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Wednesday, April 27, 2016

संत की पहचान sat guru ki pahichan

उस घर की हमने खोल बताओ कोण था देव पुजारा जी ।।
धरती भी नही थी , अम्बर भी नही था सकल पसारा जी .
चाँद भी नही था ,सूरज भी नही था , नही था नो लख तारा जी ।l

उस घर की हमने खोल बताओ कोण था देव पुजारा जी ।।
अल्लाह भी नही था खुदा भी नही था, नही था मुला काजी जी ।
वेद भी नही था गीता भी नही था नही था वाचनहारा जी ।।

उस घर की हमने खोल बताओ कोण था देव पुजारा जी ।।
गुरु भी नही था चेला भी नही था ,नही था ज्ञानी और ध्यानी जी ।
नाद भी नहीँ था बिन्दु भी नही था,नहीँ था साखी शब्द वाणी जी ।।

उस घर की हमने खोल बताओ कोण था देव पुजारा जी ।।
ब्रह्मा भी नहीँ था विष्णु भी नही था, नही था शंकर देवा जी
कहै कबीर सुनो भाई साधो ,सत्य था देव पुजारा जी ।।

उस घर की हमने खोल बताओ कोण था देव पुजारा जी ।।
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संत की पहचान
संत रामपाल जी महाराज वेदों, गीता जी आदि पवित्रा सद्ग्रंथों में प्रमाण मिलता है कि जब-जब धर्म की
हानि होती है व अधर्म की वृद्धि होती है तथा वर्तमान के नकली संत, महंत व गुरुओं द्वारा भक्ति मार्ग के स्वरूप को बिगाड़ दिया गया होता है। फिर परमेश्वर स्वयं आकर या अपने परमज्ञानी संत को भेज कर सच्चे ज्ञान के
द्वारा धर्म की पुनः स्थापना करता है। वह भक्ति मार्ग को शास्त्रों के अनुसार समझाता है। उसकी पहचान होती है कि वर्तमान के धर्म गुरु उसके विरोध में खड़े होकर राजा व प्रजाको गुमराह करके उसके ऊपर अत्याचार करवाते हैं। 

कबीर साहेब जी अपनी वाणी में कहते हैं कि-

जो मम संत सत उपदेश दृढ़ावै (बतावै), वाके संग सभि राड़ बढ़ावै।
या सब संत महंतन की करणी, धर्मदास मैं तो से वर्णी।।

कबीर साहेब अपने प्रिय शिष्य धर्मदास को इस वाणी में ये समझा रहे हैं कि जो मेरा संत सत भक्ति मार्ग को बताएगा उसके साथ सभी संत व महंत झगड़ा करेंगे। ये उसकी पहचान होगी। 

दूसरी पहचान वह संत सभी धर्म ग्रंथों का पूर्ण जानकार होता है। प्रमाण सतगुरु गरीबदास जी की वाणी में.

”सतगुरु के लक्षण कहूं, मधूरे बैन विनोद। चार वेदषट शास्त्रा, कहै अठारा बोध।।“

सतगुरु
गरीबदास जी महाराज अपनी वाणी में पूर्ण संत की पहचान बता रहे हैं कि वह चारों वेदों, छः शास्त्रों, अठारह पुराणों आदि सभी ग्रंथों का पूर्ण जानकार होगा अर्थात् उनका सार निकाल कर बताएगा।

यजुर्वेद अध्याय 19 मंत्र 25 ए 26 में लिखा है कि वेदों के अधूरे वाक्यों अर्थात् सांकेतिक शब्दों व एक चैथाई श्लोकों को पुरा करके विस्तार से बताएगा व तीन समय की पूजा बताएगा। 

सुबह पूर्ण परमात्मा की पूजा, दोपहर को विश्व के देवताओं का सत्कार व संध्या आरती अलग से बताएगा वह जगत का उपकारक संत होता है।

यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्रा 25 सन्धिछेदः- अर्द्ध ऋचैः उक्थानाम् रूपम् पदैः
आप्नोति निविदः। प्रणवैः शस्त्राणाम् रूपम् पयसा सोमः आप्यते। (25)

अनुवादः- जो सन्त (अर्द्ध ऋचैः) वेदों के अर्द्ध वाक्यों अर्थात् सांकेतिक शब्दों को पूर्ण करके (निविदः) आपूत्र्ति करता है (पदैः) श्लोक के चैथे भागों को अर्थात् आंशिक वाक्यों को (उक्थानम्) स्तोत्रों के (रूपम्) रूप में (आप्नोति) प्राप्त करता है अर्थात् आंशिक विवरण को पूर्ण रूप से समझता और समझाता है (शस्त्राणाम्) जैसे शस्त्रों को चलाना जानने वाला उन्हें (रूपम्) पूर्ण रूप से प्रयोग करता है एैसे पूर्ण सन्त (प्रणवैः) औंकारों अर्थात् ओम्-तत्-सत् मन्त्रों को पूर्ण रूप से समझ व समझा कर (पयसा) दध-पानी छानता है अर्थात् पानी रहित दूध जैसा तत्व ज्ञान प्रदान करता है जिससे (सोमः) अमर पुरूष अर्थात् अविनाशी परमात्मा को (आप्यते) प्राप्त करता है।वह पूर्ण सन्त वेद को जानने वाला कहा जाता है।

भावार्थः- तत्वदर्शी सन्त वह होता है जो वेदों के सांकेतिक शब्दों को पूर्ण विस्तार से वर्णन करता है जिससे पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति होती है वह वेद के जानने वाला कहा जाता है।

यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्रा 26 सन्धिछेद:- अश्विभ्याम् प्रातः सवनम् इन्द्रेण ऐन्द्रम् माध्यन्दिनम् वैश्वदैवम् सरस्वत्या तृतीयम् आप्तम् सवनम् (26)

अनुवाद:- वह पूर्ण सन्त तीन समय की साधना बताता है। (अश्विभ्याम्) सूर्य के उदय-अस्त से बने एक दिन के आधार से (इन्द्रेण) प्रथम श्रेष्ठता से सर्व देवों के मालिक पूर्ण परमात्मा की (प्रातः सवनम्) पूजा तो प्रातः काल करने को कहता है जो (ऐन्द्रम्) पूर्ण परमात्मा के लिए होती है। दूसरी (माध्यन्दिनम्) दिन के मध्य में करने को कहता है जो (वैश्वदैवम्) सर्व देवताओं के सत्कार के सम्बधित (सरस्वत्या) अमृतवाणी द्वारा साधना करने को कहता है तथा (तृतीयम्) तीसरी (सवनम्) पूजा शाम को (आप्तम्) प्राप्त करता है अर्थात् जो तीनों समय की साधना भिन्न-2 करने को कहता है वह जगत् का उपकारक सन्त है।

भावार्थः- जिस पूर्ण सन्त के विषय में मन्त्रा 25 में कहा है वह दिन में 3 तीन बार (प्रातः दिन के मध्य-तथा शाम को) साधना करने को कहता है। सुबह तो पूर्ण परमात्मा की पूजा मध्याõ को सर्व देवताओं को सत्कार के लिए तथा शाम को संध्या आरती आदि को अमृत वाणी के द्वारा करने को कहता है वह सर्व संसार का उपकार करने वाला होता है। 

यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्रा 30 सन्धिछेदः- व्रतेन दीक्षाम् आप्नोति दीक्षया आप्नोति दक्षिणाम्। दक्षिणा श्रद्धाम् आप्नोति श्रद्धया सत्यम् आप्यते (30) अनुवादः- (व्रतेन) दुव्र्यसनों का व्रत रखने से अर्थात् भांग, शराब, मांस तथा तम्बाखु आदि के सेवन से संयम रखने वाला साधक (दीक्षाम्) पूर्ण सन्त से दीक्षा को (आप्नोति) प्राप्त होता है अर्थात् वह पूर्ण सन्त का शिष्य बनता है (दीक्षया) पूर्ण सन्त दीक्षित शिष्य से (दक्षिणाम्) दान को (आप्नोति) प्राप्त होता है अर्थात् सन्त उसी से दक्षिणा लेता है जो उस से नाम ले लेता है। इसी प्रकार विधिवत्
(दक्षिणा) गुरूदेव द्वारा बताए अनुसार जो दान-दक्षिणा से धर्म करता है उस से (श्रद्धाम्) श्रद्धा को (आप्नोति) प्राप्त होता है (श्रद्धया) श्रद्धा से भक्ति करने से (सत्यम्) सदा रहने वाले सुख व परमात्मा अर्थात् अविनाशी परमात्मा को (आप्यते) प्राप्त होता है।

भावार्थ:- पूर्ण सन्त उसी व्यक्ति को शिष्य बनाता है जो सदाचारी रहे। अभक्ष्य पदार्थों का सेवन व नशीली वस्तुओं का सेवन न करने का आश्वासन देता है। पूर्ण सन्त उसी से दान ग्रहण करता है जो उसका शिष्य बन जाता है फिर गुरू देव से दीक्षा प्राप्त करके फिर दान दक्षिणा करता है उस से श्रद्धा बढ़ती है। श्रद्धा से सत्य भक्ति करने से अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति होती है अर्थात् पूर्ण मोक्ष होता है। पूर्ण संत भिक्षा व चंदा मांगता नहीं फिरेगा। 

कबीर, गुरू बिन माला फेरते गुरू बिन देते दान। गुरू बिन दोनों निष्फल है पूछो वेद पुराण।।

तीसरी पहचान तीन प्रकार के मंत्रों (नाम) को तीन बार में उपदेश करेगा जिसका वर्णन कबीर
सागर ग्रंथ पृष्ठ नं. 265 बोध सागर में मिलता है व गीता जी के अध्याय नं. 17 श्लोक 23 व सामवेद संख्या नं. 822 में मिलता है। 

कबीर सागर में अमर मूल बोध सागर पृष्ठ 265 -
तब कबीर अस कहेवे लीन्हा, ज्ञानभेद सकल कह दीन्हा।।
धर्मदास मैं कहो बिचारी, जिहिते निबहै सब संसारी।।
प्रथमहि शिष्य होय जो आई, ता कहैं पान देहु तुम भाई।।1।।
जब देखहु तुम दृढ़ता ज्ञाना, ता कहैं कहु शब्द प्रवाना।।2।।
शब्द मांहि जब निश्चय आवै, ता कहैं ज्ञान अगाध सुनावै।।3।।
दोबारा फिर समझाया है - बालक सम जाकर है ज्ञाना। तासों कहहू वचन प्रवाना।।1।।

