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Thursday, June 30, 2016

भगत सदना कसाईँ की कथा द्वारा कैसा अमृत ज्ञान दिया है

परमेँश्वर कबीर जी द्वारा हम तुच्छ बुध्दि जीवोँ को भगत सदना कसाईँ की कथा द्वारा कैसा अमृत ज्ञान दिया है ~>

एक सदना नाम का कसाईँ था जो अपनी आजीविका के लिऐँ एक कसाईँ की दुकान पर बकरेँ काटनेँ का काम किया करता था इक दिन सदना कसाईँ को कबीर साहिँब जी मिलेँ सदना कसाईँ ने कबीर साहिँब का सतसंग सुना सदना सतसंग सुनकर बहुत प्रभावित हुआ । सतसंग सुनकर सदना कसाईँ को अपने बुरेँ कर्म का ज्ञान हुआ। सदना नेँ अपने कल्याण के लिऐँ कबीर जी सेँ नाम दिक्षा देने कि याचना कि कि गुरु देँव क्या मुझ पापी का भी उधार हो सकता है जी मैँ कसाईँ हुँ जी कसाईँ सदना नाम मेरा।तब कबीर जी ने कहा कि सदना नौँका मेँ चाहेँ घास रखो ,चाहे पत्थर वो पार कर दिया करती हैँ भाईँ कल्याण हो जाऐगा पर आगे ऐसे कर्म नहीँ करना ,सदना नेँ कहा गुरुदेँव कैसे छोँड़ू इस कसाईँ के काम को मेरे पास कोई और काम नही । नहीँ तो बालक भूखे मर जावेँगे।

गुरुदेँव नेँ कहा सदना यो दोनो बात कैसे हो ,मर्याँदा तो निभानी पड़ेगी यदि कल्याण चाहतेँ हो । तब सदना बहुत विनती करता है कि गुरुदेँव उधार करो । तब कबीर जी ने सदना की लगन देँख कर कहा की ठीक है वचन दो की कितने बकरेँ हर रोज काटोँगे । सदना ने सोचा कि 10 या बीस काटता हुँ और ज्यादा काटनेँ का बचन करता हुँ और बोला 100 बकरेँ काटने का वचन देता हुँ कि सौ से ज्यादा नही काटेँगे बकरेँ । तब कबीर जी ने कहा कि जितने काँटने है बकरे अब वचन दे कही बाद मेँ बचन तोड़े तब सदना बोला जी बचन का पक्का हुँ की सौ से ज्यादा नहीँ काँटूगा बकरेँ।

सदना भगति शुरु कर देता है और कुछ दिनो बाद उस नगरी के राजा की लड़की की शादीँ होती है मुस्लमान राजा था शादीँ मेँ माँस का भोजन चल रहा था और सदना के मालिक ने सदना को 20 बकरेँ काटने का आदेँश दिया ,सदना ने 20 बकरेँ काँट दिऐ । फिर 20 का आदेँश आया ऐसे करते करते शाम तक सौ बकरेँ कट गऐ ,सदना नेँ शुकर किया गुरुदेँव का,की आज बचन रह गया की सौ ही बकरेँ कट गऐ आज तो बहुत बुरा हुआ । सदना ने हथियार रख दियेँ धौकर। 

तभी सदना के मालिक के पास कबीर साहिँब एक व्यापारी का रुप बनाकर आते है और कहते है कि मुझेँ तुम से हर रोज 30,40 बकरोँ का सौदा करना,और बात करेगेँ सुबह अब एक स्वस्थ बकरेँ का माँस बनवा दो भूख लगी हैँ । सदना के मालिक ने सदना को आदेँश दिया की जल्दी बकरा काँट ऐसे ऐसे कोई व्यपारी आया है उस से एग्रीमेँट होगा ,
अब सदना चिँन्तित हुआ कि बकरा काट दिया तो गुरु जी का बचन टुट जाऐगा, यदि नही काँटा तो मालिक नौकरी सेँ निकाल देगा मेरी तो दोनो और से बात बिगड़गी । सदना ने सोचा की एक आदमी का भोजन बनना है क्यो ना बकरे के नले नले काँट दूँ। 

ऐसा सोच कर सदना बकरेँ के नले काँटने लगा तभी परमात्मा ने बकरा बुला दिया बकरा बोला भाई सदना मर्याँदा ना तोड़े मेने तेरा गला काँटा तेरे को ऐसे नहीँ काँटा जो तूँ आज काँटने जा रहा देँख लेना फिर मैँ भी तेरे को ऐसे ही काँटुगा अब सदना किसके बकरे काँटे था काँपे खड़ा खड़ा और बकरा बोला उस दिन यकीन हुआ सदना को की संत सच्ची कहे थे ये बहुत बुरा चक्कर है अब ना करे ऐसेँ कर्मँ नेँ चाहे भूखे मरेँ।सदना के मालिक ने आवाज लगाईँ कि सदना काँटा नही बकरा,  सदना बोला मै ना काँटू  मालिँक मेँ ना काँटू । तभी सदना के मालिक ने गुस्से सेँ सदना के दोनो हाथ काँट दियेँ कि ये कैसा नौकर है जो मेरे सौदे सै खुश नहीँ ओर सदना को घर से निकाल दिया ।  

अब सदना ने जैसे तेसे अपना ईलाज करवाया और और कुछ महीनेँ रो पीटकर सोचा की अब कया करेँ फिर याद आया कि गुरुदेँव बोल रहे थे कि मै जगननाथ के मन्दिँर मेँ रहता हुँ वहाँ आ जाना जब भी मिलना हो सदना गुरु जी से मिलने जगननाथ की ओर चल देता शाम होने पर  एक गाँव मे गाँव के नम्बरदार के पास जाता और कहता है कि मेने जगननाथ जाना अपने गुरु जी के पास ,अब रात हो गई यहाँ रात को ठहरने का स्थान बताऐँ तब नम्बरदार सोचता है कि भगत आदमी है मुझे भी कुछ पूण्य होगा ऐसा सोचकर सदना को अपने घर ले आता है और सदना के खाने व सो ने का प्रबन्ध करता है । नम्बरदार की पत्नी बुरे चरित्र की थी वो रात को सदना से बदव्यवहार करने की चेष्टा करती है तब सदना कहेता है कि माईँ मै महादुखी हुँ रात काटनी है काटनेँ दो तो रुक जाता हुँ नही तो मेँ अभी चला जाता हुँ।  ये सुनकर नम्बरदार की पत्नी नेँ अपनी बेईजती समझकर शोर मचा दिया कि ये मेरे साथ बदव्यवहार करने की कोशिश कर रहा था तब शोर सुनकर लोग इक्कठा हुऐ सदना को पकड़ लिया । सुबह नगरी के राजा के पास पेश किया गया वहाँ नम्बरदार की पत्नी ने झुठी गवाही दे दी कि ये मेरे साथ बदव्यवहार करने कि कोशिश कर रहा था।

तब राजा ने सदना को सबके सामने मीनार मेँ चिन्ने की सजा सुना दी और कहा इसने नम्बरदार के साथ धोखा किया जो उसकी पत्नी के साथ बदव्यवहार की चेष्टा कि भुगतकर मरे मीनार मेँ चिन्न दो। जब सदना के हाथ पैर बाँधकर कर मीनार मेँ चिन्न रहे थे तो वहाँ पर कुछ लोग बोल रहे थे कि देखो कैसा नीच था ये जगननाथ जाने कि बात कर रहा था और ये भगत कहावेँ कैसा नीच कर्मीँ है ऐसे ही इसके गुरु होगे।  

ये सुनकर सदना की आँखो मे आँसू आ गऐ और बोला गुरुदेँव मै तो नीच था चाहे इस से भी बूरी मौत मरता पर ये इब मुझे भगत कहे थे कि मन्दिर मेँ जावेँ दुष्ट इसे इसके गुरु भी ऐसे होगेँ।मालिक ये तो आप के नाम पेँ बट्टा लग गया। 

मालिक इस भगति की लाज राखियोँ मेरे मालिक,ये बोलकर फुट फुट कर रोने लगा।तभी बहुत जोर से धमाका हुआ और मीनार फट गया उसकी इट्टे अन्यायकारी राजा मँत्रियोँ के सिर मेँ लगी जिन्होने ये अन्याय का फैसला सुनाया व नम्बरदार की पत्नी के दोनो स्तन कट गऐ इट्टे लगने से ।  सदना के दोनो हाथ पुरे हो गऐ कटे हुऐ नही रहेँ । 

बोलो सतगुरुदेँव जी की जय हो


कबीर,जो जन मेरी शरण हे , ताका हूँ मैँ दास ।
गैल गेल लाग्या फिरू , जब लग धरती आकाश ।।

कृप्या शेयर करेँ जन जन तक पहुँचाऐँ परमेँश्वर का सन्देँश ।।

Saturday, April 30, 2016

धर्मदास यह कठिन कहानी | गुरुमत ते कोई बिरले जानी ||

कबीर साहब बोले - सत्यज्ञान बल से सदगुरु काल पर विजय प्राप्त कर अपनी शरण में आये हुये हँस जीव को सत्यलोक ले जाते हैं । जहाँ पर हँस जीव मनुष्य सत्यपुरुष के दर्शन पाता है । और अति आनन्द को प्राप्त करता है । फ़िर वह वहाँ से लौटकर कभी भी इस कष्टदायक दुखदायी संसार में वापस नहीं आता । यानी उसका मोक्ष हो जाता है ।

