उत्तर: गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में गीता ज्ञान दाता ने बताया है कि जो साधक केवल जरा (वृद्ध अवस्था) तथा मरण (मृत्यु) से छूटने के लिए
प्रयत्नशील हैं, वे ‘‘तत् ब्रह्म’’ से परीचित हैं। अर्जुन ने गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में पूछा कि ‘‘तत् ब्रह्म’‘ क्या है? गीता ज्ञान दाता नेअध्याय 8 श्लोक 3 में बताया कि वह ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ है। गीता अध्याय 8 श्लोक 5 व 7 में तो गीता ज्ञान दाता ने अपनी साधना-स्मरण करने को कहा है। (गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 4 श्लोक 5 व अध्याय 10 श्लोक 2 में अपना जन्म-मरण भी कहा है। कहा है कि मेरी भक्ति से परमशान्ति नहीं हो सकती, युद्ध भी करना पड़ेगा। गीता ज्ञान दाता का यह भी कहना है कि जन्म-मरण में सदा रहेगा।) तुरन्त ही गीता अध्याय 8 श्लोक 8, 9 तथा 10, इन तीन श्लोकों में गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’‘ की भक्ति करने को कहा है कि हे पार्थ! परमेश्वर की साधना के अभ्यास योग से युक्त अन्य किसी देव या प्रभु में अपनी आस्था न रखकर एक परमेश्वर का अनन्य चित्त से स्मरण करता हुआ मनुष्य (परमम्
दिव्यम् पुरुषम् याति) उस परम अलौकिक परमेश्वर अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म को ही प्राप्त होता है। (गीता अध्याय 8 श्लोक 8)
प्रयत्नशील हैं, वे ‘‘तत् ब्रह्म’’ से परीचित हैं। अर्जुन ने गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में पूछा कि ‘‘तत् ब्रह्म’‘ क्या है? गीता ज्ञान दाता नेअध्याय 8 श्लोक 3 में बताया कि वह ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ है। गीता अध्याय 8 श्लोक 5 व 7 में तो गीता ज्ञान दाता ने अपनी साधना-स्मरण करने को कहा है। (गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 4 श्लोक 5 व अध्याय 10 श्लोक 2 में अपना जन्म-मरण भी कहा है। कहा है कि मेरी भक्ति से परमशान्ति नहीं हो सकती, युद्ध भी करना पड़ेगा। गीता ज्ञान दाता का यह भी कहना है कि जन्म-मरण में सदा रहेगा।) तुरन्त ही गीता अध्याय 8 श्लोक 8, 9 तथा 10, इन तीन श्लोकों में गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’‘ की भक्ति करने को कहा है कि हे पार्थ! परमेश्वर की साधना के अभ्यास योग से युक्त अन्य किसी देव या प्रभु में अपनी आस्था न रखकर एक परमेश्वर का अनन्य चित्त से स्मरण करता हुआ मनुष्य (परमम्
दिव्यम् पुरुषम् याति) उस परम अलौकिक परमेश्वर अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म को ही प्राप्त होता है। (गीता अध्याय 8 श्लोक 8)
जो साधक परम अक्षर ब्रह्म, अनादि, सब का संचालक, कन्ट्रोलर, सूक्ष्म से सूक्ष्म सबके धारण-पोषण करने वाले अचिन्त स्वरुप सूर्य के समान प्रकाशमान अविद्या से अति परे शुद्ध चिदानन्द परमेश्वर का स्मरण करता है। (गीता अध्याय 8 श्लोक 9)
वह भक्ति साधनायुक्त साधक अन्तकाल में भी भक्ति की शक्ति से भृकुटी के मध्य में प्राणों अर्थात् श्वांसों को अच्छी प्रकार स्थापित करके फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस (दिव्य परम पुरुषम) अलौकिक परम पुरुष अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म (जो गीता ज्ञान दाता से अन्य है) को ही प्राप्त होता है। यह प्रमाण गीता के इसी अध्याय 8 श्लोक 11 से 22 में भी है। गीता अध्याय 8 श्लोक 11 में कहा है कि तत्वदर्शी अर्थात् वेद को ठीक से जानने वाले जिसे अविनाशी कहते हैं, उस परम पद को तेरे लिए कहता हूँ। गीता अध्याय 8 श्लोक 12 में वर्णन है कि उसको प्राप्त करने की साधना श्वांसों से नाम-स्मरण करने से होती है।