जा को सूक्ष्म ज्ञान है भाई। ता को स्मरन देहु लखाई।।2।। 
ज्ञान गम्य जा को पुनि होई। सार शब्द जा को कह सोई।।3।।
जा को होए दिव्य ज्ञान परवेशा, ताको कहे तत्व ज्ञान उपदेशा।।4।।

उपरोक्त वाणी से स्पष्ट है कि कड़िहार गुरु (पूर्ण संत) तीन स्थिति में सार नाम तक प्रदान करता है तथा चैथी स्थिति में सार शब्द प्रदान करना होता है। क्योंकि कबीर सागर में तो प्रमाण बाद में देखा था परंतु उपदेश विधि पहले ही पूज्य दादा गुरुदेव तथा परमेश्वर कबीर साहेब जी ने हमारे पूज्य गुरुदेव को प्रदान कर दी थी
जो हमारे को शुरु से ही तीन बार में नामदान की दीक्षा करते आ रहे हैं। हमारे गुरुदेव रामपाल जी महाराज प्रथम बार में श्री गणेश जी, श्री ब्रह्मा सावित्री जी,श्री लक्ष्मी विष्णु जी, श्री शंकर पार्वती जी व माता शेरांवाली का नाम जाप देते हैं।जिनका वास हमारे मानव शरीर में बने चक्रों में होता है। मूलाधार चक्र में श्री गणेश जी का वास, स्वाद चक्र में ब्रह्मा सावित्री जी का वास, नाभि चक्र में लक्ष्मी विष्णु जी का वास, हृदय चक्र में शंकर पार्वती जी का वास, कंठ चक्र में शेरांवाली माता का वास है और इन सब देवी-देवताओं के आदि अनादि नाम मंत्रा
होते हैं जिनका वर्तमान में गुरुओं को ज्ञान नहीं है। इन मंत्रों के जाप से ये पांचों चक्र खुल जाते हैं। इन चक्रों के खुलने के बाद मानव भक्ति करने के लायक बनता है। 

सतगुरु गरीबदास जी अपनी वाणी में प्रमाण देते हैं कि:--
पांच नाम गुझ गायत्री आत्म तत्व जगाओ। ¬ किलियं हरियम् श्रीयम् सोहं ध्याओ।।

भावार्थ: पांच नाम जो गुझ गायत्राी है। इनका जाप करक े आत्मा का े जागृत करा।े

दूसरी बार में दो अक्षर का जाप देते हैं जिनमें एक ओम् और दूसरा तत् (जो कि गुप्त है उपदेशी को बताया जाता है) जिनको स्वांस के साथ जाप किया जाता है। तीसरी बार में सारनाम देते हैं जो कि पूर्ण रूप से गुप्त है।

तीन बार में नाम जाप का प्रमाण:-- अध्याय 17 का श्लोक 23
¬, तत्, सत्, इति, निर्देशः, ब्रह्मणः, त्रिविधः, स्मृतः, ब्राह्मणाः, तेन, वेदाः, च, यज्ञाः, च,
विहिताः, पुरा।।23।।

अनुवाद: (¬) ब्रह्म का(तत्) यह सांकेतिक मंत्रा परब्रह्म का (सत्) पूर्णब्रह्म का (इति) ऐसे यह (त्रिविधः) तीन प्रकार के (ब्रह्मणः) पूर्ण परमात्मा के नाम सुमरण का (निर्देशः) संकेत (स्मृतः) कहा है (च) और (पुरा) सृष्टिके
आदिकालमें (ब्राह्मणाः) विद्वानों ने बताया कि (तेन) उसी पूर्ण परमात्मा ने (वेदाः) वेद (च) तथा (यज्ञाः) यज्ञादि (विहिताः) रचे।

संख्या न. 822 सामवेद उतार्चिक अध्याय 3 खण्ड न. 5 श्लोक न. 8
(संत रामपाल दास द्वारा भाषा-भाष्य)ः-
मनीषिभिः पवते पूव्र्यः कविर्नृभिर्यतः परि कोशां असिष्यदत्।
त्रितस्य नाम जनयन्मधु क्षरन्निन्द्रस्य वायुं सख्याय वर्धयन्।।8।।

मनीषिभिः पवते पूव्र्यः कविर् नृभिः यतः परि कोशान् असिष्यदत् त्रि तस्य नाम जनयन् मधु क्षरनः न इन्द्रस्य वायुम् सख्याय वर्धयन्। शब्दार्थ (पूव्र्यः) सनातन अर्थात् अविनाशी (कविर नृभिः) कबीर परमेश्वर मानव रूप धारण करके अर्थात् गुरु रूप में प्रकट होकर (मनीषिभिः) हृदय से चाहने वाले श्रद्धा से भक्ति करने वाले भक्तात्मा को (त्रि) तीन (नाम) मन्त्रा अर्थात् नाम उपदेश देकर (पवते) पवित्रा करके (जनयन्) जन्म व (क्षरनः) मृत्यु से (न) रहित करता है तथा (तस्य) उसके (वायुम्) प्राण अर्थात् जीवन-स्वांसों को जो
संस्कारवश गिनती के डाले हुए होते हैं को (कोशान्) अपने भण्डार से (सख्याय) मित्राता
के आधार से(परि) पूर्ण रूप से (वर्धयन्) बढ़ाता है। (यतः) जिस कारण से (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (मधु)
वास्तविक आनन्द को (असिष्यदत्) अपने आशीर्वाद प्रसाद से प्राप्त करवाता है।

भावार्थ:- इस मन्त्रा में स्पष्ट किया है कि पूर्ण परमात्मा कविर अर्थात् कबीर मानव शरीर में गुरु रूप में प्रकट होकर प्रभु प्रेमीयों को तीन नाम का जाप देकर सत्य भक्ति कराता है तथा उस मित्रा भक्त को पवित्राकरके अपने आर्शिवाद से पूर्ण परमात्मा प्राप्ति करके पूर्ण सुख प्राप्त कराता है। साधक की आयु बढाता है।

यही प्रमाण गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में है कि

ओम्-तत्-सत् इति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविद्य स्मृतः .

भावार्थ है कि पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने का ¬ (1) तत् (2) सत् (3) यह मन्त्रा जाप स्मरण करने का निर्देश है।  इस नाम को तत्वदर्शी संत से प्राप्त करो। 

तत्वदर्शी संत के विषय में गीता

अध्याय 4 श्लोक नं. 34 में कहा है तथा गीता अध्याय नं. 15 श्लोक नं. 1 व 4 में तत्वदर्शी सन्त की पहचान बताई तथा कहा है कि

तत्वदर्शी सन्त से तत्वज्ञान जानकर उसके पश्चात् उस परमपद परमेश्वर की खोज करनी चाहिए। जहां जाने के पश्चात् साधक लौट कर संसार में नहीं आते अर्थात् पूर्ण मुक्त हो जाते हैं। उसी पूर्ण परमात्मा से संसार की
रचना हुई है।

विशेष:- उपरोक्त विवरण से स्पष्ट हुआ कि पवित्रा चारों वेद भी साक्षी हैं कि पूर्ण परमात्मा ही पूजा के योग्य है, उसका वास्तविक नाम कविर्देव(कबीर परमेश्वर) है तथा तीन मंत्रा के नाम का जाप करने से ही
पूर्ण मोक्ष होता है। 

धर्मदास जी को तो परमश्ेवर कबीर साहेब जी ने सार शब्द देने से मना कर दिया था तथा कहा था कि यदि सार शब्द किसी काल के दूत के हाथ पड़ गया तो बिचली पीढ़ी वाले हंस पार नहीं हो पाऐंगे। जैसे कलयुग के प्रारम्भ में प्रथम पीढ़ी वाले भक्त अशिक्षित थे तथा कलयुग के अंत में अंतिम पीढ़ी वाले भक्त कृतघनी हो
जाऐंगे तथा 

अब वर्तमान में सन् 1947 से भारत स्वतंत्रा होने के पश्चात् बिचली पीढ़ी प्रारम्भ हुई है। सन् 1951 में सतगुरु रामपाल जी महाराज को भेजा है। अब सर्व भक्तजन शिक्षित हैं। शास्त् अपने पास विद्यमान हैं। अब यह सत मार्ग सत साधना पूरे संसार में फैलेगा तथा नकली गुरु तथा संत, महंत छुपते फिरेंगे। 

इसलिए कबीर सागर, जीव धर्म बोध, बोध सागर, पृष्ठ 1937 पर:-

धर्मदास तोहि लाख दुहाई, सार शब्द कहीं बाहर नहीं जाई।
सार शब्द बाहर जो परि है, बिचली पीढ़ी हंस नहीं तरि है।

पुस्तक “धनी धर्मदास जीवन दर्शन एवं वंश परिचय” के पृष्ठ 46 पर लिखा है कि ग्यारहवीं पीढ़ी को गद्दी नहीं मिली। जिस महंत जी का नाम “धीरज नाम साहब” कवर्धा में रहता था। उसके बाद बारहवां महंत उग्र नाम साहेब ने दामाखेड़ा में गद्दी की स्थापना की तथा स्वयं ही महंत बन बैठा। इससे पहले दामाखेड़ा में गद्दी नहीं थी। इससे स्पष्ट है कि पूरे विश्व में सतगुरु रामपाल जी महाराज के अतिरिक्त वास्तविक भक्ति मार्ग नहीं है। सर्व प्रभु प्रेमी श्रद्धालुओं से प्रार्थना है कि प्रभु का भेजा हुआ दास जान कर अपना कल्याण करवाऐं।

यह संसार समझदा नाहीं, कहन्दा श्याम दोपहरे नूं। 
गरीबदास यह वक्त जात है, रोवोगे इस पहरेनूं।।

बारहवें पंथ (गरीबदास पंथ बारहवां पंथ लिखा है कबीर सागर, कबीर चरित्रा बोध पृष्ठ 1870 पर) के विषय में कबीर सागर कबीर वाणी पृष्ठ नं. 136.137 पर वाणी लिखी है कि:-