हे धर्मदास ! मेरे वचन उपदेश को भली प्रकार से गृहण करो । जिज्ञासु इंसान को सत्यलोक जाने के लिये सत्य के मार्ग पर ही चलना चाहिये । जैसे शूरवीर योद्धा एक बार युद्ध के मैदान में घुसकर पीछे मुढकर नहीं देखता । बल्कि निर्भय होकर आगे बढ जाता है । ठीक वैसे ही कल्याण की इच्छा रखने वाले जिज्ञासु साधक को भी सत्य की राह पर चलने के बाद पीछे नहीं हटना चाहिये ।

अपने पति के साथ सती होने वाली नारी और युद्ध भूमि में सिर कटाने वाले वीर के महान आदर्श को देख समझकर जिस प्रकार मनुष्य दया संतोष धैर्य क्षमा वैराग विवेक आदि सदगुणों को गृहण कर अपने जीवन में आगे बढते हैं । उसी अनुसार दृण संकल्प के साथ सत्य सन्तमत स्वीकार करके जीवन की राह में आगे बढना चाहिये ।

जीवित रहते हुये भी मृतक भाव अर्थात मान अपमान हानि लाभ मोह माया से रहित होकर सत्यगुरु के बताये सत्यज्ञान से इस घोर काल कष्ट पीङा का निवारण करना चाहिये ।

हे धर्मदास ! लाखो करोंङो में कोई एक विरला मनुष्य ही ऐसा होता है । जो सती शूरवीर और संत के बताये हुये उदाहरण के अनुसार आचरण करता है । और तब उसे परमात्मा के दर्शन साक्षात्कार प्राप्त होता है ।

तब धर्मदास बोले - हे साहिब ! मुझे मृतक भाव क्या होता है ? इसे पूर्ण रूप से स्पष्ट बताने की कृपा करें ।

कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! जीवित रहते हुये जीवन में मृतक दशा की कहानी बहुत ही कठिन है । इस सदगुरु के सत्यज्ञान से कोई बिरला ही जान सकता है । सदगुरु के उपदेश से ही यह जाना जाता है ।

धर्मदास यह कठिन कहानी । गुरुमत ते कोई बिरले जानी ।

जीवन में मृतक भाव को प्राप्त हुआ सच्चा मनुष्य अपने परम लक्ष्य मोक्ष को ही खोजता है । वह सदगुरु के शब्द विचार को अच्छी तरह से प्राप्त करके उनके द्वारा बताये गये सत्य मार्ग का अनुसरण करता है ।

उदाहरण स्वरूप जैसे भृंगी  ( पंख वाला चींटा जो दीवाल खिङकी आदि पर मिट्टी का घर बनाता है । ) किसी मामूली से कीट के पास जाकर उसे अपना तेज शब्द घूँ घूँ घूँ सुनाता है ।

तव वह कीट उसके गुरु ज्ञान रूपी शब्द उपदेश को गृहण करता है । गुंजार करता हुआ भृंगी अपने ही तेज शब्द स्वर की गुंजार सुना सुनाकर कीट को प्रथ्वी पर डाल देता है । और जो कीट उस भृंगी शब्द को धारण करे । तब भृंगी उसे अपने घर ले जाता है । तथा गुंजार गुंजार कर उसे अपना स्वाति शब्द सुनाकर उसके शरीर को अपने समान बना लेता है । भृंगी के महान शब्द रूपी स्वर गुंजार को यदि कीट अच्छी तरह से स्वीकार कर ले । तो वह मामूली कीट से भृंगी के समान शक्तिशाली हो जाता है । फ़िर दोनों में कोई अंतर नहीं रहता । समान हो जाता है ।

असंख्य झींगुर कीटों में से कोई कोई  बिरला कीट ही उपयुक्त और अनुकूल सुख प्रदान कराने वाला होता है । जो भृंगी के प्रथम शब्द गुंजार को ह्रदय से स्वीकारता है । अन्यथा कोई दूसरे और तीसरे शब्द को ही शब्द स्वर मानकर स्वीकार कर लेता है । तन मन से रहित भृंगी के उस महान शब्द रूपी गुंजार को स्वीकार करने में ही झींगुर कीट अपना भला मानते हैं ।

भृंगी के शब्द स्वर गुंजार को जो कीट स्वीकार नहीं करता । तो फ़िर वह कीट योनि के आश्रय में ही पङा रहता है । यानी वह मामूली कीट से शक्तिशाली भृंगी नहीं बन सकता ।

हे धर्मदास ! यह मामूली कीट का भृंगी में बदलने का अदभुत रहस्य है । जो कि महान शिक्षा प्रदान करने वाला है । इसी प्रकार जङ बुद्धि शिष्य जो सदगुरु के उपदेश को ह्रदय से स्वीकार करके गृहण करता है । उससे वह विषय विकारों से मुक्त होकर अज्ञान रूपी बंधनों से मुक्त होकर कल्याणदायी मोक्ष को प्राप्त होता है ।

हे धर्मदास ! भृंगी भाव का महत्व और श्रेष्ठता को जानों । भृंगी की तरह यदि कोई मनुष्य निश्चय पूर्ण बुद्धि से गुरु के उपदेश को स्वीकार करे । तो गुरु उसे अपने समान ही बना लेते हैं । जिसके ह्रदय में गुरु के अलावा दूसरा कोई भाव नहीं होता । और वह सदगुरु को समर्पित होता है । वह मोक्ष को प्राप्त होता है । इस तरह वह नीच योनि में बसने वाले कौवे से बदलकर उत्तम योनि को प्राप्त हो हँस कहलाता है ।

Jai Ho Bandichhor sadguru Rampal ji maharaj ki......

Wednesday, April 27, 2016

पाराशर पुत्री sukadev rishi

पाराशर  पुत्री  संग  राता 
(अनुवादक श्री मुनिलाल गुप्त, प्रकाशक - गोविन्द भवन कार्यालय, गीताप्रैस गोरखपुर) 

श्री विष्णुपुराण का ज्ञान श्री पारासर ऋषि ने अपने शिष्य श्री मैत्रोय ऋषि जी को कहा है। श्री पारासर ऋषि जी ने शादी होते ही गृह त्याग कर वन में साधना करने का दृढ़ संकल्प किया। उसकी धर्मपत्नी ने कहा अभी तो शादी हुई है, अभी आप घर त्याग कर जा रहे हो। संतान उत्पत्ति करके फिर साधना के लिए जाना। तब श्री पारासर ऋषि ने कहा कि साधना करने के पश्चात् संतान उत्पन्न करने से नेक संस्कार की संतान उत्पन्न होगी। मैं कुछ
समय उपरान्त आपके लिए अपनी शक्ति (वीर्य) किसी पक्षी के द्वारा भेज दूंगा, आप उसे ग्रहण कर लेना। यह कह कर घर त्याग कर वान प्रस्थ हो गया। 

एक वर्ष साधना के उपरान्त अपना वीर्य निकाल कर एक वृक्ष के पत्र में बंद करके अपनी मंत्र शक्ति से शुक्राणु रक्षा करके एक कौवे से कहा कि यह पत्र मेरी पत्नी को देकर आओ। कौवा उसे लेकर दरिया के ऊपर से उड़ा जा रहा था। उसकी चोंच से वह पत्र दरिया में गिर गया। उसे एक मछली ने खा लिया। कुछ महिनों उपरांत उस मछली को एक मलहा ने पकड़ कर काटा, उसमें से एक लड़की निकली। 

मलहा ने लड़की का नाम सत्यवती रखा वही लड़की (मछली के उदर से उत्पन्न होने के कारण) मछोदरी नाम से भी जानी जाती थी नाविक ने सत्यवती को अपनी पुत्री रूप में पाला। कौवे ने वापिस जा कर श्री पारासर जी कोसर्व व तान्त बताया। जब साधना समाप्त करके श्री पारासर जी सोलह वर्ष उपरान्त वापिस आ रहे थे, दरिया पार करने के लिए मलाह को पुकार कर कहा कि मुझे शीघ्र दरिया से पार कर। मेरी पत्नी मेरी प्रतिक्षा कर रही है। उस समय मलाह खाना खा रहा था तथा श्री पारासर ऋषि के बीज से मछली से उत्पन्न चैदह वर्षीय युवा कन्या अपने पिता का खाना लेकर वहीं पर उपस्थित थी। मलाह को ज्ञान था कि साधना तपस्या करके आने वाला ऋषि सिद्धि युक्त होता है। आज्ञा का शीघ्र पालन न करने के कारण शाप दे देता है। मलाह ने कहा ऋषिवर मैं खाना खा रहा हूँ, अधूरा खाना छोड़ना अन्नदेव का अपमान होता है, मुझे पाप लगेगा। परन्तु श्री पारासर जी ने एक नहीं सुनी। ऋषि को अति उतावला जानकर मल्लाह ने अपनी युवा पुत्री से ऋषि जी को पार छोड़ने को कहा। 
पिता जी का आदेश प्राप्त कर पुत्री नौका में ऋषि पारासर जी को लेकर चल पड़ी। दरिया के मध्य जाने के पश्चात् ऋषि पारासर जी ने अपने ही बीज शक्ति से मछली से उत्पन्न लड़की अर्थात् अपनी ही पुत्री से दुष्कर्म करने की इच्छा व्यक्त की। लड़की भी अपने पालक पिता मलाह से ऋषियों के क्रोध से दिए शाप से हुए दुःखी व्यक्तियों की कथाऐं सुना करती थी। शाप के डर से कांपती हुई कन्या ने कहा ऋषि जी आप ब्राह्मण हो, मैं एक शुद्र की पुत्री हूँ। 

