Sunday, April 24, 2016

संत ना छोडे संतता, चाहे कोटिक मिले असंत चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।

कबीर, कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन
कह कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।
अर्थ : कहते सुनते सब दिन निकल गए, पर यह मन
उलझ कर न सुलझ पाया। कबीर साहिब जी कहते है कि अब भी यह मन होश में नहीं आता। आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के समान ही है।

कबीर, लहर समुंद्र की, मोती बिखरे आय
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनि-चुनि खाय।
अर्थ : कबीर साहिब जी कहते हैं कि समुद्र की लहर में मोती
आकर बिखर गए. बगुला उनका भेद नहीं जानता,
परन्तु हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है. इसका अर्थ
यह है कि किसी भी वस्तु का महत्व
जानकार ही जानता है।

जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।
अर्थ : कबीर साहिब जी कहते हैं कि जब गुण को परखने
वाला गाहक मिल जाता है तो गुण की कीमत
होती है पर जब ऐसा गाहक नहीं मिलता, तब
गुण कौड़ी के भाव चला जाता है।

कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस।
अर्थ : कबीर साहिब जी कहते हैं कि हे मानव ! तू क्या गर्व
करता है? काल अपने हाथों में तेरे केश पकड़े हुए है.
मालूम नहीं, वह घर या परदेश में, कहाँ पर तुझे मार
डाले।

पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात
एक दिना छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात।
अर्थ : कबीर का कथन है कि जैसे पानी के
बुलबुले, इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है।
जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये
देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी.

हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास.
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।
अर्थ : यह नश्वर मानव देह अंत समय में लकड़ी की
तरह जलती है और केश घास की तरह जल उठते हैं.
सम्पूर्ण शरीर को इस तरह जलता देख, इस अंत
पर कबीर का मन उदासी से भर जाता है. —

जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
अर्थ : इस संसार का नियम यही है कि जो उदय
हुआ है,वह अस्त होगा। जो विकसित हुआ है वह
मुरझा जाएगा. जो चिना गया है वह गिर
पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा।

झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद
सकल चबैना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद।
अर्थ : कबीर साहिब जी कहते हैं कि अरे जीव ! तू झूठे सुख
को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख
यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के
समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद
में खाने के लिए रखा है।

संत ना छोडे संतता, चाहे कोटिक मिले असंत
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।
अर्थ : सज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें
फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता.
चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी
शीतलता नहीं छोड़ता.

कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय.
सीस चढ़ाए पोटली, ले जाता न देख्या कोय।
अर्थ : कबीर परमेश्वर जी कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो
जो भविष्य में काम आएं। सर पर धन सम्पत्ति की गठरी
बाँध कर ले जाते हुए तो किसी को नहीं देखा।

कबीर, माया मरी न मन मरा, मर-मर गये शरीर
आशा तृष्णा ना मरी, यों कह गए साहेब कबीर।
अर्थ : कबीर साहिब जी कहते हैं कि संसार में रहते हुए न
माया मरती है न मन मरता है। शरीर न जाने कितनी बार
मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी
नहीं मरी।
लेकिन परमात्मा के सच्चे मंत्रो के जाप(सतनाम सारनाम) और तत्वज्ञान से आशा तृष्णा खत्म हो जाती है।

मनुवा मनोरथ छोड़ दे, तेरा किया ना होय
पानी में घीव निकसे, तो रूखा खाए न कोई।
अर्थ : मनुष्य मात्र को समझाते हुए कबीर साहिब जी कहते हैं
कि मन की इच्छाएं छोड़ दो , उन्हें तुम अपने बूते
पर पूर्ण नहीं कर सकते। यदि पानी से घी निकल
आए तो रूखी रोटी कोई न खाएगा।

जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाहीं |
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ||
अर्थ : जब मैं अपने अहंकार में डूबा था – तब प्रभु
को न देख पाता था – लेकिन जब गुरु ने ज्ञान
का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब
अज्ञान का सब अन्धकार मिट गया – ज्ञान
की ज्योति से अहंकार जाता रहा और ज्ञान
के आलोक में प्रभु को पाया।

कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी |
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ||
अर्थ : कबीर कहते हैं – अज्ञान की नींद में सोए
क्यों रहते हो? ज्ञान की जागृति को हासिल
कर प्रभु का नाम लो। सजग होकर प्रभु का
ध्यान करो। वह दिन दूर नहीं जब तुम्हें गहन
निद्रा में सो ही जाना है – जब तक जाग सकते
हो जागते क्यों नहीं? प्रभु का नाम स्मरण(सतनाम जाप) क्यों
नहीं करते ?

