उत्तर:- यह सत्य है कि “अक्षर” का अर्थ अविनाशी होता है, परन्तु प्रकरणवश अर्थ अन्य भी होता है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में कहा है कि क्षर और अक्षर ये पुरूष (प्रभु) इस लोक में है, ये दोनों तथा इनके अन्तर्गत जितने जीव हैं, वे नाशवान हैं, आत्मा किसी की भी नहीं मरती। फिर गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में स्पष्ट किया है कि पुरूषोत्तम तो उपरोक्त दोनों प्रभुओं से अन्य है। वही अविनाशी है, वही सबका धारण-पोषण करने वाला वास्तव में अविनाशी है। गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में तत् ब्रह्म को परम अक्षर ब्रह्म कहा है। अक्षर का अर्थ अविनाशी है, परन्तु यहाँ परम अक्षर ब्रह्म कहा है। इससे भी सिद्ध हुआ कि अक्षर से आगे परम अक्षर ब्रह्म है, वह वास्तव में अविनाशी है।
प्रमाण:- जैसे ब्रह्मा जी की आयु 100 वर्ष बताई जाती है, देवताओं का वर्ष कितने समय का है? सुनो! चार युग (सत्ययुग, त्रोतायुग, द्वापरयुग तथा कलयुग) का एक चतुर्युग होता है जिसमें मनुष्यों के 43,20,000 (त्रितालीस लाख बीस हजार) वर्ष होते हैं। 1008 चतुर्युग का ब्रह्मा जी का दिन और इतनी ही रात्रि होती है, ऐसे 30 दिन-रात्रि का एक महीना तथा 12 महीनों का ब्रह्मा जी का एक वर्ष हुआ। ऐसे 100 (सौ) वर्ष की श्री ब्रह्मा जी की आयु है।
शंका समाधान
श्री विष्णु जी की आयु श्री ब्रह्मा जी से 7 गुणा है। = 700 वर्ष।
श्री शंकर जी की आयु श्री विष्णु जी से 7 गुणा अधिक = 4900 वर्ष।
ब्रह्म (क्षर पुरूष) की आयु = 70 हजार शंकर की मृत्यु के पश्चात् एक ब्रह्म की मृत्यु होती है अर्थात् क्षर पुरूष की मृत्यु होती है। इतना समय अक्षर पुरूष का एक युग होता है।
अक्षर पुरूष की आयु:- गीता अध्याय 8 श्लोक 17 में कहा हैः-
सहंस्र युग पर्यन्तम् अहः यत् ब्रह्मणः विदुः।
रात्रिम् युग सहंस्रान्तम् ते अहोरात्रा विदः जनाः।। (17)
अनुवाद:- आज तक सर्व अनुवादकर्ताओं ने उचित अनुवाद नहीं किया। सबने ब्रह्मा का एक हजार चतुर्युग लिखा है, यह गलत है। मूल पाठ में “संहस्र युग” लिखा है, न कि चतुर संहस्र युग। इसलिए गीता अध्याय 8 श्लोक 17 का अनुवाद ऐसे बनता हैः- (ब्रह्मणः) अक्षर पुरूष का (यत) जो (अहः) दिन है वह (सहंस्रयुग प्रयन्तम्) एक हजार युग की अवधि वाला (विदुः) जानते हैं (ते) वे जना व्यक्ति (अहोरात्रा) दिन-रात को (विदः) जानने वाले हैं।
भावार्थ:- इस श्लोक में “ब्रह्मा” शब्द मूल पाठ में नहीं है और न ही “चतुर युग” शब्द मूल पाठ में है, इसमें “ब्रह्मण” शब्द है जिसका अर्थ सचिदानन्द ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म होता है।
श्री शंकर जी की आयु श्री विष्णु जी से 7 गुणा अधिक = 4900 वर्ष।