ऋषि पारासर जी ने कहा कोई चिंता नहीं। लड़की ने अपनी इज्जत रक्षा के लिए फिर बहाना किया हे ऋषिवर मेरे शरीर से मछली की दुर्गन्ध निकल रही है। ऋषि पारासर जी ने अपनी सिद्धि शक्ति से दुर्गन्ध समाप्त कर दी। फिर लड़की ने कहा दोनों किनारों पर व्यक्ति देख रहे हैं। ऋषि पारासर जी ने  नदी का जल हाथ में उठा कर आकाश में फैंका तथा अपनी सिद्धि शक्ति से धूंध उत्पन्न कर दी। अपना मनोरथ पूरा किया। 

लड़की ने अपने पालक पिता को अपनी पालक माता के माध्यम से सर्व घटना से अवगत करा दिया तथा
बताया कि 

ऋषि ने अपना नाम पारासर बताया तथा ऋषि वशिष्ठ जी का पौत्र (पोता) बताया था। समय आने पर कंवारी के गर्भ से श्री व्यास ऋषि उत्पन्न हुए। 

उसी श्री पारासर जी के द्वारा श्री विष्णु पुराण की रचना हुई है। श्री पारासर जी ने बताया कि हे मैत्रोय जो ज्ञान मैं तुझे सुनाने जा रहा हूँ, यही प्रसंग दक्षादि मुनियों ने नर्मदा तट पर राजा पुरुकुत्स को सुनाया था। पुरुकुत्स ने सारस्वत से और सारस्वत ने मुझ से कहा था।

श्री पारासर जी ने श्री विष्णु पुराण के 

प्रथम अध्याय श्लोक संख्या 31, पृष्ठ संख्या 3 में कहा है कि यह जगत विष्णु से उत्पन्न हुआ है, उन्हीं में स्थित है। वे ही इसकी स्थिति और लय के कर्ता हैं। 

अध्याय 2 श्लोक15.16 पृष्ठ 4 में कहा है कि हे द्विज ! परब्रह्मका प्रथम रूप पुरुष अर्थात् भगवान जैसा लगता है, परन्तु व्यक्त (महाविष्णु रूप में प्रकट होना) तथा अव्यक्त (अदृश रूप में वास्तविक काल रूप में इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में रहना) उसके अन्य रूप हैं तथा ‘काल‘ उसका परम रूप है। भगवान विष्णु जो काल रूप में तथा व्यक्त और अव्यक्त रूप से स्थित होते हैं, यह उनकी बालवत लीला है। 

अध्याय 2 श्लोक 27 पृष्ठ 5 में कहा है - हे मैत्रय ! प्रलय काल में प्रधान अर्थात् प्रकृति के साम्य अवस्था में स्थित हो जाने पर अर्थात्पु रुष के प्रकृति से प थक स्थित हो जाने पर विष्णु भगवान का काल रूप प्रव त होता है।

अध्याय 2 श्लोक 28 से 30 पृष्ठ 5 - तदन्तर (सर्गकाल उपस्थित होने पर) उन परब्रह्म परमात्मा विश्व रूप सर्वव्यापी सर्वभूतेश्वर सर्वात्मा परमेश्वर ने अपनी इच्छा से विकारी प्रधान और अविकारी पुरुष में प्रविष्ट होकर
उनको क्षोभित किया।।28. 29।। जिस प्रकार क्रियाशील न होने पर भी गंध अपनी सन्निधि मात्र से ही प्रधान व पुरुष को पे्ररित करते हैं। 

विशेष - श्लोक संख्या 28 से 30 में स्पष्ट किया है कि प्रकृति (दुर्गा) तथा पुरुष (काल- प्रभु) से अन्य कोई और परमेश्वर है जो इन दोनों को पुनर् सृष्टि रचना के लिए प्रेरित करता है।

अध्याय 2 पृष्ठ 8 पर श्लोक 66 में लिखा है वेही प्रभु विष्णु सृष्टा (ब्रह्मा) होकर अपनी ही सृष्टि करते हैं। श्लोक संख्या 70 में लिखा है। भगवान विष्णु ही ब्रह्मा आदि अवस्थाओं द्वारा रचने वाले हैं। वे ही रचे जाते हैं और स्वयं भी संहृत अर्थात् मरते हैं।

अध्याय 4 श्लोक 4 पृष्ठ 11 पर लिखा है कि कोई अन्य परमेश्वर है जो ब्रह्मा, शिव आदि ईश्वरों के भी ईश्वर हैं।
अध्याय 4 श्लोक 14.15, 17 - 22 पृष्ठ 11 - 12 पर लिखा है। पृथ्वी बोली - हे काल स्वरूप ! आपको नमस्कार हो। हे प्रभो ! आप ही जगत की सृष्टि आदि के लिए ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र रूप धारण करने वाले हैं। आपका जो रूप अवतार रूप में प्रकट होता है उसी की देवगण पूजा करते हैं। आप ही ओंकार हैं। 

अध्याय 4 श्लोक 50 पृष्ठ 14 पर लिखा है - फिर उन भगवान हरि ने रजोगुण युक्त होकर चतुर्मुख धारी ब्रह्मा रूप धारण कर सृष्टि की रचना की। 

उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि ऋषि पारासर जी ने सुना सुनाया ज्ञान अर्थात्लो कवेद के आधार पर श्री विष्णु पुराण की रचना की है। 

क्योंकि वास्तविक ज्ञान पूर्ण परमात्मा ने प्रथम सतयुग में स्वयं प्रकट होकर श्री ब्रह्मा जी को दिया था। श्री ब्रह्मा जी ने कुछ ज्ञान तथा कुछ स्वनिर्मित काल्पनिक ज्ञान अपने वंशजों को बताया। एक दूसरे से सुनते-सुनाते ही लोकवेद श्री पारासर जी को प्राप्त हुआ। 

श्री पारासर जी ने विष्णु को काल भी कहा है तथा परब्रह्म भी कहा है। 

उपरोक्त विवरण से यह भी

सिद्ध हुआ कि विष्णु अर्थात् ब्रह्म स्वरूप काल अपनी उत्पत्ति ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव रूप से करके सृष्टि उत्पन्न करते हैं। ब्रह्म (काल) ही ब्रह्म लोक में तीन रूपों में प्रकट हो कर लीला करके छल करता है। वहाँ स्वयं भी मरता है (विशेष जानकारी के लिए कृप्या पढ़ें ‘प्रलय की जानकारी‘ पुस्तक ‘गहरी नजर गीता में‘ अध्याय 8 श्लोक 17 की व्याख्या में) उसी ब्रह्म लोक में तीन स्थान बनाए हैं। एक रजोगुण प्रधान उसमें यही काल रूपी ब्रह्म अपना ब्रह्मा रूप धारण करके रहता है तथा अपनी पत्नी दुर्गा को साथ रख कर एक रजोगुण प्रधान पुत्र उत्पन्न करता है। उसका नाम ब्रह्मा रखता है। उसी से एक ब्रह्मण्ड में उत्पत्ति करवाता है। इसी प्रकार
उसी ब्रह्म लोक एक सतगुण प्रधान स्थान बना कर स्वयं अपना विष्णु रूप धारण करके रहता है तथा अपनी पत्नी दुर्गा (प्रकति) को पत्नी रूप में रख कर एक सतगुण युक्त पुत्र उत्पन्न करता है। उसका नाम विष्णु रखता है। 

उस पुत्र से एक ब्रह्मण्ड में तीन लोकों (पृथ्वी , पाताल, स्वर्ग) में स्थिति बनाए रखने का कार्य करवाता है।

(प्रमाण शिव पुराण गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित अनुवाद हनुमान प्रसाद पौद्दार चिमन लाल गौस्वामी रूद्र संहिता अध्याय 6, 7 पृष्ठ 102.103) ब्रह्मलोक में ही एक तीसरा स्थान तमगुण प्रधान रच कर उसमें स्वयं शिव धारण करके रहता है तथा अपनी पत्नी दुर्गा (प्रकृति ) को साथ रख कर पति-पत्नी के व्यवहार से उसी तरह
तीसरा पुत्र तमोगुण युक्त उत्पन्न करता है। उसका नाम शंकर (शिव) रखता है। इस पुत्र से तीन लोक के प्राणियों का संहार करवाता है। विष्णु पुराण में अध्याय 4 तक जो ज्ञान है वह काल रूप ब्रह्म अर्थात् ज्योति निरंजन का है। 

अध्याय 5 से आगे का मिला-जुला ज्ञान काल के पुत्र सतगुण विष्णु की लीलाओं का है तथा उसी के अवतार श्री राम, श्री क ष्ण आदि का ज्ञान है। 

विशेष विचार करने की बात है कि श्री विष्णु पुराण का वक्ता श्री पारासर ऋषि है। यही ज्ञान दक्षादि ऋषियों से
पुरुकुत्स ने सुना, पुरुकुत्स से सारस्वत ने सुना तथा सारस्वत से श्री पारासर ऋषि ने सुना। वह ज्ञान श्री विष्णु पुराण में लिपि बद्ध किया गया जो आज अपने करकमलों में है। इसमें केवल एक ब्रह्मण्ड का ज्ञान भी अधुरा है।