सम्वत् सत्रासै पचहत्तर होई, तादिन प्रेम प्रकटें जग सोई।
साखी हमारी ले जीव समझावै, असंख्य जन्म ठौर नहीं पावै।
बारवें पंथ प्रगट ह्नै बानी, शब्द हमारे की निर्णय ठानी।
अस्थिर घर का मरम न पावैं, ये बारा पंथ हमही को ध्यावैं।
बारवें पंथ हम ही चलि आवैं, सब पंथ मेटि एक ही पंथ चलावें।

धर्मदास मोरी लाख दोहाई, सार शब्द बाहर नहीं जाई।
सार शब्द बाहर जो परही, बिचली पीढी हंस नहीं तरहीं।
तेतिस अर्ब ज्ञान हम भाखा, सार शब्द गुप्त हम राखा।
मूल ज्ञान तब तक छुपाई, जब लग द्वादश पंथ मिट जाई।

यहां पर साहेब कबीर जी अपने शिष्य धर्मदास जी को समझाते हैं कि संवत् 1775 में मेरे ज्ञान का प्रचार होगा जो बारहवां पंथ होगा। बारहवें पंथ में हमारी वाणी प्रकट होगी लेकिन सही भक्ति मार्ग नहीं होगा। फिर बारहवें पंथ में हम ही चल कर आएगें और सभी पंथ मिटा कर केवल एक पंथ चलाएंगे। लेकिन धर्मदास तुझे लाख
सौगंध है कि यह सार शब्द किसी कुपात्रा को मत दे देना नहीं तो बिचली पीढ़ी के हंस पार नहीं हो सकेंगे। इसलिए जब तक बारह पंथ मिटा कर एक पंथ नहीं चलेगा तब तक मैं यह मूल ज्ञान छिपा कर रखूंगा। संत 

गरीबदास जी महाराज की वाणी में नाम का महत्व:--

नाम अभैपद ऊंचा संतों, नाम अभैपद ऊंचा। राम दुहाई साच कहत हूं, सतगुरु से पूछा।।

कहै कबीर पुरुष बरियामं, गरीबदास एक नौका नामं।।
नाम निरंजन नीका संतों, नाम निरंजन नीका।
तीर्थ व्रत थोथरे लागे, जप तप संजम फीका।।
गज तुरक पालकी अर्था, नाम बिना सब दानं व्यर्था।

कबीर, नाम गहे सो संत सुजाना, नाम बिना जग उरझाना।
ताहि ना जाने ये संसारा, नाम बिना सब जम के चारा।।

संत नानक साहेब जी की वाणी में नाम कामहत्व:--

नानक नाम चढ़दी कलां, तेरे भाणे सबदा भला।
नानक दुःखिया सब संसार, सुखिया सोय नाम आधार।।
जाप ताप ज्ञान सब ध्यान, षट शास्त्रा सिमरत व्याखान।
जोग अभ्यास कर्म धर्म सब क्रिया, सगल त्यागवण मध्य फिरिया।
अनेक प्रकार किए बहुत यत्ना, दान पूण्य होमै बहु रत्ना।
शीश कटाये होमै कर राति, व्रत नेम करे बहु भांति।।
नहीं तुल्य राम नाम विचार, नानक गुरुमुख नाम जपिये एक बार।।

(परम पूज्य कबीर साहेब(कविर् देव) की अमृतवाणी)

संतो शब्दई शब्द बखाना।।टेक।।
शब्द फांस फँसा सब कोई शब्द नहीं पहचाना।।
प्रथमहिं ब्रह्म स्वं इच्छा ते पाँचै शब्द उचारा।
सोहं, निरंजन, रंरकार, शक्ति और ओंकारा।।
पाँचै तत्व प्रकृति तीनों गुण उपजाया। लोक
द्वीप चारों खान चैरासी लख बनाया।।
शब्दइ काल कलंदर कहिये शब्दइ भर्म भुलाया।।
पाँच शब्द की आशा में सर्वस मूल गंवाया।।
शब्दइ ब्रह्म प्रकाश मेंट के बैठे मूंदे द्वारा। 
शब्दइ निरगुण शब्दइ सरगुण शब्दइ वेद पुकारा।।
शुद्ध ब्रह्म काया के भीतर बैठ करे स्थाना।
ज्ञानी योगी पंडित औ सिद्ध शब्द में उरझाना।।

पाँचइ शब्द पाँच हैं मुद्रा काया बीचठिकाना। 
जो जिहसंक आराधन करता सो तिहि करत बखाना।।

शब्द निरंजन चांचरी मुद्रा है नैनन के माँही।
ताको जाने गोरख योगी महा तेज तप माँही।।

शब्द ओंकार भूचरी मुद्रा त्रिकुटी है स्थाना।
व्यास देव ताहि पहिचाना चांद सूर्य तिहि जाना।।

सोहं शब्द अगोचरी मुद्रा भंवर गुफा स्थाना।
शुकदेव मुनी ताहि पहिचाना सुन अनहद को काना।।

शब्द रंरकार खेचरी मुद्रा दसवें द्वार ठिकाना। 
ब्रह्मा विष्णु महेश आदि लो रंरकार पहिचाना।।

शक्ति शब्द ध्यान उनमुनी मुद्रा बसे आकाश सनेही। 
झिलमिल झिलमिल जोत दिखावे जाने जनक विदेही।l

पाँच शब्द पाँच हैं मुद्रा सो निश्चय कर जाना।
आगे पुरुष पुरान निःअक्षर तिनकी खबर नजाना।।

नौ नाथ चैरासी सिद्धि लो पाँच शब्द में अटके। 
मुद्रा साध रहे घट भीतर फिर ओंधे मख्ुा लटके।।

पाँच शब्द पाँच है मुद्रा लोक द्वीप यमजाला।
कहैं कबीर अक्षर के आगे निःअक्षर काउजियाला।।

जैसा कि इस शब्द ‘‘संतो शब्दई शब्द बखाना‘‘ में लिखा है कि सभी संत जन शब्द (नाम) की महिमा सुनाते हैं। पूर्णब्रह्म कबीर साहिब जी ने बताया है कि शब्द सतपुरुष का भी है जो कि सतपुरुष का प्रतीक है व ज्योति निरंजन(काल) का प्रतीक भी शब्द ही है। 

जैसे शब्द ज्योति निरंजन यह चांचरी मुद्रा को प्राप्त करवाता है इसको गोरख योगी ने बहुत अधिक तप करके प्राप्त किया जो कि आम(साधारण) व्यक्ति के बस की बात नहीं है और फिर गोरख नाथ काल तक ही साधना करके सिद्ध बन गए। मुक्त नहीं हो पाए। जब कबीर साहिब ने सत्यनाम तथा सार नाम दिया तब काल से छुटकारा गोरख नाथ जी का हुआ। इसीलिए ज्योति निरंजन नाम का जाप करने वाले काल जाल से
नहीं बच सकते अर्थात् सत्यलोक नहीं जा सकते। 

शब्द ओंकार(ओ3म) का जाप करने से भूंचरी मुद्रा की स्थिति में साधक आ जाता हे। जो कि वेद व्यास ने साधना की और काल जाल में ही रहा। सोहं नाम के जाप से अगोचरी मुद्रा की स्थिति हो जाती है और काल के लोक में बनी भंवर गुफा में पहुँच जाते हैं। जिसकी साधना सुखदेव ऋषि ने की और केवल श्री विष्णु जी के लोक में बने स्वर्ग तक पहुँचा। 

शब्द रंरकार खैचरी मुद्रा दसमें द्वार(सुष्मणा) तक पहुँच जाते हंै। ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों ने ररंकार को ही सत्य मान कर काल के जाल में उलझे रहे। 

शक्ति(श्रीयम्) शब्द ये उनमनी मुद्रा को प्राप्त करवा देता है जिसको राजा जनक ने प्राप्त किया परन्तु मुक्ति नहीं हुई। कई संतों ने पाँच नामों में शक्ति की जगह सत्यनाम जोड़ दिया है जो कि सत्यनाम कोई जाप नहीं है। ये तो सच्चे नाम की तरफ ईशारा है जैसे सत्यलोक को सच्च खण्ड भी कहते हैं एैसे ही सत्यनाम व सच्चा नाम है। केवल सत्यनाम-सत्यनाम जाप करने का नहीं है।

इन पाँच शब्दों की साधना करने वाले नौ नाथ तथा चैरासी सिद्ध भी इन्हीं तक सीमित रहे तथा शरीर में (घट में) ही धुनि सुनकर आनन्द लेते रहे। 

वास्तविक सत्यलोक स्थान तो शरीर (पिण्ड) से (अण्ड) ब्रह्मण्ड से पार है, इसलिए फिर माता के गर्भ में आए (उलटे लटके) अर्थात् जन्म-मृत्यु का कष्ट समाप्त नहीं हुआ। जो भी उपलब्धि (घट) शरीर में होगी वह तो काल (ब्रह्म) तक की ही है, क्योंकि पूर्ण परमात्मा का निज स्थान (सत्यलोक) तथा उसी के शरीर का प्रकाश तो परब्रह्म आदि से भी अधिक तथा बहुत आगे(दूर) है। 

उसके लिए तो पूर्ण संत ही पूरी साधना बताएगा जो पाँच नामों (शब्दों) से भिन्न है। 

संतों सतगुरु मोहे भावै, जो नैनन अलख लखावै।।
ढोलत ढिगै ना बोलत बिसरै, सत उपदेश दृढ़ावै।।

आंख ना मूंदै कान ना रूदैं ना अनहद उरझावै।
प्राण पूंज क्रियाओं से न्यारा, सहज समाधी बतावै।।

घट रामायण के रचयिता आदरणीय तुलसीदास
साहेब जी हाथ रस वाले स्वयं कहते हैं कि:-
 
(घट रामायण प्रथम भाग पृष्ठ नं. 27)।

पाँचों नाम काल के जानौ तब दानी मन संका आनौ।
सुरति निरत लै लोक सिधाऊँ, आदिनाम ले काल गिराऊँ।
सतनाम ले जीव उबारी, अस चल जाऊँ पुरुष दरबारी।।

कबीर, कोटि नाम संसार में , इनसे मुक्ति न हो।
सार नाम मुक्ति का दाता, वाको जाने न कोए।।