आछे दिन पाछे गए, सदगुरु से किया न हेत |
अब पछतावा क्या करें, जब चिडिया चुग गई खेत ||
अर्थ : देखते ही देखते अच्छा दिन समय
बीतता चला गया तुमने सदगुरु से हेत क्यों नहीं किया अर्थात् सदगुरु बनाकर परमात्मा की भक्ति क्यों नहीं की।
अब समय बीत जाने पर पछताने
से क्या मिलेगा? पहले जागरूक नहीं थे – ठीक उसी
तरह जैसे कोई किसान अपने खेत की रखवाली
ही न करें और देखते ही देखते पंछी उसकी फसल
बर्बाद कर जाएं।

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।
हीरा जन्म अनमोल सा, कोड़ी बदले जाय॥
अर्थ : रात नींद में नष्ट कर दी – सोते रहे – दिन
में भोजन से फुर्सत नहीं मिली। यह मनुष्य जन्म
हीरे के सामान बहुमूल्य था जिसे तुमने व्यर्थ कर
दिया – कुछ सार्थक किया नहीं तो जीवन
का क्या मूल्य बचा ? एक कौड़ी –
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मानव जीवन का मूल उद्देश्य : भक्ति से भगवान तक है। क्यों हम मानवता व मानव जीवन के उद्देश्य को भूला चुके हैं ?
परमेश्वर कबीर साहिब जी अपनी वाणियों के माध्यम से मानव समाज को समझा रहे है कि यह मनुष्य जीवन अनमोल है अति दुर्लभ है। चौरासी लाख योनियों का कष्ट भोगने के बाद ही यह मनुष्य जीवन मिलता परमात्मा की भक्ति करने के लिए, मोक्ष पाने के लिए, जन्म मरण का रोग मिटाने के लिए...
लेकिन इस अनमोल मनुष्य जीवन में हम परमात्मा की भक्ति ना करके धन माया सम्पत्ति जोडने में ही व्यस्त रहते है और सम्पत्ति जोडते-जोडते ही हमारी मृत्यु हो जाती है तब हमें बहुत पछतावा होता है कि जिस काम के लिए हमें मनुष्य शरीर मिला था वो काम तो हमने शुरु भी नहीं किया था...इसलिए परमात्मा हमें बार-बार मनुष्य जीवन का मूल उद्देश्य याद दिलाते है कि यह मनुष्य जीवन परमात्मा की भक्ति कर मोक्ष पाने के लिए ही मिला है
इसलिए उस परमपिता परमेश्वर की भक्ति करो जो सर्वसुखदायी है, समर्थ है, जो हमारे सभी कष्टों को दूर करता है, जन्म मरण का रोग काटने वाला है।
परमेश्वर कबीर साहिब जी कहते है...
"भजन कर राम दुहाई रे, भजन कर राम दुहाई रे,
जनम अनमोली तुझे दिया, नर देही पाई रे,
इस देही को देवा लोचते, सुर नर मुनिजन भाई रे,
भजन कर राम दुहाई रे...
परमात्मा कह रहे है कि भगवान की भक्ति किया करो तुम्हें राम दुहाई है, इस नर देही को पाने के लिए देवता भी तरसते है और वो अनमोल मनुष्य देही आपको मिली हुई है।
इसलिए परमात्मा की भक्ति करो सदगुरु बनाकर...बिना गुरु के भक्ति सफल नहीं होती है
"कबीर, बिन गुरु मिले मोहे ना पावै, जन्म जन्म बहु धक्के खावै"
गुरु परमात्मा से मिलाने वाला माध्यम होता है। गुरु बिना परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। राम कृष्ण जी ने भी गुरु बनाकर भक्ति की थी।
"कबीर, राम कृष्ण से कौन बडा, उन्होंने भी गुरु किन्ह,
          तीन लोक के वे धनी, गुरु आगे आधीन"
गुरु भी पूरा होना चाहिए, पूरे गुरु के बिना परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। पूर्ण गुरु/संत ही परमात्मा की सच्ची भक्ति विधि अर्थात् मोक्षदायक मंत्र(सतनाम सारनाम) एवं तत्वज्ञान प्रदान करता है। अधूरे गुरु परमात्मा के विषय में अधूरा ज्ञान रखते है। इसलिए परमात्मा की भक्ति पूर्ण सन्त की शरण में जाकर ही करनी चाहिए।
'गुरु सोहे सत् ज्ञान सुनावै और गुरु कोई काम न आवै,
गुरु सोहे तत्वज्ञान सुनावै और गुरु कोई काम न आवै,
सच्चा गुरु अर्थात् पूर्ण सन्त वही होगा जो सच्चा ज्ञान यानि तत्वज्ञान बतायेगा तथा परमात्मा पाने के पूर्ण मोक्षदायक मंत्र सतनाम सारनाम प्रदान करेगा।(गीता अध्याय 17, श्लोक 23)
जगतगुरु तत्वदर्शी सन्त रामपाल जी महाराज का तत्वज्ञान सुनने के लिए अवश्य देखिये...'साधना चैनल' सांय 7:40 to 8:40pm.
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