श्री देवीपुराण, श्री शिवपुराण आदि पुराणों का ज्ञान भी ब्रह्मा जी का दिया हुआ है। 

श्रीपारासर वाला ज्ञान श्री ब्रह्मा जी द्वारा दिए ज्ञान के समान नहीं हो सकता। इसलिए श्री विष्णु पुराण को समझने के लिए देवी पुराण तथा श्री शिव पुराण का सहयोग लिया जाएगा। क्योंकि यह ज्ञान दक्षादि ऋषियों के पिता श्री ब्रह्मा जी का दिया हुआ है।
श्री देवी पुराण तथा श्री शिवपुराणको समझने के लिए श्रीमद् भगवद् गीता तथा चारों वेदों का सहयोग लिया जाएगा। क्योंकि यह ज्ञान स्वयं भगवान काल रूपी ब्रह्म द्वारा दिया गया है। जो ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जी का उत्पन्न कर्ता अर्थात् पिता है। 

पवित्र वेदों तथा पवित्र श्रीमद् भगवद् गीता जी के ज्ञान को समझने के लिए स्वसम वेद अर्थात् सूक्ष्म वेद का सहयोग लेना होगा जो काल रूपी ब्रह्म के उत्पत्ति कर्ता अर्थात् पिता परम अक्षर ब्रह्म (कविर्देव) का दिया हुआ है। जो (कविर्गीभिः) कविर्वाणी द्वारा स्वयं सतपुरुष ने प्रकट हो कर बोला था। 

(ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 16 से 20 तक प्रमाण है।)
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‘शिव महापुराण‘‘
‘‘श्री शिव महापुराण (अनुवादक: श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार। प्रकाशक: गोबिन्द भवन कार्यालय, गीताप्रैस गोरखपुर) मोटा टाइप, 

अध्याय 6, रूद्रसंहिता, प्रथम खण्ड(सष्टी) से निष्कर्ष‘‘ अपने पुत्रा श्री नारद जी के श्री शिव तथा श्री शिवा के विषय में पूछने पर श्री ब्रह्मा जी ने कहा (प ष्ठ 100 से 102) जिस परब्रह्म के विषय में ज्ञान और अज्ञान से पूर्ण युक्तियों द्वारा इस प्रकार विकल्प किये जाते हैं, जो निराकार परब्रह्म है वही साकार रूप में सदाशिव रूप धारकर मनुष्य रूप में प्रकट हुआ। 

सदा शिव ने अपने शरीर से एक स्त्राी को उत्पन्न किया जिसे प्रधान, प्रकति, अम्बिका, त्रिदेवजननी (ब्रह्मा, विष्णु, शिव की माता) कहा जाता है। जिसकी आठ भुजाऐं हैं।

‘‘श्री विष्णु की उत्पत्ति‘‘ 

जो वे सदाशिव हैं उन्हें परम पुरुष, ईश्वर, शिव, शम्भु और महेश्वर कहते हैं। वे अपने सारे अंगों में भस्म रमाये रहते हैं। उन काल रूपी ब्रह्म ने एक शिवलोक नामक (ब्रह्मलोक में तमोगुण प्रधान क्षेत्रा) धाम बनाया। उसे काशी कहते हैं। शिव तथा शिवा ने पति-पत्नी रूप में रहते हुए एक पुत्रा की उत्पत्ति की, जिसका नाम विष्णु
रखा। अध्याय 7, रूद्र संहिता, शिव महापुराण (प ष्ठ 103, 104)।

”श्री ब्रह्मा तथा शिव की उत्पत्ति“
अध्याय 7, 8, 9(प ष्ठ 105-110) श्री ब्रह्मा जी ने बताया कि श्री शिव तथा शिवा (काल रूपी ब्रह्म तथा प्रक ति-दुर्गा-अष्टंगी) ने पति-पत्नी व्यवहार से मेरी भी उत्पति की तथा फि मुझे अचेत करके कमल पर डाल दिया।
यही काल महाविष्णु रूप धारकर अपनी नाभि से एक कमल उत्पन्न कर लेता है। ब्रह्मा आगे कहता है कि फिर होश में आया। कमल की मूल को ढूंढना चाहा, परन्तु असफल रहा। फिर तप करने की आकाशवाणी हुई। तप किया। फिर मेरी तथा विष्णु की किसी बात पर लड़ाई हो गई। 

(विवरण इसी पुस्तक के प ष्ठ 549 पर) तब हमारे बीच में एक तेजोमय लिंग प्रकट हो गया तथा ओ3म्-ओ3म् का नाद प्रकट हुआ तथा उस लिंग पर अ-उ-म तीनों अक्षर भी लिखे थे। फिर रूद्र रूप धारण करके सदाशिव पाँच मुख वाले मानव रूप में प्रकट हुए, उनके साथ शिवा (दुर्गा) भी थी। फिर शंकर को अचानक प्रकट किया (क्योंकि
यह पहले अचेत था, फिर सचेत करके तीनों को इक्कठे कर दिया) तथा 

कहा कि तुम तीनों सष्टी-स्थिति तथा संहार का कार्य संभालो। रजगुण प्रधान ब्रह्मा जी, सतगुण प्रधान विष्णु जी तथा तमगुण प्रधान शिव जी हैं।  इस प्रकार तीनों देवताओं में गुण हैं, परन्तु शिव (काल रूपी ब्रह्म) गुणातीत माने गए हैं (प ष्ठ 110 पर)।

सार विचार:- उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि काल रूपी ब्रह्म अर्थात् सदाशिव तथा प्रकति (दुर्गा) श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव के माता पिता हैं। दुर्गा इसे प्रकति तथा प्रधान भी कहते हैं, इसकी आठ भुजाऐं हैं। यह सदाशिव अर्थात् ज्योति निरंजन काल के शरीर अर्थात् पेट से निकली है। ब्रह्म अर्थात् काल तथा प्रक ति (दुर्गा) सर्व प्राणियों को भ्रमित रखते हैं। अपने पुत्रों को भी वास्तविकता नहीं बताते। कारण है कि कहीं काल (ब्रह्म) के इक्कीस ब्रह्मण्ड के प्राणियों को पता लग जाए कि हमें तप्तशिला पर भून कर
काल (ब्रह्म-ज्योति निरंजन) खाता है। इसीलिए जन्म-म त्यु तथा अन्य दुःखदाई योनियों में पीडि़त करता है तथा अपने तीनों पुत्रों रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी से उत्पत्ति, स्थिति, पालन
तथा संहार करवा कर अपना आहार तैयार करवाता है। क्योंकि काल को एक लाख मानव शरीरधारी प्राणियों का आहार करने का शाप लगा है, क पया श्रीमद् भगवत गीता जी में भी देखें ‘काल (ब्रह्म) तथा प्रक ति (दुर्गा) के
पति-पत्नी कर्म से रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव की उत्पत्ति।
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             सत साहेब
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न जाने कौन  इंतज़ार  कर रहा  है!!!!!!....

|| मृत्यु से भय कैसा ||

राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत पुराण सुनातें हुए जब शुकदेव जी महाराज को छह दिन बीत गए और तक्षक ( सर्प ) के काटने से मृत्यु होने का एक दिन शेष रह गया, तब भी राजा परीक्षित का शोक और मृत्युका भय दूर नहीं हुआ।
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अपने मरने की घड़ी निकट आती देखकर राजा का मन क्षुब्ध हो रहा था।
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तब शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित को एक कथा सुनानी आरंभ की।
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राजन ! बहुत समय पहले की बात है, एक राजा किसी जंगल में शिकार खेलने गया।
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संयोगवश वह रास्ता भूलकर बड़े घने जंगल में जा पहुँचा। उसे रास्ता ढूंढते-ढूंढते रात्रि पड़ गई और भारी वर्षा पड़ने लगी।
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जंगल में सिंह व्याघ्र आदि बोलने लगे। वह राजा बहुत डर गया और किसी प्रकार उस भयानक जंगल में रात्रि बिताने के लिए विश्राम का स्थान ढूंढने लगा।
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रात के समय में अंधेरा होने की वजह से उसे एक दीपक दिखाई दिया।
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वहाँ पहुँचकर उसने एक गंदे बहेलिये की झोंपड़ी देखी । वह बहेलिया ज्यादा चल-फिर नहीं सकता था, इसलिए झोंपड़ी में ही एक ओर उसने मल-मूत्र त्यागनेका स्थान बना रखा था। अपने खाने के लिए जानवरों का मांस उसने झोंपड़ी की छत पर लटका रखा था। बड़ी गंदी, छोटी, अंधेरी और दुर्गंधयुक्त वह झोंपड़ी थी।
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उस झोंपड़ी को देखकर पहले तो राजा ठिठका, लेकिन पीछे उसने सिर छिपाने का कोई और आश्रय नदेखकर उस बहेलिये से अपनी झोंपड़ी में रात भर ठहर जाने देने के लिए प्रार्थना की।
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बहेलिये ने कहा कि आश्रय के लोभी राहगीर कभी- कभी यहाँ आ भटकते हैं। मैं उन्हें ठहरा तो लेता हूँ, लेकिन दूसरे दिन जाते समय वे बहुत झंझट करते हैं।
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इस झोंपड़ी की गंध उन्हें ऐसी भा जाती है कि फिर वे उसे छोड़ना ही नहीं चाहते और इसी में ही रहने की कोशिश करते हैं एवं अपना कब्जा जमाते हैं। ऐसे झंझट में मैं कई बार पड़ चुका हूँ।।
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इसलिए मैं अब किसी को भी यहां नहीं ठहरने देता। मैं आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूंगा।
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राजा ने प्रतिज्ञा की कि वह सुबह होते ही इस झोंपड़ी को अवश्य खाली कर देगा। उसका काम तो बहुत बड़ा है, यहाँ तो वह संयोगवश भटकते हुए आया है, सिर्फ एक रात्रि ही काटनी है।
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बहेलिये ने राजा को ठहरने की अनुमति दे दी, पर सुबह होते ही बिना कोई झंझट किए झोंपड़ी खाली कर
देने की शर्त को फिर दोहरा दिया।
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राजा रात भर एक कोने में पड़ा सोता रहा। सोने में झोंपड़ी की दुर्गंध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गई कि सुबह उठा तो वही सब परमप्रिय लगने लगा। अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूलकर वहीं निवास करने की बात सोचने लगा।
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वह बहेलिये से और ठहरने की प्रार्थना करने लगा। इस पर बहेलिया भड़क गया और राजा को भला-बुरा कहने लगा।
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राजा को अब वह जगह छोड़ना झंझट लगने लगा और दोनों के बीच उस स्थान को लेकर बड़ा विवाद खड़ा
हो गया।
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कथा सुनाकर शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित से पूछा," परीक्षित ! बताओ, उस राजा का उस स्थान पर सदा के लिए रहने के लिए झंझट करना उचित था ?
".
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परीक्षित ने उत्तर दिया," भगवन् ! वह कौन राजा था, उसका नाम तो बताइये ? वह तो बड़ा भारी मूर्ख जान पड़ता है, जो ऐसी गंदी झोंपड़ी में, अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर एवं अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर, नियत अवधि से भी अधिक रहना चाहता है। उसकी मूर्खता पर तो मुझे आश्चर्य होता है। "
श्री शुकदेव जी महाराज ने कहा," हे राजा परीक्षित ! वह बड़े भारी मूर्ख तो स्वयं आप ही हैं। इस मल-मूल की गठरी देह ( शरीर ) में जितने समय आपकी आत्मा को रहना आवश्यक था, वह अवधि तो कल समाप्त हो रही है। अब आपको उस लोक जाना है, जहाँ से आप आएं हैं। फिर भी आप झंझट फैला रहे हैं और मरना नहीं चाहते। क्या यह आपकी मूर्खता नहीं है ?"
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राजा परीक्षित का ज्ञान जाग पड़ा और वे बंधन मुक्ति के लिए सहर्ष तैयार हो गए।
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मेरे भाई - बहनों, वास्तव में यही सत्य है।