गुरु नानक जी की वाणी में तीन नाम का 
प्रमाण:--

पूरा सतगुरु सोए कहावै, दोय अखर का भेद बतावै।
एक छुड़ावै एक लखावै, तो प्राणी निज घर जावै।।
जै पंडित तु पढ़िया, बिना दउ अखर दउ नामा।
परणवत नानक एक लंघाए, जे कर सच समावा।

वेद कतेब सिमरित सब सांसत, इन पढ़ि मुक्ति न होई।।
एक अक्षर जो गुरुमुख जापै, तिस की निरमल होई।।

भावार्थ: गुरु नानक जी महाराज अपनी वाणी द्वारा समाझाना चाहते हैं कि पूरा सतगुरु वही है जो दो अक्षर के जाप के बारे में जानता है। जिनमें एक काल व माया के बंधन से छुड़वाता है और दूसरा परमात्मा को दिखाता है और तीसरा जो एक अक्षर है वो परमात्मा से मिलाता है।

संत गरीबदास जी महाराज की अमृत वाणी में स्वांस के नाम का प्रमाण:--

गरीब, स्वांसा पारस भेद हमारा, जो खोजे सो उतरे पारा।
स्वांसा पारा आदि निशानी, जो खोजे सो होए दरबानी।
स्वांसा ही में सार पद, पद में स्वांसा सार। 
दम देही का खोज करो, आवागमन निवार।।
गरीब, स्वांस सुरति के मध्य है, न्यारा कदे नहीं होय।
सतगुरु साक्षी भूत कूं, राखो सुरति समोय।।

गरीब, चार पदार्थ उर में जोवै, सुरति निरति मनपवन समोवै।
सुरति निरति मन पवन पदार्थ(नाम), करो इक्तर यार।

द्वादस अन्दर समोय ले, दिल अंदर दीदार।
कबीर, कहता हूं कहि जात हूं, कहूं बजा कर ढोल।
स्वांस जो खाली जात है, तीन लोक का मोल।।
कबीर, माला स्वांस उस्वांस की, फेरेंगे निज दास। 
चैरासी भ्रमे नहीं, कटैं कर्म की फांस।।

गुरु नानक देव जी की वाणी में प्रमाण:--

चहऊं का संग, चहऊं का मीत, जामै चारि हटावै नित।
मन पवन को राखै बंद, लहे त्रिकुटी त्रिवैणी संध।।
अखण्ड मण्डल में सुन्न समाना, मन पवन सच्च खण्ड टिकाना।।

पूर्ण सतगुरु वही है जो तीन बार में नाम दे और स्वांस की क्रिया के साथ सुमिरण का
तरीका बताए। तभी जीव का मोक्ष संभव है। जैसे परमात्मा सत्य है। ठीक उसी प्रकार परमात्मा का साक्षात्कार व मोक्ष प्राप्त करने का तरीका भी आदि अनादि व सत्य है जो कभी नहीं बदलता है। 

गरीबदास जी महाराज अपनी वाणी में कहते हैं:

भक्ति बीज पलटै नहीं, युग जांही असंख। 
सांई सिर पर राखियो, चैरासी नहीं शंक।।

घीसा आए एको देश से, उतरे एको घाट। 
समझों का मार्ग एक है, मूर्ख बारह बाट।।

कबीर भक्ति बीज पलटै नहीं, आन पड़ै बहु झोल।
जै कंचन बिष्टा परै, घटै न ताका मोल।।

बहुत से महापुरुष सच्चे नामों के बारे में नहीं जानते। वे मनमुखी नाम देते हैं जिससे न सुख होता है और न ही मुक्ति होती है। कोई कहता है तप, हवन, यज्ञ आदि करो व कुछ महापुरुष आंख, कान और मुंह बंद करके अन्दर ध्यान लगाने की बात कहते हैं जो कि यह उनकी मनमुखी साधना का प्रतीक है।

जबकि कबीर साहेब, संत गरीबदास जी महाराज, गुरु नानक देव जी आदि परम संतों ने सारी क्रियाओं को मना करके केवल एक नाम जाप करने को ही कहा है। 

एक (Nostradamus Predictions) नैसत्रो दमस नामक भविष्य वक्ता था। जिसकी सर्व भविष्य वाणियां सत्य हो रही हैं जो लगभग चार सौ वर्ष पूर्व लिखी व बोली गई थी। उसने कहा है कि सन् 2006 में एक हिन्दू संत प्रकट होगा अर्थात् संसार में उसकी चर्चा होगी। वह संत न तो मुसलमान होगा, न वह इसाई होगा वह केवल हिन्दू ही होगा। उस द्वारा बताया गया भक्ति मार्ग सर्व से भिन्न तथा तथ्यों पर आधारित होगा। उसको ज्ञान
में कोई पराजित नहीं कर सकेगा। 

सन् 2006 में उस संत की आयु 50 व 60 वर्ष के बीच होगी। (संत रामपाल जी महाराज का जन्म 8 सितम्बर
सन् 1951 को हुआ। जुलाई सन् 2006 में संत जी की आयु ठीक 55 वर्ष बनती है जो भविष्यवाणी अनुसार सही है।) 

उस हिन्दू संत द्वारा बताए गए ज्ञान को पूरा संसार स्वीकार करेगा। उस हिन्दू संत की अध्यक्षता में सर्व संसार में भारत वर्ष का शासन होगा तथा उस संत की आज्ञा से सर्व कार्य होंगे। उसकी महिमा आसमानों से ऊपर होंगी।नैसत्रो दमस द्वारा बताया सांकेतिक संत रामपाल जी महाराज हैं जो सन् 2006 में विख्यात हुए हैं। भले ही अनजानों ने बुराई करके प्रसिद्ध किया है परंतु संत में कोई दोष नहीं है। उपरोक्त लक्षण जो बताए हैं ये सभी तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज में विद्यमान हैं।
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Tuesday, February 23, 2016

नाम उठत नाम बैठत नाम सोवत जागरे।

नाम उठत नाम बैठत नाम सोवत जागरे।
नाम खाते नाम पीते नाम सेती लागरे।।
नाम उठत नाम बैठत नाम शीश सुभान बे ।
नाम असल असल मीरा नाम पर कुरभान बे ।।
सुमीरन सौं मन लाइऐ जेसै पानी मीन ।
प्राण तजे पल बिछुडे साहेब कबीर कह दीन ।।
सतनाम सुमरले प्राण जहांगें छुट।
घर के प्यारे अादमी चलते लैंगे लुट।।
सत साहेब जी....

Thursday, December 31, 2015

नाम लेने वाले व्यक्तियों के लिए आवश्यक जानकारी

पूर्ण गुरु की पहचान संत रामपाल जी महाराज

आज कलियुग में भक्त समाज के सामने पूर्ण गुरु की पहचान करना सबसे जटिल प्रश्न बना हुआ है। लेकिन इसका बहुत ही लघु और साधारण–सा उत्तर है कि जो गुरु शास्त्रो के अनुसार भक्ति करता है और अपने अनुयाईयों अर्थात शिष्यों द्वारा करवाता है वही पूर्ण संत है। चूंकि भक्ति मार्ग का संविधान धार्मिक शास्त्र जैसे – कबीर साहेब की वाणी, नानक साहेब की वाणी, संत गरीबदास जी महाराज की वाणी, संत धर्मदास जी साहेब की वाणी, वेद, गीता, पुराण, कुरआन, पवित्र बाईबल आदि हैं। जो भी संत शास्त्रो के अनुसार भक्ति साधना बताता है और भक्त समाज को मार्ग दर्शन करता है तो वह पूर्ण संत है अन्यथा वह भक्त समाज का घोर दुश्मन है जो शास्त्रो के विरूद्ध साधना करवा रहा है। इस अनमोल मानव जन्म के साथ खिलवाड़ कर रहा है। ऐसे गुरु या संत को भगवान के दरबार में घोर नरक में उल्टा लटकाया जाएगा।


उदाहरण के तौर पर जैसे कोई अध्यापक सलेबस (पाठयक्रम) से बाहर की शिक्षा देता है तो वह उन विद्यार्थियों का दुश्मन है।

गीता अध्याय नं. 7 का श्लोक नं. 15

न, माम्, दुष्कतिनः, मूढाः, प्रपद्यन्ते, नराधमाः,
मायया, अपहृतज्ञानाः, आसुरम्, भावम्, आश्रिताः।।
अनुवाद: माया के द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है ऐसे आसुर स्वभावको धारण किये हुए मनुष्यों में नीच दूषित कर्म करनेवाले मूर्ख मुझको नहीं भजते अर्थात् वे तीनों गुणों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) की साधना ही करते रहते हैं।

यजुर्वेद अध्याय न. 40 श्लोक न. 10 (संत रामपाल दास जी द्वारा भाषा-भाष्य)
अन्यदेवाहुःसम्भवादन्यदाहुरसम्भवात्, इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे।।10।।
हिन्दी अनुवाद:- परमात्मा के बारे में सामान्यत निराकार अर्थात् कभी न जन्मने वाला कहते हैं। दूसरे आकार में अर्थात् जन्म लेकर अवतार रूप में आने वाला कहते हैं। जो टिकाऊ अर्थात् पूर्णज्ञानी अच्छी प्रकार सुनाते हैं उसको इस प्रकार सही तौर पर वही समरूप अर्थात् यथार्थ रूप में भिन्न-भिन्न रूप से प्रत्यक्ष ज्ञान कराते हैं।

गीता अध्याय नं. 4 का श्लोक नं. 34
तत्, विद्धि, प्रणिपातेन, परिप्रश्नेन, सेवया,
उपदेक्ष्यन्ति, ते, ज्ञानम्, ज्ञानिनः, तत्वदर्शिनः।।
अनुवाद: उसको समझ उन पूर्ण परमात्मा के ज्ञान व समाधान को जानने वाले संतोंको भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करनेसे उनकी सेवा करनेसे और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे परमात्म तत्व को भली भाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञानका उपदेश करेंगे।

1. नशीली वस्तुओं का सेवन निषेध संत रामपाल जी महाराज
हुक्का, शराब, बीयर, तम्बाखु, बीड़ी, सिगरेट, हुलास सुंघना, गुटखा, मांस, अण्डा, सुल्फा, अफीम, गांजा और अन्य नशीली चीजों का सेवन तो दूर रहा किसी को नशीली वस्तु लाकर भी नहीं देनी है। बन्दी छोड़ गरीबदास जी महाराज इन सभी नशीली वस्तुओं को बहुत बुरा बताते हुए अपनी वाणी में कहते हैं कि -

