिज्ञासुओं सुनो यही संध्या हमारे मन को अच्छी लगती है।

सत् साहेब

Tuesday, February 23, 2016

खोद खाद धरती सहै, काट कूट बनराय |

शब्द दुरिया न दुरै, कहूँ जो ढोल बजाय |
जो जन होवै जौहोरी, लेहैं सीस चढ़ाय ||
ढोल बजाकर कहता हूँ निर्णय - वचन किसी के
छिपाने (निन्दा उपहास करने) से नहीं छिपते | जो
विवेकी - पारखी होगा, वह निर्णय - वचनों को
शिरोधार्य कर लेगा |
एक शब्द सुख खानि है, एक शब्द दुःखराखि है |
एक शब्द बन्धन कटे, एक शब्द गल फंसि ||
समता के शब्द सुख की खान है, और विषमता के शब्द
दुखो की ढेरी है | निर्णय के शब्दो से विषय - बन्धन
कटते हैं, और मोह - माया के शब्द गले की फांसी हो जाते हैं |

सीखै सुनै विचार ले, ताहि शब्द सुख देय |
बिना समझै शब्द गहै, कहु न लाहा लेय ||
जो निर्णय शब्दो को सुनता, सीखता और
विचारता है, उसको शब्द सुख देते हैं | यदि बिना
समझे कोई शब्द रट ले, तो कोई लाभ नहीं पाता |
हरिजन सोई जानिये, जिहा कहैं न मार |
आठ पहर चितवर रहै, गुरु का ज्ञान विचार ||
हरि - जन उसी को जानो जो अपनी जीभ से भी
नहीं कहता कि "मारो" | बल्कि आठों पहर गुरु के
ज्ञान - विचार ही में मन रखता है |
कुटिल वचन सबते बुरा, जारि करे सब छार |
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार ||
टेड़े वचन सबसे बुरे होते हैं, वे जलाकर राख कर देते हैं |
परन्तु सन्तो के वचन शीतल जलमय हैं, जो अमृतकी धारा बनकर बरसते हैं |
खोद खाद धरती सहै, काट कूट बनराय |
कुटिल वचन साधु सहै, और से सहा न जाय ||
खोद - खाद प्रथ्वी सहती है, काट - कूट जंगल सहता
है | कठोर वचन सन्त सहते हैं, किसी और से सहा नहीं जा सकता |
मुख आवै सोई कहै, बोलै नहीं विचार |
हते पराई आत्मा, जीभ बाँधि तरवार ||
कितने ही मनुष्य जो मुख में आया, बिना विचारे
बोलते जी जाते हैं | ये लोग परायी आत्मा को दुःख
देते रहते है अपने जिव्हा में कठोर वचनरूपी तलवार बांधकर |
जंत्र - मंत्र सब झूठ है, मत भरमो जग कोय |
सार शब्द जानै बिना, कागा हंस न होय |
टोने - टोटके, यंत्र - मंत्र सब झूठ हैं, इनमे कोई मत फंसो | 
निर्णय - वचनों के ज्ञान बिना, कौवा हंस नहीं होता |
शब्द जु ऐसा बोलिये, मन का आपा खोय |
औरन को शीतल करे, आपन को सुख होय ||
शरीर का अहंकार छोड़कर वचन उच्चारे | इसमें आपको
शीतलता मिलेगी, सुनने वाले को भी सुख प्राप्त होगो |
कागा काको धन हरै, कोयल काको देत |
मीठा शब्द सुनाय को, जग अपनो करि लेत ||
कौवा किसका धन हरण करता है, और कोयल
किसको क्या देती है ? केवल मीठा शब्द सुनाकर जग
को अपना बाना लेती है |

Monday, December 28, 2015

भगत आत्माऐँ ध्यान देँ सदगुरु देँव जी बतातेँ है



भगत आत्माऐँ ध्यान देँ

सदगुरु देँव जी बतातेँ है

कि जब हम से गलती के कारण नाम खँण्ड हो जाता है फिर और भी गलतीयाँ कर बैठते है कि नाम तो खँण्ड हो गया है ।
मालिक बताते है गलती पर गलती करना ऐसा है जैसे कनैकसन कट (नामखँड)होने के बाद जो गलती करते है वो फिँटिग को यानी वायरिँग को उखाड़ने के समान है ।
मालिक कहते है भगति बीज को सिर धड़ की बाजी लगाकर सफल बनाना है
भगति चाहे अब कर लो या फिर असंख युगोँ बाद जब कभी मानुष जन्म और सत भगति मिले तब करना बात बनेगी अडिग होकर भक्ति करनेँ से ।


मालिक कहते है
कबीर जैसे माता गर्ब को
रखाखै यत्न बनायेँ ।
ठैस लगे छिन्न हो ,
तेरी ऐसे भग्ति जाये ।

मालिक कहते है गुरु शिष्य का नाता ऐसे होता है

कबीर ,ये धागा प्रेम का मत तोड़े चटकाये ।
टुटै सै ना जुड़े ,
जुड़े तो गाँठ पड़ जाये ।
बार बार नाम खँड़ होने से परमात्मा से लाभ मिलना बन्द हो जाता है ।
कबीर,हरि जै रुठ जा तो गुरु की शारण मेँ जाए , जै गुरु रुठ जा तो हरि ना होत सहाय ।
कबीर , द्वार धन्नी के पड़ा रहे , धक्केँ धन्नी के खाय ।
लाख बार काल झकझोँर ही,द्वार छोड़ कर ना जाय ।