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जब एक जीव अपनी माँ की कोख से जन्म लेता है तो अपनी माँ की कोख के अन्दर भगवान से प्रार्थना करता है कि हे भगवन् ! मुझे यहाँ ( इस कोख ) से मुक्त कीजिए, मैं आपका भजन-सुमिरन करूँगा।
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.और जब वह जन्म लेकर इस संसार में आता है तो ( उस राजा की तरह हैरान होकर ) सोचने लगता है कि मैं ये कहाँ आ गया ( और पैदा होते ही रोने लगता है ) फिर उस गंध से भरी झोंपड़ी की तरह उसे यहाँ की खुशबू ऐसी भा जाती है कि वह अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर यहाँ से जाना ही नहीं चाहता है।
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यही मेरी भी कथा है और आपकी भी।
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(Shrimad Bhagavad Gita)
पूर्ण परमात्मा(पूर्ण ब्रह्म) अर्थात् सतपुरुष का ज्ञान न होने के कारण सर्व विद्वानों को ब्रह्म (निरंजन- काल भगवान जिसे महाविष्णु कहते हैं) तक का ज्ञान है। पवित्र आत्माऐं चाहे वे ईसाई हैं, मुसलमान, हिन्दू या सिख हैं इनको केवल अव्यक्त अर्थात् एक ओंकार परमात्मा की पूजा का ही ज्ञान पवित्र शास्त्रों (जैसे पुराणों, उपनिष्दांे, कतेबों, वेदों, गीता आदि नामों से जाना जाता है) से हो पाया। क्योंकि इन सर्व शास्त्रों में ज्योति स्वरूपी(प्रकाशमय) परमात्मा ब्रह्म की ही पूजा विधि का वर्णन है तथा जानकारी पूर्ण ब्रह्म(सतपुरुष) की भी है। पूर्ण संत (तत्वदर्शी संत) न मिलने से पूर्ण ब्रह्म की पूजा का ज्ञान नहीं हुआ।

  जिस कारण से पवित्र आत्माऐं ईसाई फोर्मलैस गौड (निराकार प्रभु) कहते हैं। जबकि पवित्र बाईबल में उत्पत्ति विषयके सृष्टि की उत्पत्ति नामक अध्याय में लिखा है कि प्रभु ने मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसारउत्पन्न किया तथा छः दिन में सृष्टि रचना करके सातवें दिन विश्राम किया। इससे स्वसिद्ध है कि प्रभु भी मनुष्य जैसे आकार में है। इसी का प्रमाण पवित्र र्कुआन शरीफ में भी है। इसी प्रकार पवित्र आत्माऐं मुस्लमान प्रभु को बेचून (निराकार) अल्लाह (प्रभु) कहते हैं, जबकि पवित्र र्कुआन शरीफ के सुरत फूर्कानि संख्या 25, आयत संख्या 52 से 59 में लिखा है कि जिस प्रभु ने छः दिन में सृष्टि रची तथा सातवें दिन तख्त पर जा विराजा, उसका नाम कबीर है। पवित्र र्कुआन को बोलने वाला प्रभु किसी और कबीर नामक प्रभु की तरफ संकेत कर रहा है तथा कह रहा
है कि वही कबीर प्रभु ही पूजा के योग्य है, पाप क्षमा करने वाला है, परन्तु उसकी भक्ति के विषय में मुझे ज्ञान नहीं, किसी तत्वदर्शी संत से पूछो। उपरोक्त दोनों पवित्र शास्त्रों (पवित्र बाईबल व पवित्र र्कुआन शरीफ) ने मिल-जुल कर सिद्ध कर दिया है कि परमेश्वर मनुष्य सदृश शरीर युक्त है। उसका नाम कबीर है। पवित्रआत्माऐं हिन्दू व सिख उसे निरंकार(निर्गुण ब्रह्म) के नाम से जानते हैं। 

जबकि आदरणीय नानक साहेब जी ने सतपुरुष के आकार रूप में दर्शन करने के बाद अपनी अमृतवाणी महला पहला ‘श्रीगुरु ग्रन्थ साहेब‘ में पूर्ण ब्रह्म का आकार होने का प्रमाण दिया है, लिखा है ‘‘धाणक रूप रहा करतार (पृष्ठ 24), हक्का कबीर करीम तू बेएब परवरदिगार(पृष्ठ 721)‘‘ 

तथा प्रभु के मिलने से पहले पवित्र हिन्दू धर्म में जन्म होने के कारण श्री ब्रजलाल पाण्डे से
पवित्र गीता जी को पढ़कर श्री नानक साहेब जी ब्रह्म को निराकार कहा करते थे। उनकी दोनों प्रकार की अमृतवाणी गुरु ग्रन्थ साहेब मे लिखी हैं। 

हिन्दुओं के शास्त्रों में पवित्र वेद व गीता विशेष हैं, उनके साथ-2 अठारह पुराणों को भी समान दृष्टी से देखा जाता है। श्रीमद् भागवत सुधासागर, रामायण, महाभारत भी विशेष प्रमाणित शास्त्रों में से हैं। विशेष विचारणीय विषय यह है कि जिन पवित्र शास्त्रों को हिन्दुओं के शास्त्र कहा जाता है, जैसे पवित्र चारों वेद व पवित्र श्रीमद् भगवत गीता जी आदि, वास्तव में ये सद् शास्त्र केवल पवित्र हिन्दु धर्म के ही नहीं हैं। 

ये सर्व शास्त्र महर्षि व्यास जी द्वारा उस समय लिखे गए थे जब कोई अन्य धर्म नहीं था। इसलिए पवित्र वेद व पवित्र श्रीमद्भगवत गीता जी तथा पवित्रपुराणादि सर्व मानव मात्र के कल्याण के लिए हैं। पवित्र यजुर्वेद अध्याय 1 मंत्र 15-16 तथा अध्याय 5 मंत्र 1 व 32 में स्पष्ट किया है कि

‘‘{अग्नेः तनूर् असि, विष्णवे त्वा सोमस्य तनुर्
असि, कविरंघारिः असि, स्वज्र्योति ऋतधामा असि} 

परमेश्वर का शरीर है, पाप के शत्रु परमेश्वर का नाम कविर्देव है, उस सर्व पालन कत्र्ता अमर पुरुष अर्थात् सतपुरुष का शरीर है। वह स्वप्रकाशित शरीर वाला प्रभु सत धाम अर्थात् सतलोक में रहता है। 

पवित्र वेदों को बोलने वाला ब्रह्म यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 8 में कह रहा है कि पूर्ण परमात्मा 
कविर्मनीषी अर्थात्क विर्देव ही वह तत्वदर्शी है 
जिसकी चाह सर्व प्राणियों को है, वह कविर्देव परिभूः अर्थात्स र्व प्रथम प्रकट हुआ, जो सर्व प्राणियों की
सर्व मनोकामना पूर्ण करता है। वह कविर्देव स्वयंभूः अर्थात् स्वयं प्रकट होता है, उसका शरीर किसी माता-पिता के संयोग से (शुक्रम् अकायम्) वीर्य से बनी काया नहीं है, उसका शरीर (अस्नाविरम्) नाड़ी रहित है अर्थात्
पांच तत्व का नहीं है, केवल तेजपुंज से एक तत्व का है, जैसे एक तो मिट्टी की मूर्ति बनी है, उसमें भी नाक, कान आदि अंग हैं तथा दूसरी सोने की मूर्ति बनी है, उसमें भी सर्व अंग हैं। ठीक इसी प्रकार पूज्य कविर्देव का शरीर तेज तत्व का बना है, इसलिए उस परमेश्वर के शरीर की उपमा में अग्नेः तनूर् असि वेद में कहा है। सर्व प्रथम 