सुरापान मद्य मांसाहारी, गमन करै भोगैं पर नारी। 
सतर जन्म कटत हैं शीशं, साक्षी साहिब है जगदीशं।।
पर द्वारा स्त्री का खोलै, सतर जन्म अंधा होवै डोलै। 
मदिरा पीवै कड़वा पानी, सत्तर जन्म श्वान के जानी।।
गरीब, हुक्का हरदम पिवते, लाल मिलावैं धूर। 
इसमें संशय है नहीं, जन्म पिछले सूर।।1।।
गरीब, सो नारी जारी करै, सुरा पान सौ बार। 
एक चिलम हुक्का भरै, डुबै काली धार।।2।।
गरीब, सूर गऊ कुं खात है, भक्ति बिहुनें राड। 
भांग तम्बाखू खा गए, सो चाबत हैं हाड।।3।।
गरीब, भांग तम्बाखू पीव हीं, सुरा पान सैं हेत। 
गौस्त मट्टी खाय कर, जंगली बनें प्रेत।।4।।
गरीब, पान तम्बाखू चाब हीं, नास नाक में देत। 
सो तो इरानै गए, ज्यूं भड़भूजे का रेत।।5।।
गरीब, भांग तम्बाखू पीव हीं, गोस्त गला कबाब। 
मोर मग कूं भखत हैं, देगें कहां जवाब।। 6।।


2. तीर्थ स्थानों पर जाना निषेध

किसी प्रकार का कोई व्रत नहीं रखना है। कोई तीर्थ यात्रा नहीं करनी, न कोई गंगा स्नान आदि करना, न किसी अन्य धार्मिक स्थल पर स्नानार्थ व दर्शनार्थ जाना है। किसी मन्दिर व ईष्ट धाम में पूजा व भक्ति के भाव से नहीं जाना कि इस मन्दिर में भगवान है। भगवान कोई पशु तो है नहीं कि उसको पुजारी जी ने मन्दिर में बांध रखा है। भगवान तो कण–कण में व्यापक है। ये सभी साधनाएँ शास्त्रो के विरुद्ध हैं।

ऐसे संतों की तलाश करो जो शास्त्रो के अनुसार पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब की भक्ति करते व बताते हों। फिर जैसे वे कहे केवल वही करना, अपनी मन मानी नहीं करना।
सामवेद संख्या नं. 1400 उतार्चिक अध्याय नं. 12 खण्ड नं. 3 श्लोक नं. 5(संत रामपाल दास द्वारा भाषा-भाष्य) :-
भद्रा वस्त्रा समन्या3वसानो महान् कविर्निवचनानि शंसन्।
आ वच्यस्व चम्वोः पूयमानो विचक्षणो जागविर्देववीतौ।।5।।
हिन्दी:- चतुर व्यक्तियों ने अपने वचनों द्वारा पूर्ण परमात्मा (पूर्ण ब्रह्म) की पूजा का सत्यमार्ग दर्शन न करके अमत के स्थान पर आन उपासना (जैसे भूत पूजा, पितर पूजा, श्राद्ध निकालना, तीनों गुणों की पूजा (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शंकर) तथा ब्रह्म-काल की पूजा मन्दिर-मसजिद-गुरूद्वारों-चर्चों व तीर्थ-उपवास तक की उपासना) रूपी फोड़े व घाव से निकले मवाद को आदर के साथ आचमन करा रहे होते हैं। उसको परमसुखदायक पूर्ण ब्रह्म कबीर सहशरीर साधारण वेशभूषा में (‘‘वस्त्रा का अर्थ है वेशभूषा-संत भाषा में इसे चोला भी कहते हैं। जैसे कोई संत शरीर त्याग जाता है तो कहते हैं कि महात्मा तो चोला छोड़ गए।‘‘) सत्यलोक वाले शरीर के समान दूसरा तेजपुंज का शरीर धारण करके आम व्यक्ति की तरह जीवन जी कर कुछ दिन संसार में रह कर अपनी शब्द-साखियों के माध्यम से सत्यज्ञान को वर्णन करके पूर्ण परमात्मा के छुपे हुए वास्तविक सत्यज्ञान तथा भक्ति को जाग्रत करते हैं।


गीता अध्याय नं. 16 का श्लोक नं. 23
यः, शास्त्रविधिम्, उत्सज्य, वर्तते, कामकारतः, न, सः,
सिद्धिम्, अवाप्नोति, न, सुखम्, न, पराम्, गतिम्।।
अनुवाद: जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है वह न सिद्धि को प्राप्त होता है न परम गति को और न सुख को ही।

गीता अध्याय नं. 6 का श्लोक नं. 16
न, अति, अश्र्नतः, तु, योगः, अस्ति, न, च, एकान्तम्,
अनश्र्नतः, न, च, अति, स्वप्नशीलस्य, जाग्रतः, न, एव, च, अर्जुन।।
अनुवाद: हे अर्जुन! यह योग अर्थात् भक्ति न तो बहुत खाने वाले का और न बिल्कुल न खाने वाले का न एकान्त स्थान पर आसन लगाकर साधना करने वाले का तथा न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।


पूजैं देई धाम को, शीश हलावै जो। 
गरीबदास साची कहै, हद काफिर है सो।।
कबीर, गंगा काठै घर करै, पीवै निर्मल नीर। 
मुक्ति नहीं हरि नाम बिन, सतगुरु कहैं कबीर।।
कबीर, तीर्थ कर-कर जग मूवा, उडै पानी न्हाय। 
राम ही नाम ना जपा, काल घसीटे जाय।।
गरीब, पीतल ही का थाल है, पीतल का लोटा। 
जड़ मूरत को पूजतें, आवैगा टोटा।।
गरीब, पीतल चमच्चा पूजिये, जो थाल परोसै। 
जड़ मूरत किस काम की, मति रहो भरोसै।।
कबीर, पर्वत पर्वत मैं फिर्या, कारण अपने राम। 
राम सरीखे जन मिले, जिन सारे सब काम।।

3. पितर पूजा निषेध
किसी प्रकार की पितर पूजा, श्राद्ध निकालना आदि कुछ नहीं करना है। भगवान श्री कृष्ण जी ने भी इन पितरों की व भूतों की पूजा करने से साफ मना किया है। गीता जी के अध्याय नं. 9 के श्लोक नं. 25 में कहा है कि -
यान्ति, देवव्रताः, देवान्, पितऋन्, यान्ति, पितव्रताः।
भूतानि, यान्ति, भूतेज्याः, मद्याजिनः, अपि, माम्।
अनुवाद: देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मतानुसार पूजन करने वाले भक्त मुझसे ही लाभान्वित होते हैं।
बन्दी छोड़ गरीबदास जी महाराज और कबीर साहिब जी महाराज भी कहते हैं ।

‘गरीब, भूत रमै सो भूत है, देव रमै सो देव। 
राम रमै सो राम है, सुनो सकल सुर भेव।।‘‘
इसलिए उस(पूर्ण परमात्मा) परमेश्वर की भक्ति करो जिससे पूर्ण मुक्ति होवे। वह परमात्मा पूर्ण ब्र सतपुरुष(सत कबीर) है। इसी का प्रमाण गीता जी के अध्याय नं. 18 के श्लोक नं. 46 में है।
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यच्र्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।46।।
अनुवाद: जिस परमेश्वरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वरकी अपने स्वाभाविक कर्मोंद्वारा पूजा करके मनुष्य परमसिद्धिको प्राप्त हो जाता है।।63।।

गीता अध्याय नं. 18 का श्लोक नं. 62:--
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।62।।
अनुवाद: हे भरतवंशोभ्द्रव अर्जुन! तू सर्वभावसे उस ईश्वरकी ही शरणमें चला जा। उसकी कृपासे तू परम शान्ति (संसारसे सर्वथा उपरति) को और अविनाशी परमपदको प्राप्त हो जायगा।

4. सर्वभाव का तात्पर्य है कि कोई अन्य पूजा न करके मन-कर्म-वचन से एक परमेश्वर में आस्था रखना।
गीता अध्याय नं. 8 का श्लोक नं. 22:--
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।।22।।
अनुवाद: हे पृथानन्दन अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जिसके अन्तर्गत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, वह परम पुरुष परमात्मा तो अनन्यभक्तिसे प्राप्त होनेयोग्य है।
अनन्य भक्ति का तात्पर्य है एक परमेश्वर (पूर्ण ब्रह्म) की भक्ति करना, दूसरे देवी-देवताओं अर्थात् तीनों गुणों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) की नहीं। गीता जी के अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 1 से 4:--

गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 1
ऊध्र्वमूलम्, अधःशाखम्, अश्वत्थम्, प्राहुः, अव्ययम्,
छन्दांसि, यस्य, पर्णानि, यः, तम्, वेद, सः, वेदवित्।।1।।
अनुवाद: ऊपर को जड़ वाला नीचे को शाखा वाला अविनाशी विस्तृत संसार रूपी पीपल का वृक्ष है, जिसके छोटे-छोटे हिस्से या टहनियाँ, पत्ते कहे हैं, उस संसार रूप वृक्ष को जो इस प्रकार जानता है। वह पूर्ण ज्ञानी अर्थात् तत्वदर्शी है।
गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 2
अधः, च, ऊध्र्वम्, प्रसृताः, तस्य, शाखाः, गुणप्रवृद्धाः, विषयप्रवालाः,
अधः, च, मूलानि, अनुसन्ततानि, कर्मानुबन्धीनि, मनुष्यलोके।।2।।
अनुवाद: उस वृक्षकी नीचे और ऊपर तीनों गुणों ब्रह्मा-रजगुण, विष्णु-सतगुण, शिव-तमगुण रूपी फैली हुई विकार काम क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार रूपी कोपल डाली ब्रह्मा, विष्णु, शिव ही जीवको कर्मोमें बाँधने की भी जड़ें अर्थात् मूल कारण हैं तथा मनुष्यलोक, स्वर्ग, नरक लोक पृथ्वी लोक में नीचे (चैरासी लाख जूनियों में) ऊपर व्यस्थित किए हुए हैं।

गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 3
न, रूपम्, अस्य, इह, तथा, उपलभ्यते, न, अन्तः, न, च, आदिः, न, च,
सम्प्रतिष्ठा, अश्वत्थम्, एनम्, सुविरूढमूलम्, असङ्गशस्त्रोण, दढेन, छित्वा।। 3।।
अनुवाद: इस रचना का न शुरूवात तथा न अन्त है न वैसा स्वरूप पाया जाता है तथा यहाँ विचार काल में अर्थात् मेरे द्वारा दिया जा रहा गीता ज्ञान में पूर्ण जानकारी मुझे भी नहीं है क्योंकि सर्वब्रह्मण्डों की रचना की अच्छी तरह स्थिति का मुझे भी ज्ञान नहीं है इस अच्छी तरह स्थाई स्थिति वाला मजबूत स्वरूपवाले निर्लेप तत्वज्ञान रूपी दढ़ शस्त्र से अर्थात् निर्मल तत्वज्ञान के द्वारा काटकर अर्थात् निरंजन की भक्ति को क्षणिक जानकर। (3)

गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 4
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रतत्ति प्रसता पुराणी।।4।।
अनुवाद: उसके बाद उस परमपद परमात्मा की खोज करनी चाहिये। जिसको प्राप्त हुए मनुष्य फिर लौटकर संसारमें नहीं आते और जिससे अनादिकालसे चली आनेवाली यह सृष्टि विस्तारको प्राप्त हुई है, उस आदि पुरुष परमात्माके ही मैं शरण हूँ।
इस प्रकार स्वयं भगवान श्री कृषण ने इन्द्र जो देवी-देवताओं का राजा है कि पूजा भी छुड़वा कर उस परमात्मा की भक्ति करने के लिए ही प्रेरणा दी थी। जिस कारण उन्होंने गोवर्धन पर्वत को उठा कर इन्द्र के कोप से ब्रज वासियों की रक्षा की।

गरीब, इन्द्र चढ़ा ब्रिज डुबोवन, भीगा भीत न लेव।
इन्द्र कढाई होत जगत में, पूजा खा गए देव।।
कबीर, इस संसार को, समझाऊँ कै बार।
पूँछ जो पकड़ै भेढ की, उतरा चाहै पार।।

5. गुरु आज्ञा का पालनजी की आज्ञा के बिना घर में किसी भी प्रकार का धार्मिक अनुष्ठान नहीं करवाना है। जैसे बन्दी छोड़ अपनी वाणी में कहते हैं कि:-
”गुरु बिन यज्ञ हवन जो करहीं, मिथ्या जावे कबहु नहीं फलहीं।“
कबीर, गुरु बिन माला फेरते, गुरु बिन देते दान।
गुरु बिन दोनों निष्फल हैं, पूछो वेद पुराण।।

6. माता मसानी पूजना निषेध

आपने खेत में बनी मंढी या किसी खेड़े आदि की या किसी अन्य देवता की समाध नहीं पूजनी है। समाध चाहे किसी की भी हो बिल्कुल नहीं पूजनी है। अन्य कोई उपासना नहीं करनी है। यहाँ तक कि तीनों गुणों(ब्रा, विष्णु, शिव) की पूजा भी नहीं करनी है। केवल गुरु जी के बताए अनुसार ही करना है।

गीता अध्याय नं. 7 का श्लोक नं. 15
न, माम्, दुष्कतिनः, मूढाः, प्रपद्यन्ते, नराधमाः,
मायया, अपहृतज्ञानाः, आसुरम्, भावम्, आश्रिताः।।
अनुवाद: मायाके द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है ऐसे आसुर स्वभावको धारण किये हुए मनुष्य नीच दुषित कर्म करनेवाले मूर्ख मुझको नहीं भजते अर्थात् वे तीनों गुणों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) की साधना ही करते रहते हैं। कबीर, माई मसानी शेढ शीतला, भैरव भूत हनुमंत। परमात्मा उनसे दूर है, जो इनको पूजंत।। कबीर, सौ वर्ष तो गुरु की सेवा, एक दिन आन उपासी। वो अपराधी आत्मा, परै काल की फांसी।। गुरु को तजै भजै जो आना। ता पसुवा को फोकट ज्ञाना।।

7.संकट मोचन कबीर साहेब हैं

कर्म कष्ट (संकट) होने पर कोई अन्य ईष्ट देवता की या माता मसानी आदि की पूजा कभी नहीं करनी है। न किसी प्रकार की बुझा पड़वानी है। केवल बन्दी छोड़ कबीर साहिब को पूजना है जो सभी दु:खों को हरने वाले संकट मोचन हैं।
सामवेद संख्या न. 822 उतार्चिक अध्याय 3 खण्ड न. 5 श्लोक न. 8 (संत रामपाल दास द्वारा भाषा-भाष्य) :-
मनीषिभिः पवते पूव्र्यः कविनर्भिर्यतः परि कोशां असिष्यदत्।
त्रितस्य नाम जनयन्मधु क्षरन्निन्द्रस्य वायुं सख्याय वर्धयन्।।8।।
हिन्दी:-सनातन अर्थात् अविनाशी कबीर परमेश्वर हृदय से चाहने वाले श्रद्धा से भक्ति करने वाले भक्तात्मा को तीन मन्त्र उपेदश देकर पवित्र करके जन्म व मृत्यु से रहित करता है तथा उसके प्राण अर्थात् जीवन-स्वांसों को जो संस्कारवश अपने मित्र अर्थात् भक्त के गिनती के डाले हुए होते हैं को अपने भण्डार से पूर्ण रूप से बढ़ाता है। जिस कारण से परमेश्वर के वास्तविक आनन्द को अपने आशीर्वाद प्रसाद से प्राप्त करवाता है।

कबीर, देवी देव ठाढे भये, हमको ठौर बताओ। 
जो मुझ(कबीर) को पूजैं नहीं, उनको लूटो खाओ।।
कबीर, काल जो पीसै पीसना, जोरा है पनिहार। 
ये दो असल मजूर हैं, सतगुरु के दरबार।।

8.अनावश्यक दान निषेधकहीं पर और किसी को दान रूप में कुछ नहीं देना है। न पैसे, न बिना सिला हुआ कपड़ा आदि कुछ नहीं देना है। यदि कोई दान रूप में कुछ मांगने आए तो उसे खाना खिला दो, चाय, दूध, लस्सी, पानी आदि पिला दो परंतु देना कुछ भी नहीं है। न जाने वह भिक्षुक उस पैसे का दुरूपयोग करे। जैसे एक व्यक्ति ने किसी भिखारी को उसकी झूठी कहानी जिसमें वह बता रहा था कि मेरे बच्चे ईलाज बिना तड़फ रहे हैं। कुछ पैसे देने की कृपा करें को सुनकर भावनावस होकर 100 रु दे दिए। वह भिखारी पहले पाव शराब पीता था उस दिन उसने आधा बोतल शराब पीया और अपनी पत्नी को पीट डाला। उसकी पत्नी ने बच्चों सहित आत्म हत्या कर ली। आप द्वारा किया हुआ वह दान उस परिवार के नाश का कारण बना। यदि आप चाहते हो कि ऐसे दु:खी व्यक्ति की मदद करें तो उसके बच्चों को डॉक्टर से दवाई दिलवा दें, पैसा न दें।

कबीर, गुरु बिन माला फेरते, गुरु बिन देते दान। 
गुरु बिन दोनों निष्फल हैं, पूछो वेद पुरान।।

9.झूठा खाना निषेध

ऐसे व्यक्ति का झूठा नहीं खाना है जो शराब, मांस, तम्बाखु, अण्डा, बीयर, अफीम, गांजा आदि का सेवन करता हो।
10. सत्यलोक गमन(देहान्त) के बाद क्रिया–कर्म निषेध
यदि परिवार में किसी की मौत हो जाती है, चिता में अग्नि कोई भी दे सकता है, घर का या अन्य तथा अग्नि प्रज्वलित करते समय मंगलाचरण बोल दें। तो उसके फूल आदि कुछ नहीं उठाने हैं, यदि उस स्थान को साफ करना अनिवार्य है तो उन अस्थियों को उठाकर स्वयं ही किसी स्थान पर चलते पानी में बहा दें। उस समय मंगलाचरण उच्चारण कर दें। न पिंड आदि भरवाने हैं, न तेराहमी, छः माही, बरसोधी, पिंड भी नहीं भरवाने हैं तथा श्राद्ध आदि कुछ नहीं करना है। किसी भी अन्य व्यक्ति से हवन आदि नहीं करवाना है। सम्बन्धी तथा रिश्तेदारों आदि जो शोक व्यक्त करने आए उनके लिए कोई भी एक दिन नियुक्त करें। उस दिन प्रतिदिन करने वाला नित्य नियम करें, ज्योति जागत करें, फिर सर्व को खाना खिलाऐं। यदि आपने उसके (मरने वाले के) नाम पर कुछ धर्म करना है तो अपने गुरुदेव जी की आज्ञा ले कर बन्दी छोड़ गरीबदास जी महाराज की अमतमयी वाणी का अखण्ड पाठ करवाना चाहिए। यदि पाठ करने की आज्ञा न मिले तो परिवार के उपदेशी भक्त चार दिन या सात दिन घर में एक अखण्ड जोत देशी घी की जलाऐ तथा ब्रह्म गायत्री मन्त्र प्रतिदिन चार बार करें तथा तीन या एक बार के मन्त्र का दान संकल्प सतलोक वासी को करें। जैसा उचित समझे एक, दो, तीन तक मन्त्र के जाप का फल उसे दान करें। प्रतिदिन की तरह ज्योति व आरती, नाम स्मरण करते रहना है, यह याद रखते हुए किः-

कबीर, साथी हमारे चले गए, हम भी चालन हार। 
कोए कागज में बाकी रह रही, ताते लाग रही वार।। 
कबीर, देह पड़ी तो क्या हुआ, झूठा सभी पटीट। 
पक्षी उड़या आकाश कूं, चलता कर गया बीट।।