गीता अध्याय 8श्लोक 13 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मुझ ब्रह्म का केवल एक ओम् (ऊँ) अक्षर है, इसका स्मरण मरते दम तक करना है। वह इस मन्त्रा से होने वाली परम गति अर्थात् ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है।
गीता अध्याय 8श्लोक 16 में कहा है कि ब्रह्म लोक में गए साधक भी पुनः लौटकर संसार में जन्म लेते हैं, फिर मरते हैं। यह पूर्ण मोक्ष नहीं है।
गीता अध्याय 8श्लोक 14 में कहा है कि जो मेरी साधना स्मरण करता है, उसके लिए मैं सुलभ हूँ।
गीता अध्याय 8श्लोक 15 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मुझे प्राप्त होकर तो सदा पुनर्जन्म होता है जो दुःखों का घर, क्षण भंगुर जीवन है और जो साधक परम अक्षर ब्रह्म की साधना भक्ति करते हैं वे परम सिद्धि को प्राप्त होकर अमर हो जाते हैं, वे पुनः जन्म-मरण को प्राप्त नहीं होते।
गीता अध्याय 8श्लोक 16 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि ब्रह्मलोक तक सब लोक पुनरावर्ती में हैं अर्थात् ब्रह्मलोक तक सब लोकों में गए साधक सदा जन्म-मृत्यु के चक्र में रहते हैं। हे अर्जुन! जो यह नहीं जानते, वे मुझे प्राप्त होकर भी जन्म-मृत्यु के चक्र में सदा रहते हैं क्योंकि गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5, अध्याय 10 श्लोक 2 में स्वयं कहा है कि हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। आगे भी होते रहेंगे, तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। मेरी उत्पत्ति (जन्म) को न देवता जानते हैं, न महर्षिजन और न सिद्ध जानते हैं।
गीता अध्याय 8 श्लोक 17 में अक्षर पुरुष (पर ब्रह्म) के दिन-रात का वर्णन है। बताया है कि (ब्रह्मणः) परब्रह्म का एक दिन एक हजार युग का होता है, इतनी ही रात्रि होती है। परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरुष का वर्णन गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में है। उसी का प्रकरण गीता अध्याय 8 श्लोक 17-18-19 में है।
नोट: अधिक जानकारी के लिए कृप्या पढ़ें प्रश्न नं. 9 में गीता अध्याय 8 श्लोक 17 से 19 में अक्षर पुरुष की जानकारी है, इसे भी अव्यक्त कहा गया है। इसका दिन समाप्त होने के पश्चात् सर्व प्राणी जो क्षर पुरूष के 21 ब्रह्माण्डों में हैं, नाश में आ जाते हैं, रात्रि पूरी होने के पश्चात् पुनः दिन में संसार में जीव उत्पन्न होते हैं।
गीता अध्याय 8 श्लोक 20 में कहा है कि यह अक्षर पुरुष भी अव्यक्त कहा जाता है। परंतु इस अव्यक्त से दूसरा जो विलक्षण सनातन अव्यक्त भाव है, वह परम दिव्य पुरुष अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म तो सब प्राणियों के (क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष तथा इनके अन्तर्गत जितने भी जीव हैं, इन सब के) नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता।
गीता अध्याय 8 श्लोक 21 में कहा है कि जो अव्यक्त (अक्षर) अविनाशी इस नाम से कहा गया है, उस परम पुरुष की प्राप्ति को परम गति कहते हैं। जिस सनातन अव्यक्त परम पुरुष को प्राप्त होकर वापिस जन्म-मरण में नहीं आते। वह मेरे धाम से श्रेष्ठ धाम है। पहले मैं भी उसी में रहता था। इसलिए कहा है कि वह मेरा भी परम धाम है क्योंकि गीता ज्ञान दाता भी उस परम सनातन धाम अर्थात् सत्यलोक से निष्कासित है। (इसकी पूर्ण जानकारी के लिए कृप्या पढ़ें सृष्टि रचना।)