पवित्र शास्त्र श्रीमद्भगवत गीता जी पर विचार करते हैं।

”पवित्र श्रीमद्भगवत गीता जी का ज्ञान किसने कहा?“

पवित्र गीता जी के ज्ञान को उस समय बोला गया था जब महाभारत का युद्ध होने जा रहा था। अर्जुन ने युद्ध करने से इन्कार कर दिया था। युद्ध क्यों हो रहा था? इस युद्ध को धर्मयुद्ध की संज्ञा भी नहीं दी जा सकती क्योंकि दो परिवारों का सम्पत्ति वितरण का विषय था। कौरवों तथा पाण्डवों का सम्पत्ति बंटवारा नहीं हो रहा था। कौरवों ने पाण्डवों को आधा राज्य भी देने से मना कर दिया था। दोनों पक्षों का बीच-बचाव करने के लिए प्रभु
श्री कृष्ण जी तीन बार शान्ति दूत बन कर गए। परन्तु दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी जिद्द पर अटल थे। श्री कृष्ण जी ने युद्ध से होने वाली हानि से भी परिचित कराते हुए कहा कि न जाने कितनी बहन विधवा होंगी ? न जाने कितने बच्चे अनाथ होंगे ? महापाप के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा। युद्ध में न जाने कौन मरे, कौन बचे ? तीसरी बार जब श्री कृष्ण जी समझौता करवाने गए तो दोनों पक्षों ने अपने-अपने पक्ष वाले राजाओं की सेना सहित सूची पत्र दिखाया तथा कहा कि इतने राजा हमारे पक्ष में हैं तथा इतने हमारे पक्ष में। जब श्री कृष्ण जी ने
देखा कि दोनों ही पक्ष टस से मस नहीं हो रहे हैं, युद्ध के लिए तैयार हो चुके हैं। तब श्री कृष्ण जी ने सोचा कि एक दाव और है वह भी आज लगा देता हूँ। 

श्री कृष्ण जी ने सोचा कि कहीं पाण्डव मेरे सम्बन्धी होने के कारण अपनी जिद्द इसलिए न छोड़ रहे हों कि श्री कृष्ण हमारे साथ हैं, विजय हमारी ही होगी(क्योंकि श्री कृष्ण जी की बहन सुभद्रा जी का विवाह श्री अर्जुन
जी से हुआ था)। श्री कृष्ण जी ने कहा कि एक तरफ मेरी सर्व सेना होगी और दूसरी तरफ मैंहोऊँगा और इसके साथ-साथ मैं वचन बद्ध भी होता हूँ कि मैं हथियार भी नहीं उठाऊँगा। इस घोषणा से पाण्डवों के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। उनको लगा कि अब हमारी पराजय निश्चित है। यह विचार कर पाँचों पाण्डव यह कह कर सभा से बाहर गए कि हम कुछविचार कर लें। कुछ समय उपरान्त श्री कृष्ण जी को सभा से बाहर आने की प्रार्थना की। श्री कृष्ण जी के बाहर आने पर पाण्डवों ने कहा कि हे भगवन् ! हमें पाँच गाँव दिलवा दो। हम युद्ध नहीं चाहते हैं। हमारी इज्जत भी रह जाएगी और आप चाहते हैं कि युद्ध न हो, यह भी टल जाएगा। पाण्डवों के इस फैसले से श्री कृष्ण जी बहुत प्रसन्न हुए तथा सोचा कि बुरा समय टल गया। श्री कृष्ण जी वापिस आए, सभा में केवल कौरव तथा उनके समर्थक शेष थे। श्री कृष्ण जी ने कहा दुर्योधन युद्ध टल गया है। मेरी भी यह हार्दिक इच्छा थी। आप पाण्डवों को पाँच गाँव दे दो, वे कह रहे हैं कि हम युद्ध नहीं चाहते। दुर्योधन ने कहा कि पाण्डवों के लिए सुई की नोक तुल्य भी जमीन नहीं है। यदि उन्हंे राज्य चाहिए तो युद्ध के लिए कुरुक्षेत्र के मैदान में आ जाऐं। इस बात से श्री कृष्ण जी ने नाराज होकर कहा कि दुर्योधन तू इंसान नहीं शैतान है। कहाँ आधा राज्य और कहाँ पाँच गाँव? मेरी बात मान ले, पाँच गाँव दे दे। श्री कृष्ण से नाराज होकर दुर्योधन ने सभा में उपस्थित योद्धाओं को आज्ञा दी कि श्री कृष्ण को पकड़ो तथा कारागार में डाल दो। आज्ञा मिलते ही योद्धाओं ने श्री कृष्ण जी को चारों तरफ से घेर लिया। 

श्री कृष्ण जी ने अपना विराट रूप दिखाया। जिस कारण सर्व योद्धा और कौरव डर कर कुर्सियों के नीचे घुस गए तथा शरीर के तेज प्रकाश से आँखें बंद हो गई। श्री कृष्ण जी वहाँ से निकल गए। 

आओ विचार करें:- उपरोक्त विराट रूप दिखाने का प्रमाण संक्षिप्त महाभारत गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित में प्रत्यक्ष है। जब कुरुक्षेत्र के मैदान में पवित्र गीता जी का ज्ञान सुनाते समय अध्याय 11 श्लोक 32 में पवित्र गीता बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि ‘अर्जुन मैं बढ़ा हुआ काल हूँ। अब सर्व लोकों को खाने के लिए प्रकट हुआ हूँ।‘ जरा सोचें कि श्री कृष्ण जी तो पहले से ही श्री अर्जुन जी के साथ थे। यदि पवित्र गीता जी के ज्ञान को श्री कृष्ण जी बोल रहे होते तो यह नहीं कहते कि अब प्रवत्र्त हुआ हूँ। 

फिर अध्याय 11 श्लोक 21 व 46 में अर्जुनकह रहा है कि भगवन् ! आप तो ऋषियों, देवताओं तथा सिद्धों को भी खा रहे हो, जो आप का ही गुणगान पवित्र वेदों के मंत्रों द्वारा उच्चारण कर रहे हैं तथा अपने जीवन की रक्षा के लिए मंगल कामना कर रहे हैं। कुछ आपके दाढ़ों में लटक रहे हैं, कुछ आप के मुख में समा रहे हैं। हे सहò बाहु अर्थात् हजार भुजा वाले भगवान ! आप अपने उसी चतुर्भुज रूप में आईये। मैं आपके विकराल रूप को देखकर धीरज नहीं कर पा रहा हूँ। अध्याय 11 श्लोक 47 में पवित्र गीता जी को बोलने वाला प्रभु काल कह रहा है कि ‘हे अर्जुन यह मेरा वास्तविक काल रूप है, जिसे तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा था।‘ उपरोक्त विवरण से एक तथ्य तो यह सिद्ध हुआ कि कौरवों की सभा में विराट रूप श्री कृष्ण जी ने दिखाया था तथा यहाँ युद्ध के मैदान में विराट रूप काल (श्री कृष्ण जी के शरीर मंे प्रेतवत्प्र वेश करके अपना विराट रूप काल) ने दिखाया था। नहीं तो यह नहीं कहता कि यह विराट रूप तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा है क्योंकि श्री कृष्ण जी अपना विराट रूप कौरवों की सभा में पहले ही दिखा चुके थे। दूसरी यह बात सिद्ध हुई कि पवित्र गीता जी को बोलने वाला काल(ब्रह्म-ज्योति निरंजन) है, न कि श्री कृष्ण जी। क्योंकि श्री कृष्ण जी
ने पहले कभी नहीं कहा कि मैं काल हूँ तथा बाद में कभी नहीं कहा कि मैं काल हूँ। श्री कृष्ण जी
काल नहीं हो सकते। उनके दर्शन मात्र को तो दूर- दूर क्षेत्र के स्त्री तथा पुरुष तड़फा करते थे।
यही प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 24. 25 में है जिसमें गीता ज्ञान दाता प्रभु ने कहा है कि
बुद्धिहीन जन समुदाय मेरे उस घटिया (अनुत्तम) विद्यान को नहीं जानते कि मैं कभी भी मनुष्य
की तरह किसी के सामने प्रकट नहीं होता। मैं अपनी योगमाया से छिपा रहता हूँ। उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता श्री कृष्ण जी नहीं है। क्योंकि श्री कृष्ण जी तो सर्व समक्ष साक्षात् थे। श्री कृष्ण नहीं कहते कि मैं अपनी योग माया से छिपा रहता हूँ। इसलिए गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी के अन्दर प्रेतवत् प्रवेश करके काल ने बोला था। 