11.बच्चे के जन्म पर शास्त्र विरूद्ध पूजा निषेध
बच्चे के जन्म पर कोई छटी आदि नहीं मनानी है। सुतक के कारण प्रतिदिन की तरह करने वाली पूजा, भक्ति, आरती, ज्योति जगाना आदि बंद नहीं करनी है।
इसी संदर्भ में एक संक्षिप्त कथा बताता हूँ कि एक व्यक्ति की शादी के दस वर्ष पश्चात् पुत्र हुआ था। पुत्र की खुशी में उसने बहुत ही खुशी मनाई। बीस-पच्चीस गाँवों को भोजन के लिए आमन्त्रिात किया और बहुत ही गाना-बजाना हुआ अर्थात् काफी पैसा खर्च किया। फिर एक वर्ष के बाद उस पुत्र का देहान्त हो जाता है। फिर वही परिवार टक्कर मार कर रोता है और अपने दुर्भाग्य को कोसता है। इसलिए कबीर साहेब हमें बताते हैं कि:-

कबीर, बेटा जाया खुशी हुई, बहुत बजाये थाल। 
आना जाना लग रहा, ज्यों कीड़ी का नाल।।
कबीर, पतझड़ आवत देख कर, बन रोवै मन माहिं। 
ऊंची डाली पात थे, अब पीले हो हो जाहिं।।
कबीर, पात झडंता यूं कहै, सुन भई तरूवर राय। 
अब के बिछुड़े नहीं मिला, न जाने कहां गिरेंगे जाय।
कबीर, तरूवर कहता पात से, सुनों पात एक बात। 
यहाँ की याहे रीति है, एक आवत एक जात।।

12.देई धाम पर बाल उतरवाने जाना निषेध

बच्चे के किसी देई धाम पर बाल उतरवाने नहीं जाना है। जब देखो बाल बड़े हो गए, कटवा कर फैंक दो। एक मन्दिर में देखा कि श्रद्धालु भक्त अपने लड़के या लड़कियों के बाल उतरवाने आए। वहाँ पर उपस्थित नाई ने बाहर के रेट से तीन गुना पैसे लीये और एक कैंची भर बाल काट कर मात–पिता को दे दिए। उन्होंने श्रद्धा से मन्दिर में चढ़ाए। पुजारी ने एक थैले में डाल लिए। रात्री को उठा कर दूर एकांत स्थान पर फैंक दिए। यह केवल नाटक बाजी है। क्यों न पहले की तरह स्वाभाविक तरीके से बाल उतरवाते रहें तथा बाहर डाल दें। परमात्मा नाम से प्रसन्न होता है पाखण्ड से नहीं।

13.नाम जाप से सुख
नाम(उपदेश) को केवल दु:ख निवारण की दृष्टि कोण से नहीं लेना चाहिए बल्कि आत्म कल्याण के लिए लेना चाहिए। फिर सुमिरण से सर्व सुख अपने आप आ जाते हैं।

"कबीर, सुमिरण से सुख होत है, सुमिरण से दुःख जाए।
कहैं कबीर सुमिरण किए, सांई माहिं समाय।।"


14.व्यभिचार निषेध
पराई स्त्री को माँ–बेटी–बहन की दृष्टि से देखना चाहिए। व्याभीचार महापाप है। जैसे:--

गरीब, पर द्वारा स्त्री का खोलै। 
सत्तर जन्म अन्धा हो डोलै।।
सुरापान मद्य मांसाहारी। 
गवन करें भोगैं पर नारी।। 
सत्तर जन्म कटत हैं शीशं। 
साक्षी साहिब है जगदीशं।।
पर नारी ना परसियों, मानो वचन हमार। 
भवन चर्तुदश तास सिर, त्रिलोकी का भार।।
पर नारी ना परसियो, सुनो शब्द सलतंत। 
धर्मराय के खंभ से, अर्धमुखी लटकंत।।
15.निन्दा सुनना व करना निषेध
अपने गुरु की निंदा भूल कर भी न करें और न ही सुनें। सुनने से अभिप्राय है यदि कोई आपके गुरु जी के बारे में मिथ्या बातें करें तो आपने लड़ना नहीं है बल्कि यह समझना चाहिए कि यह बिना विचारे बोल रहा है अर्थात् झूठ कह रहा है।

गुरु की निंदा सुनै जो काना। 
ताको निश्चय नरक निदाना।।
अपने मुख निंदा जो करहीं। 
शुकर श्वान गर्भ में परहीं।।
निन्दा तो किसी की भी नहीं करनी है और न ही सुननी है।  चाहे वह आम व्यक्ति ही क्यों न हो। कबीर साहेब कहते हैं कि -

”तिनका कबहू न निन्दीये, जो पांव तले हो। 
कबहु उठ आखिन पड़े, पीर घनेरी हो।।“


16.गुरु दर्श की महिमा
सतसंग में समय मिलते ही आने की कोशिश करे तथा सतसंग में नखरे(मान–बड़ाई) करने नहीं आवे। अपितु अपने आपको एक बिमार समझ कर आवे। जैसे बिमार व्यक्ति चाहे कितने ही पैसे वाला हो, चाहे उच्च पदवी वाला हो जब हस्पताल में जाता है तो उस समय उसका उद्देश्य केवल रोग मुक्त होना होता है। जहाँ डॉक्टर लेटने को कहे लेट जाता है, बैठने को कहे बैठ जाता है, बाहर जाने का निर्देश मिले बाहर चला जाता है। फिर अन्दर आने के लिए आवाज आए चुपके से अन्दर आ जाता है। ठीक इसी प्रकार यदि आप सतसंग में आते हो तो आपको सतसंग में आने का लाभ मिलेगा अन्यथा आपका आना निष्फल है। सतसंग में जहाँ बैठने को मिल जाए वहीं बैठ जाए, जो खाने को मिल जाए उसे परमात्मा कबीर साहिब की रजा से प्रसाद समझ कर खा कर प्रस चित्त रहे।

कबीर, संत मिलन कूं चालिए, तज माया अभिमान। 
जो-जो कदम आगे रखे, वो ही यज्ञ समान।।
कबीर, संत मिलन कूं जाईए, दिन में कई-कई बार। 
आसोज के मेह ज्यों, घना करे उपकार।।
कबीर, दर्शन साधु का, परमात्मा आवै याद। 
लेखे में वोहे घड़ी, बाकी के दिन बाद।।
कबीर, दर्शन साधु का, मुख पर बसै सुहाग। 
दर्श उन्हीं को होत हैं, जिनके पूर्ण भाग।।

17.गुरु महिमा
यदि कहीं पर पाठ या सतसंग चल रहा हो या वैसे गुरु जी के दर्शनार्थ जाते हों तो सर्व प्रथम गुरु जी को दण्डवत्(लम्बा लेट कर) प्रणाम करना चाहिए बाद में सत ग्रन्थ साहिब व तसवीरें जैसे साहिब कबीर की मूर्ति – गरीबदास जी की व स्वामी राम देवानन्द जी व गुरु जी की मूर्ति को प्रणाम करें जिससे सिफर्ल भावना बनी रहेगी। मूर्ति पूजा नहीं करनी है। केवल प्रणाम करना पूजा में नहीं आता यह तो भक्त की श्रद्धा को बनाए रखने में सहयोग देता है। पूजा तो वक्त गुरु व नाम मन्त्र की करनी है जो पार लगाएगा।

कबीर, गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागुं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविन्द दियो मिलाय।।

कबीर, गुरु बड़े हैं गोविन्द से, मन में देख विचार। 
हरि सुमरे सो रह गए, गुरु भजे होय पार।।
कबीर, हरि के रूठतां, गुरु की शरण में जाय।
कबीर गुरु जै रूठजां, हरि नहीं होत सहाय।।
कबीर, सात समुन्द्र की मसि करूं, लेखनि करूं बनिराय। 
धरती का कागज करूं, तो गुरु गुन लिखा न जाय।।

18.मांस भक्षण निषेध
अण्डा व मांस भक्षण व जीव हिंसा नहीं करनी है। यह महा पाप होता है। जैसे साहेब कबीर जी महाराज व गरीबदास जी महाराज ने बताया है:-

कबीर, जीव हने हिंसा करे, प्रकट पाप सिर होय। 
निगम पुनि ऐसे पाप तें, भिस्त गया नहिं कोय।।1।।
कबीर, तिलभर मछली खायके, कोटि गऊ दे दान। 
काशी करौंत ले मरे, तो भी नरक निदान।।2।।
कबीर, बकरी पाती खात है, ताकी काढी खाल। 
जो बकरीको खात है, तिनका कौन हवाल।।3।।
कबीर, गला काटि कलमा भरे, कीया कहै हलाल। 
साहब लेखा मांगसी, तब होसी कौन हवाल।।4।।
कबीर, दिनको रोजा रहत हैं, रात हनत हैं गाय। 
यह खून वह वंदगी, कहुं क्यों खुशी खुदाय।।5।।

कबीर, कबिरा तेई पीर हैं, जो जानै पर पीर। 
जो पर पीर न जानि है, सो काफिर बेपीर।।6।।
कबीर, खूब खाना है खीचडी, मांहीं परी टुक लौन। 
मांस पराया खायकै, गला कटावै कौन।।7।।
कबीर, मुसलमान मारैं करदसो, हिंदू मारैं तरवार। 
कहै कबीर दोनूं मिलि, जैहैं यमके द्वार।।8।।
कबीर, मांस अहारी मानव, प्रत्यक्ष राक्षस जानि। 
ताकी संगति मति करै, होइ भक्ति में हानि।।9।।
कबीर, मांस खांय ते ढेड़ सब, मद पीवैं सो नीच। 
कुलकी दुरमति पर हरै, राम कहै सो ऊंच।।10।।
कबीर, मांस मछलिया खात हैं, सुरापान से हेत। 
ते नर नरकै जाहिंगे, माता पिता समेत।।11।।

गरीब, जीव हिंसा जो करते हैं, या आगे क्या पाप। 
कंटक जुनी जिहान में, सिंह भेडि़या और सांप।।
झोटे बकरे मुरगे ताई। लेखा सब ही लेत गुसाईं।। 
मग मोर मारे महमंता। अचरा चर हैं जीव अनंता।।
जिह्वा स्वाद हिते प्राना। नीमा नाश गया हम जाना।।
तीतर लवा बुटेरी चिडि़या। खूनी मारे बड़े अगडि़या।।

अदले बदले लेखे लेखा। समझ देख सुन ज्ञान विवेका।।
गरीब, शब्द हमारा मानियो, और सुनते हो नर नारि।
जीव दया बिन कुफर है, चले जमाना हारि।।