ब्रह्म (क्षर पुरूष) की आयु = 70 हजार शंकर की मृत्यु के पश्चात् एक ब्रह्म की मृत्यु होती है अर्थात् क्षर पुरूष की मृत्यु होती है। इतना समय अक्षर पुरूष का एक युग होता है।
अक्षर पुरूष की आयु:- गीता अध्याय 8 श्लोक 17 में कहा हैः-
सहंस्र युग पर्यन्तम् अहः यत् ब्रह्मणः विदुः।
रात्रिम् युग सहंस्रान्तम् ते अहोरात्रा विदः जनाः।। (17)
अनुवाद:- आज तक सर्व अनुवादकर्ताओं ने उचित अनुवाद नहीं किया। सबने ब्रह्मा का एक हजार चतुर्युग लिखा है, यह गलत है। मूल पाठ में “संहस्र युग” लिखा है, न कि चतुर संहस्र युग। इसलिए गीता अध्याय 8 श्लोक 17 का अनुवाद ऐसे बनता हैः- (ब्रह्मणः) अक्षर पुरूष का (यत) जो (अहः) दिन है वह (सहंस्रयुग प्रयन्तम्) एक हजार युग की अवधि वाला (विदुः) जानते हैं (ते) वे जना व्यक्ति (अहोरात्रा) दिन-रात को (विदः) जानने वाले हैं।
भावार्थ:- इस श्लोक में “ब्रह्मा” शब्द मूल पाठ में नहीं है और न ही “चतुर युग” शब्द मूल पाठ में है, इसमें “ब्रह्मण” शब्द है जिसका अर्थ सचिदानन्द ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म होता है।
प्रमाण:– गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में ब्रह्मणः का अर्थ सचिदानन्द घन ब्रह्म किया है, वह अनुवादकांे ने ठीक किया है। इस गीता अध्याय 8 श्लोक 17 में आयु का प्रकरण है। इसलिए यहाँ पर “ब्रह्मण” का अर्थ “अक्षर ब्रह्म” बनता है, यहाँ अक्षर पुरूष की आयु की जानकारी दी है। अक्षर पुरूष का एक दिन उपरोक्त एक हजार युग का होता है। 70 हजार शंकर की मृत्यु के पश्चात् एक क्षर पुरूष की मृत्यु होती है, वह समय एक युग अक्षर पुरूष का होता है। ऐसे बने हुए एक हजार युग का अक्षर पुरूष का दिन तथा इतनी ही रात्रि होती है, ऐसे 30 दिन रात्रि का एक महीना तथा 12 महीनों का अक्षर पुरूष का एक वर्ष तथा 100 वर्ष की अक्षर पुरूष की आयु है। इसके पश्चात् इसकी मृत्यु होती है, इसलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष दोनों नाशवान कहे हैं। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में जो वास्तव में अविनाशी परमात्मा कहा है। यह परमात्मा सर्व प्राणियों के नष्ट होने पर भी नाश में नहीं आता।
प्रमाण:– गीता अध्याय 8 श्लोक 20 से 22 में स्पष्ट है कि वह परम अक्षर ब्रह्म सब प्राणियों के नष्ट होने पर भी कभी नष्ट नहीं होता।
उदाहरण:– जैसे सफेद मिट्टी के बने कप-प्लेट होते हैं, उनका ज्ञान है कि हाथ से छूटे और पक्के फर्श पर गिरे और टूटे अर्थात् नाशवान “क्षर” है, यह स्थिति तो क्षर पुरूष की जानो।
उदाहरण:– जैसे सफेद मिट्टी के बने कप-प्लेट होते हैं, उनका ज्ञान है कि हाथ से छूटे और पक्के फर्श पर गिरे और टूटे अर्थात् नाशवान “क्षर” है, यह स्थिति तो क्षर पुरूष की जानो।