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Saturday, April 2, 2016

सुलतान अधम को पार करना ।।

बल्ख बुखारे का बादशाह था यह सुलतान अधम और यह वोही आत्मा थी जो सेऊ रूप मे कबीर जी की शरण मे आई थी । लेकिन पार नही हो पाई थी । अगला जन्म मे फिर वो नोलखा का नोशेरवां नाम का राजा बना फिर भी पार नही हुआ तो बन्दीछोड ने अगला जन्म सुलतान अधम का दिया क्योकि पिछली भगती थी । जो किसी भी जन्म मे भगती करते है उनके भगती की बहुत कसक होती है जिस कारण से उसके महल के पास मे सतसंग हो रहा था । उसने सुना उसे बढा पसंद आया और अल्लाह पाने की उम्मीद जाग गई । अगले दिन सिपाहीयों को कहा जो संत कल सतसगं कर रहे थे उनको महल बुला कर ले आओ । 
महल मे आए साधु संतो को कहा पीरजी आपने अल्लाह पा रखा है अगर पा रखा है तो मुझे मिलाओ ।
संत बोले - बादशाह । अल्लाह के पाने की विधि है वो एसे नही दिखता । एक समजदार संत था
वो बोला - राजन् एक गिलास दुध देना जी ।
दुध आगया । दुध मे वो संत उंगली डाल कर बार बार देख रहा है ।
बादशाह ने कहा क्या देख रहे हो जी वो बोला की सुना है दुध मे घी होता है पर इसमे नही है ।
बादशाह बोला - तुझे इतना तो पता नही दुध केसे घी बनता है अल्लाह क्या खाख पाया होगा तुने । इसके घी बनाने की विधि है एसे नही मिलता घी ।।
संत बोला - राजन् इसी प्रकार परमातमा भी युं कोनी मिलदा ।
राजा बोला - अच्छा !ओह !! मेरी बात का जवाब देता है । सबको जेल मे चकी पीसने लगा दो ।
उसने सबको जेल मे डाल दिया ।
एक दिन अल्लाह कबीर एक ऊंट चराने वाले का रूप बनाकर जंहा राजा का निवास स्थान था उसकी छत पर गड गड सोटी से मारी ।।
राजा की नींद बंग हुई बोला कौन है कमबखतं पकड तर लाओ । सेनिक ले पकड कर पुछा कोन है तु यहाँ क्या करन आया ।
मालिक बोले - राजन् मे रबहारी हुँ मेरा एक ऊंट गुम हो गया मे छत पर ऊट डुंढ रहा था ।
राजा बोला - छत पर और ऊटं कभी हो सकता है क्या !!!
मालिक बोले - जिस प्रकार छत पर ऊटं नही मिल सकता । उसी प्रकार राज मे अल्लाह नही पाया जा सकता । अल्लाह तो सतों मे मिलता है ।
परमात्मा - सामने से ही गायब हो गए ।राजा बेहोश हो गया । मालिक जेल मे पुहंचे  और कहा तुहारे राजा ने मुझे भी जेल कर दी  । सिपाही बोले - तो चल पीस चक्की । मालिक बोले- या तो हम चक्की पीसें गें या दाने डालेंगे कोई एक काम बोलो । तो उनहोने बोला तुम पीसो हम दाने डालें गें । परमातमा ने अपनी सोटी एक चक्की पे लगा दी । तो सभी चलने लगी ।  वो दाने डाल रहे थे कि परमातमा ने सबी संतो जो जेल मे थे उनहे कहा आखे बंद करो । अौर खोली तो दुर खडे थे ।
इतने राजा को होश आया सिपाही बोले राजा एक संत आया था सबको शुटवा गया । राजा गया देखने वो चक्की गुम ही रही थी राजा फिर बेहोश हो गया ।
10-15 दिन बीत गए । मालिक फिर एक यात्री का रूप बनाकर आए । बोले ए धर्मशाला वाले एक कमरा दे भाई रात काट नी है ।
राजा बोला - यह मेरा राज महल है ।मे राजा हुं ।
यात्री बोला - तुझ से पहले कौन था ??
राजा बोला -  मेरे पिता थे ।
यात्री बोला - उससे पहले कौन था ??
राजा बोला - दादा परदादा थे !!
यात्री बोला - वो लोग कहां गए ??
राजा बोला - वो अल्लाह खुदा को प्यारे हुए ।
यात्री बोली - तो तु कितने दिन रहे गा ?
राजा बोला - मे भी मरुंगा !
यात्री बोला - तो यह धर्मशाला नही तो क्या है ?
मालिक यह कहकर फिर गायब और राजा फिर बेहोश ।
3 घंटे मे होश आया तो बहुत दुखी हुआ राज से मन हटने लगा ।
5-6 दिन बाद एक बाग जहां राजा हर रोज दोपहर को आरम करता था ।वहां अल्लाह एक नोकरानी के रूप मे उस बिस्तर पर सो रहे थे ।
राजा बोला - तेरी इतनी हिमत तु मेरे बिसतर पर सोइ । कोरडे से तीन बार पीठ पर मारा । जो कपडा था मालिक वो भी फट गया । पहले तो परमातमा ने थोडा रोने का नाटक किया फिर हसतें हसतें लोट पोट हो गए
राजा बोला - 1  कोरडे की खाके आदमी तो मर जाता है । औरत का तो मतलब क्या कि हसें । हाथ पकड कर पुछा तु हसीं क्यो ।
बादीं रूप मे बोले अल्लाह - कि मे युं हसुं हुँ कि मे इस बिस्तर पर 3 घडी सोइ तो मेरा यह हाल हुआ और तेरा क्या होगा मे यह सोच कर हसीं । बन्दीछोड फिर गायब ।
राजा फिर बेहोश ।
राज काज मे मन लगना बंद हो गया । रानी ने सोचा कि कही ये राज ना त्याग दे । इसका मन बहलाने के लिए इसको शिकार पर ले जाओ ।
शिकार पर गए तो वहां शाम तक कोइ शिकार नही मिला । फिर एक हिरन दिखा राजा ने बोला कि यह छुटना नही चाहिए । जिसने छोडा सुली तोड दुगां उसको । राजा के घोडे के नीचे से वो हिरन निकाल गया । राजा शरम के मार पीछे पड गया ।10 कीलोमीटर के बाद वो हिरन कहीँ गायब हो गया । पर राजा मरने की हालत मे हो गया प्यास लग गई अगर 2 मिनट पानी ना मिले तो दोनो मरें राजा और घोडा दोनोमर जाए ।
सामने राजा ने देखा एक भाग है सुंदर पेड है काजु बादाम के फलो से लदे हुए । पास ही एक तालाब है बहुत शीतल जल है और एक झोंपडी  है । एक महातमा बाबा जी बेठा है । वो जिंदा महातमा थे उन्होने तीन कुते जो बहुत सुंदर है बाधं रखे है एक कुता बाधने की डोर खाली पडी है ।
राजा ने प्यास बुजाइ । घोडे को भी पिलाया पानी फिर बाबा जी को बोला - पीर जी को सलाम ।
जिंदा बोले - सलाम कुबुल
राजा बोला - यह तून कुतो मे से दो मुझे दे दे तु क्या करे गा
जिंदा बोले - भाई यह आम कुते नही है !!
राजा बोला - एसा क्या इनमे ??
जिंदा बोले - भाइ यह एक तो बलखबुखारे का जो राजा है ना उसका बाप है ।
दुसरा दादा है ।
तीसरा परदादा है ।
जब मे इनको बोलता था कि दो घडी अल्लाह को याद करलो तो यह बोलते थे समय नही है !! आज इन हरामजादों के पास समय भी है और यह हलवा खाने की कोशीश करते है तो इनको अब मे खाने नही देता इनको मारता हुँ अब । और अभी जो राजा है ना वो कुता बने गा वहां खाली डोर पडी थी यँहा बांदुगा अब अफलातुन बना हुआ है । राजा ने सोचा यह तो वोही लगता है । पैर पकडने के लिए झुकता है तो परमात्मा गायब। राजा बेहोश । जब उठा तो देखा ना कोइ कुता है ना कोई बाबा ना कोई तालाब पर घोडे के पैर गीले राजा बिल कुल दुखी हो गया ।
राजभवन मे बैठा था सेनापति बोले महाराज ये भुत तो छोरीयों को दिखते है आप क्यों दुखी होते है ।
इतने मे एक कुता जो बुरी तरह से जखमी और उसको सिर मे कीडे पडे थे दोडकर आया बोला अबराहिम मे भाई उस देश का राजा था । आज मेरे पाप का नितजा सामने आ रहा है और बीरा तेरे पास मोका है सँबहाल ले !! कुता भाग गया !!
अबराहिम बोला अब यह क्या चीज थी भाई तुम तो मरद थे ।
राजा अपने महल के छत पर बैठ जाता है वँहा उसका सिपाही कुछ चकोरोँ को छोड देता है । एक बाज आता है चकोर को लेकर उड जाता है । आकाशवाणी हुई देखले काल तुझे इसी तरह लेके उड जाएगा । अभी मोका है ।
पुरी तरह से सुलतान वेराग होकर राज्य तयाग कर जंगल मे रहने लगता है । वहाँ उसे बन्दीछोड मिलते है और उसे नाम देकर पार करते है ।
जय बन्दीछोड की ।।।
सतसाहेब ।।।