अनजाने में हुई हिंसा का पाप नहीं लगता। बन्दी छोड़ कबीर साहिब कहते हैं:
"इच्छा कर मारै नहीं, बिन इच्छा मर जाए। 
कहैं कबीर तास का, पाप नहीं लगाए।।"

19.गुरु द्रोही का सम्पर्क निषेध
यदि कोई भक्त गुरु जी से द्रोह(गुरु जी से विमुख हो जाता है) करता है वह महापाप का भागी हो जाता है। यदि किसी को मार्ग अच्छा न लगे तो अपना गुरु बदल सकता है। यदि वह पूर्व गुरु के साथ बैर व निन्दा करता है तो वह गुरु द्रोही कहलाता है। ऐसे व्यक्ति से भक्ति चर्चा करने में उपदेशी को दोष लगता है। उसकी भक्ति समाप्त हो जाती है।

गरीब, गुरु द्रोही की पैड़ पर, जे पग आवै बीर। 
चैरासी निश्चय पड़ै, सतगुरु कहैं कबीर।।
कबीर, जान बुझ साची तजै, करै झूठे से नेह। 
जाकी संगत हे प्रभु, स्वपन में भी ना देह।।
अर्थात् गुरु द्रोही के पास जाने वाला भक्ति रहित होकर नरक व लख चैरासी जूनियों में चला जाएगा।

20.जुआ निषेध
जुआ–तास कभी नहीं खेलना चाहिए।
कबीर, मांस भखै और मद पिये, धन वेश्या सों खाय। 
जूआ खेलि चोरी करै, अंत समूला जाय।।

21.नाच–गान निषेध
किसी भी प्रकार के खुशी के अवसर पर नाचना व अश्लील गाने गाना भक्ति भाव के विरूद्ध है। जैसे एक समय एक विधवा बहन किसी खुशी के अवसर पर अपने रिश्तेदार के घर पर गई हुई थी। सभी खुशी के साथ नाच–गा रहे थे परंतु वह बहन एक तरफ बैठ कर प्रभु चिंतन में लगी हुई थी। फिर उनके रिश्तेदारों ने उससे पूछा कि आप ऐसे क्यों निराश बैठे हो? आप भी हमारे की तरह नाचों, गाओ और खुशी मनाओ। इस पर वह बहन कहती है कि किस की खुशी मनाऊँ? मुझ विावा का एक ही पुत्र था वह भी भगवान को प्यारा हो चुका है। अब क्या खुशी है मेरे लिए? ठीक इसी प्रकार इस काल के लोक में प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति है। यहाँ पर गुरु नानक देव जी की वाणी है कि:-
ना जाने काल की कर डारै, किस विधि ढल पासा वे।
जिन्हादे सिर ते मौत खुड़गदी, उन्हानूं केड़ा हांसा वे।।
साध मिलें साडी शादी (खुशी) होंदी, बिछड़ दां दिल गिरि (दुःख) वे।
अखदे नानक सुनो जिहाना, मुश्किल हाल फकीरी वे।।

कबीर साहेब जी महाराज भी कहते हैं कि:--
कबीर, झूठे सुख को सुख कहै, मान रहा मन मोद।
सकल चबीना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद।।
कबीर, बेटा जाया खुशी हई, बहुत बजाये थाल।
आवण जाणा लग रहा, ज्यों कीड़ी का नाल।।

22.छूआछात निषेध
हम सब एक मलिक के बंदे हैं। भगवान ने किसी भी जाती या मज़हब के स्त्री पुरुषों में कोई अंतर नहीं किया तो हम क्यूँ करें?

23.दहेज लेना तथा देना निषेध
दहेज लेना व देना कुरीति है तथा मानव मात्र की अशांति का कारण है। उपदेशी के लिए मना है। जिसने अपने कलेजे की कोर पुत्री को दे दिया फिर बाकी क्या रहा?

विशेष: स्त्री तथा पुरूष दोनों ही परमात्मा प्राप्ति के अधिकारी हैं। स्त्रिायों को मासिक धर्म (menses) के दिनों में भी अपनी दैनिक पूजा, ज्योति लगाना आदि बन्द नहीं करना चाहिए। किसी के देहान्त या जन्म पर भी दैनिक पूजा कर्म बन्द नहीं करना है।

नोट :–– जो भक्तजन इन इक्कीस सुत्रीय आदेशों का पालन नहीं करेगा उसका नाम समाप्त हो जाएगा। यदि अनजाने में कोई गलती हो भी जाती है तो वह माफ हो जाती है और यदि जान बुझकर कोई गलती की है तो वह भक्त नाम रहित हो जाता है। इसका समाधान यही है कि गुरुदेव जी से क्षमा याचना करके दोबारा नाम उपदेश लेना होगा।

Monday, December 28, 2015

भगत आत्माऐँ ध्यान देँ सदगुरु देँव जी बतातेँ है



भगत आत्माऐँ ध्यान देँ

सदगुरु देँव जी बतातेँ है

कि जब हम से गलती के कारण नाम खँण्ड हो जाता है फिर और भी गलतीयाँ कर बैठते है कि नाम तो खँण्ड हो गया है ।
मालिक बताते है गलती पर गलती करना ऐसा है जैसे कनैकसन कट (नामखँड)होने के बाद जो गलती करते है वो फिँटिग को यानी वायरिँग को उखाड़ने के समान है ।
मालिक कहते है भगति बीज को सिर धड़ की बाजी लगाकर सफल बनाना है
भगति चाहे अब कर लो या फिर असंख युगोँ बाद जब कभी मानुष जन्म और सत भगति मिले तब करना बात बनेगी अडिग होकर भक्ति करनेँ से ।


मालिक कहते है
कबीर जैसे माता गर्ब को
रखाखै यत्न बनायेँ ।
ठैस लगे छिन्न हो ,
तेरी ऐसे भग्ति जाये ।

मालिक कहते है गुरु शिष्य का नाता ऐसे होता है

कबीर ,ये धागा प्रेम का मत तोड़े चटकाये ।
टुटै सै ना जुड़े ,
जुड़े तो गाँठ पड़ जाये ।
बार बार नाम खँड़ होने से परमात्मा से लाभ मिलना बन्द हो जाता है ।
कबीर,हरि जै रुठ जा तो गुरु की शारण मेँ जाए , जै गुरु रुठ जा तो हरि ना होत सहाय ।
कबीर , द्वार धन्नी के पड़ा रहे , धक्केँ धन्नी के खाय ।
लाख बार काल झकझोँर ही,द्वार छोड़ कर ना जाय ।

जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय । नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥७



जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥७

दिव्य दृष्टि खुली हमारी, सार शब्द से टोया वो |
गरीबदास गायत्री लापी, शीश पीट जम रोया वो ||
खान पान कुछ करदा नाही, है महबूब अचारी वो |
कौम छत्तीस रीत सब दुनिया, सब से रहै विचारी वो |
... बेपरवाह शाहनपति शाहं, जिन ये धारना धारी वो |
अन्तोल्या अन्मोल्या देवै, करोड़ी लाख हजारी वो |
अरब ख़रब और नील पदम् लग, संखो संख भंडारी वो |
जो सेवै ताहि को खेवै, भवजल पार उतारी वो |
सुरति निरति गल बंधन डोरी, पावै बिरह अजारी वो |
ब्रह्मा विष्णु महेश सरीखे, उसकी उठावैं झारी वो |
शेष सहंस्र मुख करे विनती, हरदम बारम्बारी वो |
शब्द अतीत अनाहद पद है, ना वो पुरुष ना नारी वो |
सूक्ष्म रूप स्वरुप समाना, खेलैं अधर अधारी वो |
जाकूं कहै कबीर जुलाहा, रची सकल संसारी वो |
गरीबदास शरणागति आये, साहिब लटक बिहारी वो ||
मंद-मंद मुस्कात मुसाफिर, है महबूब परेवा वो |
ब्रह्मा विष्णु महेश शेष से, सब देवनपति देवा वो |
अमृतकंद इन्द्री नहीं मोसर, अमी महारस मेवा वो |
कोटि सिद्ध परसिद्ध चरण में, जाकी कर ले सेवा वो |
तीरथ कोटि नदी सब चरणों, गंगा जमुना रेवा वो |
सबके घर दर आगे ठाढा, कोई ना जाने भेवा वो |
रिंचक सा प्रपंच भरया है, अवगत अलख अभेवा वो |
समर्थ दाता कबीर धनि है, और सकल है लेवा वो |
गरीबदास कूं सतगुरु मिलिया, भवसागर का खेवा वो


कबीरा।हरि।की।भगति करो।
तज विषयोँ रस चोज
बार।बार।न पाओगे
मानुष।जन्म।की।मौज
सत् साहेब

कबीर,हरि के नाम को , mira bai

कबीर,हरि के नाम को ,
हीज भजो चाहे खीज ।
उल्टा सुल्टा ऊगे गा ,
जो खेत पड़ा बीज ।।
भावार्थँ - कबीर साहिब जी कहते है कि परमात्मा के नाम (मूलमँत्र) को चाहे रुचि से सुमिरन करो या अरुचि से उसका फल मिलता है जैसे खेत मे बीज को उल्टा सीधा यानी टेडा मेडा जैसा बोया जाता है वो ऊग जाता है ।

जगत भगत का बैर है ज्यो केला बड बेर !

जगत भगत का बैर है
ज्यो केला बड बेर !
एक हाले एक चीर दे,
साहेब करेगे मेहर !!
अनुवाद : आदरणीय पूर्ण
ब्रह्म कबिर साहेब कहते
है इस संसार मे जगत और
भगत का बैर ऐसे है जैसे केले
और बेर के पेड का होता है..
ये दोनो एक साथ नही रह
सकते.. अगर एक साथ होते
है तो बेरी के पेड के कांटे
केले को बार बार चुबते है..
जब भी वो हिलते है.. ठीक
इसी तरह जगत के लोग
भगत को बार बार दंग
करते है... ऐसे मे भगत को
अपने साहेब (परमात्मा)
का ही साहारा होता है
वो मालिक ही मेहर करते
है.! भगत को जगत की
बातो को लेकर घबराना
नही चाहिए पनी भक्ति
करते रहना चाहिए .!
सतगुरु देव की जय हो !!!



अगर आप हर मुस्कान के बाद भगवान का शुक्रिया नहीं करते तो 

फिर आप को हर आंसू के लिए उसे दोष देने का कोई अधिकार नहीं है।