गीता अध्याय 8 श्लोक 22 में स्पष्ट है, गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि हे अर्जुन! जिस परमात्मा के अन्तर्गत सर्वभूत अर्थात् प्राणी हैं, (क्षर पुरुष तथा इसके 21 ब्रह्माण्डों के प्राणी तथा अक्षर पुरुष तथा इसके अन्तर्गत जितने प्राणी आते हैं, वे तथा परम अक्षर पुरुष के असँख्य ब्रह्माण्डों में जितने प्राणी हैं, वे परम अक्षर ब्रह्म के अन्तर्गत हैं।) और जिस परम अक्षर पुरुष से यह सर्व जगत परिपूर्ण अर्थात् जिसने सर्व को उत्पन्न किया है, जिसकी सत्ता सर्व के ऊपर है, वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष तो अनन्य भक्ति से प्राप्त करने योग्य है। भावार्थ है कि परम अक्षर ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए केवल इसी की भक्ति (पूजा) करनी चाहिये। अन्य किसी प्रभु में आस्था नहीं रखनी चाहिए। इसी को अनन्य भक्ति अर्थात् पूजा कहते हैं।
केवल परम अक्षर ब्रह्म की पूजा करना अनन्य भक्ति कहलाती है। यदि गीता अध्याय 8 श्लोक 22 का सही अनुवाद करें तो स्पष्ट है कि:-
पुरूषः, सः, परः, पार्थ, भक्तया, लभ्यः, तु, अनन्या,
यस्य, अन्तःस्थानि, भूतानि, येन, सर्वम्, इदम्, ततम्
अनुवाद:– (सः) वह (परः) दूसरा (पुरुषः) परमात्मा तो अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है, जिसके अन्तर्गत सर्व प्राणी हैं और जिसने सर्व जगत की उत्पत्ति की है, जो सर्व का पालन कर्ता है। सरलार्थ समाप्त (गीता अध्याय 8 श्लोक 22) इसके मूल पाठ में यानि संस्कृत में लिखा है = सः परः पुरुषः = पर का अर्थ गीता अध्याय 8श्लोक 20 में परे किया है यानि अन्य। यहाँ (गीता अध्याय 8श्लोक 22 में) भी अन्य लिया जाता तो स्पष्ट हो जाता है कि गीता ज्ञान दाता से अन्य कोई समर्थ प्रभु है। जिसकी शरण में जाने के लिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है।
यस्य, अन्तःस्थानि, भूतानि, येन, सर्वम्, इदम्, ततम्
अनुवाद:– (सः) वह (परः) दूसरा (पुरुषः) परमात्मा तो अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है, जिसके अन्तर्गत सर्व प्राणी हैं और जिसने सर्व जगत की उत्पत्ति की है, जो सर्व का पालन कर्ता है। सरलार्थ समाप्त (गीता अध्याय 8 श्लोक 22) इसके मूल पाठ में यानि संस्कृत में लिखा है = सः परः पुरुषः = पर का अर्थ गीता अध्याय 8श्लोक 20 में परे किया है यानि अन्य। यहाँ (गीता अध्याय 8श्लोक 22 में) भी अन्य लिया जाता तो स्पष्ट हो जाता है कि गीता ज्ञान दाता से अन्य कोई समर्थ प्रभु है। जिसकी शरण में जाने के लिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है।
उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता ने श्रीमद्भगवत् गीता में अनेकों स्थानों पर अपने से अन्य परमेश्वर (परम अक्षर ब्रह्म) की भक्ति करने को कहा है। उसी से पूर्ण मोक्ष सम्भव है। जन्म-मरण का चक्र सदा के लिए समाप्त हो जाता है। प्रमाण:- गीता अध्याय 7 श्लोक 19, 29, गीता अध्याय 18 श्लोक 46, 61, 62, 66, गीता अध्याय 3 श्लोक 9, गीता अध्याय 8 श्लोक 3, 8, 9, 10, 20 से 22, गीता अध्याय 4श्लोक 31-32, गीता अध्याय 15श्लोक 1, 4, 17, गीता अध्याय 2 श्लोक 17, 59, गीता अध्याय 3 श्लोक 14, 15, 19 और गीता अध्याय 5 श्लोक 14, 15, 16, 19, 20, 24, 25, 26 में भी यह प्रमाण है।
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