2. दूसरे कप-प्लेट स्टील (इस्पाॅत) के बने हों, वे बहुत समय उपरान्त जंग लगकर नष्ट होते हैं, शीघ्र टूटते व नष्ट नहीं होते। मिट्टी के बने कप-प्लेट की तुलना में स्टील के कप-प्लेट चिर-स्थाई हैं, अविनाशी प्रतीत होते हैं, परन्तु हैं नाशवान। इसी प्रकार स्थिति “अक्षर पुरूष” की जानो।
3. तीसरे कप-प्लेट सोने के बने हों। वे कभी नष्ट नहीं होते, उनको जंग नहीं लगता। यह स्थिति “परम अक्षर ब्रह्म” की जानो। यह वास्तव में अविनाशी हैं, इसलिए प्रकरणवश “अक्षर” का अर्थ नाशवान भी होता है, वास्तव में अक्षर का अर्थ अविनाशी परमात्मा होता है।
3. तीसरे कप-प्लेट सोने के बने हों। वे कभी नष्ट नहीं होते, उनको जंग नहीं लगता। यह स्थिति “परम अक्षर ब्रह्म” की जानो। यह वास्तव में अविनाशी हैं, इसलिए प्रकरणवश “अक्षर” का अर्थ नाशवान भी होता है, वास्तव में अक्षर का अर्थ अविनाशी परमात्मा होता है।
उदाहरण के लिए:- गीता अध्याय 8 श्लोक 11 में मूल पाठ =
यत् अक्षरम् वेद विदः वदन्ति विशन्ति यत् यतयः बीतरागाः
यत् इच्छन्तः ब्रह्म चर्यम चरन्ति तत् ते पदम् संग्रहेण प्रवक्ष्ये (11)
अनुवाद: इस श्लोक में “अक्षर” का अर्थ अविनाशी परमात्मा के लिए हैः-(वेद विदः) तत्वदर्शी सन्त अर्थात् वेद के तात्पर्य को जानने वाले महात्मा (यत्) जिसे (यतयः) साधना रत साधक (यत्) जिस लोक में (विशन्ति) प्रवेश करते हैं और (यत्) जिस परमात्मा को (इच्छन्तः) चाहने वाले साधक (ब्रह्म चर्यम) ब्रह्मचर्य अर्थात् शिष्य परम्परा का (चरन्ति) आचरण करते हैं, (तत्) उस (पदम्) पद को (ते) तेरे लिए मैं (संग्रहेषा) संक्षेप में (प्रवक्ष्ये) कहूँगा। इस श्लोक में “अक्षर” का अर्थ अविनाशी परमात्मा ठीक है। कबीर जी ने सूक्ष्म वेद में कहा है कि –
यत् अक्षरम् वेद विदः वदन्ति विशन्ति यत् यतयः बीतरागाः
यत् इच्छन्तः ब्रह्म चर्यम चरन्ति तत् ते पदम् संग्रहेण प्रवक्ष्ये (11)
अनुवाद: इस श्लोक में “अक्षर” का अर्थ अविनाशी परमात्मा के लिए हैः-(वेद विदः) तत्वदर्शी सन्त अर्थात् वेद के तात्पर्य को जानने वाले महात्मा (यत्) जिसे (यतयः) साधना रत साधक (यत्) जिस लोक में (विशन्ति) प्रवेश करते हैं और (यत्) जिस परमात्मा को (इच्छन्तः) चाहने वाले साधक (ब्रह्म चर्यम) ब्रह्मचर्य अर्थात् शिष्य परम्परा का (चरन्ति) आचरण करते हैं, (तत्) उस (पदम्) पद को (ते) तेरे लिए मैं (संग्रहेषा) संक्षेप में (प्रवक्ष्ये) कहूँगा। इस श्लोक में “अक्षर” का अर्थ अविनाशी परमात्मा ठीक है। कबीर जी ने सूक्ष्म वेद में कहा है कि –
गुरू बिन काहू न पाया ज्ञाना, ज्यों थोथा भूष छिड़े मूढ़ किसाना।
गुरू बिन वेद पढ़े जो प्राणी, समझे ना सार रहे अज्ञानी।।
गुरू बिन वेद पढ़े जो प्राणी, समझे ना सार रहे अज्ञानी।।
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