सेऊ, समन ,नेकी की कथा ।।

एक बार जब मालिक 600 साल पहले आए हुए थे । तब उनके तीन शिष्य हुए थे समन उसकी पतनी नेकी और एक छोटा सी उम्र का पुत्र सेऊ था वेसे वासतिवक नाम उसका शिव था । यह लोग मनियारी ( चुडियाँ पहनाने  ) का काम करते थे । और साथ मे जहाँ भी जाते परमात्मा की महिमा गाते थे । तो अन्य कुछ लोग उनसे ईर्ष्या  करते थे । एक दिन सेउ ने अपने मित्र के सामने महिमा बताई  कि हमारे गुरू जी ने दिल्ली  के सम्राट सिकंदर लोदी का जलन का रोग हाथ रखकर ठीक कर दिया था ।
मित्र कहते थे कि तुम्हारे गुरू बस राजा के ही जाते है तुम्हारे घर आए कभी !! सेऊ कहने लगा हमारे गुरू जी ऐसे नही है , देखना एक दिन वो हमारे घर भी आएंगे ।
यही रट सी लग गई सेऊ को कि गुरू हमारे घर आ जायैं तो कितना अच्छा   होगा ।
वो सेऊ बालक अपनी माँ नेकी से कहता है कि हमारे गुरू जी हमारे घर भी आ जाएं तो कितना अच्छा हो हरदम यही रट रहे ।
तो माँ बोली गुरू जी के पास वक्त नही होती बेटा उनके बहुत शिष्य हो गए हैं ।
इसी के चलते इधर काशी मे कमाल को अहंकार हो गया था कि जो सेवा मे गुरू कि करता हुँ और कोई नही कर सकता ।
तो अंतरयामी परमेश्वर कबीर साहेब ने सोचा कि इस कमाल की फडक भी निकाल दुं ओर उधर दिल्ली के भगत काफी दुखी है । तो कमाल और फरीद जी को लेकर कबीर जी समन की झोंपडी के सामने खडे थे ।
सेऊ अब भी यही रट मे था कि अगर एक बार गुरू जी आ जाएं तो मेरे मुँह उठ जाएगा मित्र के सामने कि हमारे गुरू जी हमारे घर भी आते है ।
इतनी बात हो ही रही थी कि बाहर से आवाज आई कबीर साहेब की उन्हौने सोचा वैसे ही हमारे कान बोल रहे है धोखा है !!!
फिर आवाज आती है वो लोग बाहर गए और देखते ही रह गए मतलब सुन्न से हो गए । इतने मे कमाल बोला भाई अदंर भी ले जाओगे । !!
फिर उनका सपना सा खत्म हुआ, कबीर  जी को अदंर  फटे पुराने आसन पर बिठा दिया । समन बोला नेकी गुरू जी के लिए भोजन बनाओ । कबीर जी को जल पान के लिए पानी दिया । नेकी बोली जी भोजन के लिए सामग्री शेष नही है । समन बोला अपनी चुंनरी ( कपडा)
दे दे इसे गिरबी रख कर ले आता हुँ ।
नेकी ने कहा मे इसे लेकर गई थी पर आज कोई भी नगर मे नही ले रहा । वो लोग व्यंग कस रहे है कि तुमहारे गुरू तो भगवान है ना !""
समन ने सोचा मे कैसा नीच प्राणी आज ही मेरे मालिक आए और मे कैसा दुरभागी प्राणी ।
नेकी कहने लगी तुम दोनो सेऊ और समन रात को चोरी करके 3 सेर ( तीन हाथ ) आटा ले आओ । सेऊ कहता है चोरी तो पाप होता है । माँ ने उसे कहा चोरी को दान कर देगें बेटा फिर कोई पाप नही लगता ।
फिर बहुत समझाने पर समझ में आ गया । दोनो बाप-बेटा रात को बनिये ( सेठ) की दुकान मे चोरी करने के लिए पहुचें , कच्ची दीवार मे छेद कर लिया अदंर घुसने के लिए ।
समन बोला मैं जाता हुँ बेटा । बेटा कहता है पिता जी बनिये की राजा तक पहुँच है ,आपको मौत की बजह भी दे सकता है और बालक की तो माफी हो जाती है । इतना कहकर सेऊ गुस्सा गया और चोरी करके बाहर आ रहा था कि जोर से तराजु के ताखडे की आवाज हुई सेऊ ने पोटली फेंक दी बाहर समन भाग लिया ।
सेऊ को बनिये ने पकड लिया और थम से बाध दिया ओर कहा तुम ! भगत बनते हो आज खुल गयी तुम्हारी पोल ।
सेऊ ने कहा सेठ जी हमने चोरी अपने लिये नही कि बल्कि हमारे गुरू जी आए है उनको भोजन खिलाना है ।
सेठ ने कहा हाँ  तुम्हारे  गुरू जी आये  चोरी कराने। बताता हुँ राजा को सारे तीर निकलेंगें तुम्हारे गुरू पर ।
सेऊ ने सोचा यह क्या बनी हमारा तो चलो ठीक पर यह तो गुरू को भी तंग करेगें । सेऊ ने सोचा अगर मेरा बाप मेरा सिर काट ले तो यह सेठ डर के मारे कुछ नही करेगा । यही बात नेकी ने पुछी कि लडका कहाँ है समन ने कहा वो तो बीनिये ने पकड लिया । नेकी ने कहा तु उसका सिर काट कर ले आ कहीँ उसे पहचान ना ले कोई ।
समन कर्द लेकर पहूंचा  ,कहा बेटा सेऊ दो बात करनी है बेटा एक बार बाहर आजा । सेऊ ने कहा सेठ जी पिता जी आए हैं दो बात करने की कह रहे है । सेठ ने बोला भाग जाओगे । सेऊ ने कहा खोलना मत बस ढीला कर दो । तो सेठ ने सोचा कपदे ढीली कंहा जाएगा । सेऊ गया पिता के पास । पिता अखिर पिता ही होता है कर्द नही चली । सेऊ ने कहा अगर तु मेरा बाप है तो मेरा सिर काट दे इतने सुनते ही कर्द से सिर काट कर घर आ गया । सेऊ, समन ,नेकी  की पाख कथा ।।
एक बार जब मालिक 600 साल पहले आए हुए थे । तब उनके तीन शिष्य हुए थे समन उसकी पतनी नेकी और एक छोटा सी उम्र का पुत्र सेऊ था वेसे वासतिवक नाम उसका शिव था । यह लोग मनियारी ( चुडीयाँ पहनाने  ) का काम करते थे । और साथ मे जहाँ भी जाते परमात्मा की महिमा गाते थे । तो अन्य कुछ लोग उनसे इर्शा करते थे । एक दिन सेउ ने अपने मित्र के सामने महिमा बताइ कि हमारे गुरू जी ने शिंकंदर लोदी का जलन का रोग हाथ रखकर ठीक कर दिया था । मित्र कहते थे कि तुमाहारे गुरू बस राजा के ही जाते है तुमाहारे द्यर आए कभी !! सेऊ कहने लगा हमारे गुरू जी एसे नही है देखना एक दिन वो हमारे द्यर भी आएंगे । यही रट सी लग गई सेऊ को कि गुरू हमारे द्यर आजाएं तो कितना होगा । वो सेऊ बालक अपनी माँ नेकी से कहता है कि हमारे गुरू जी हमारे द्यर भी आजाएं तो कितना अच्छा हो हरदम यही रट रहे । तो माँ बोली गुरू जी के पास वकत नही होती बेटा उनके द्यने शिस हो गए हां ।
इसी के चलते इधर काशी मे कमाल को अहंकार हो गया था कि जो सेवा मे गुरू कि करता हुँ और कोई नही कर सकता । तो अंतरयामी परमेशवर कबीर साहेब ने सोचा कि इस कमाल की फडक भी निकाल दुं ओर उधर दिल्ली के भगत काफी दुखी है । तो कमाल और फरीद जी को लेकर कबीर जी समन की झोंपडी के सामने खडे थे ।
सेऊ अब भी यही रट मे था कि अगर एक बार गुरू जी आजाएं तो मेरे मुह उठ जाएगा मित्र के सामने कि हमारे गुरू जी हमारे घर भी आते है । इतनी बात हो ही रही थी कि बाहर से आवाज आई कबीर साहेब की उनहोने सोचा वैसे ही हमारे कान बोल रहे है दोखा है !!! फिर आवाज आती है वो लोग बाहार गए और देखते ही रह गए मतलब सुन से हो गए । इतने मे कमाल बोला भाई अदंर भी ले जाओगे । !!
फिर उनका सपना सा खतम हुआ कबीर  जी को अदंर  फटे पुराने आसन पर बिठा दिया । समन बोला नेकी गुरू जी के लिए भोजन बनाओ । कबीर जी को जल पान के लिए पानी दिया । नेकी बोली जी भोजन के लिए सामग्री सेक्ष नही है । समन बोला अपनी चुंदडी ( कपडा)
दे दे इसे गिरबी रख कर ले आता हुँ । नेकी ने कहा मे इसे लेकर गई थी पर आज कोई भी नगर मे नही ले रहा । वो लोग वयंग कस रहे है कि तुमहारे गुरू तो भगवान है ना !""
समन ने सोचा मैं केसा नीच प्राणी आज ही मेरे मालिक आए और मे कैसा दुरभागी प्राणी ।
नेकी कहने लगी तुम दोनो सेऊ और समन रात को चोरी करके 3 शेर ( तीन हाथ ) आटा ले आओ । सेऊ कहता है चोरी तो पाप होता है । माँ ने उसे कहा चोरी को दान करदेगें बेटा फिर कोई पाप नही लगता । फिर बहुत समजाने पर समज मे आगया । दोनो बाप बेटा रात को बानिये ( सेठ) की दुकान मे चोरी करने के लिए पहुचें  कच्ची दीवार मे छेद कर लिया अदंर गुसने के लिए ।
समन बोला मे जाता हुँ बेटा । बेटा कहता है पिता जी बानिये की राजा तक पहुँच है आपको मोत की सजह भी दे सकता है और बालक की तो माफी हो जाती है । इतना कहकर सेऊ गुस गया और चोरी करके बाहर आ रहा था कि जोर से तराजु के ताखडे की आवाज हुई सेऊ ने पोटली फेंक दी बाहर समन भाग लिया ।
सेऊ को बानिये ने पकड लिया और थाबँ से बाध दिया ओर कहा तुम !"" भगत बनते हो आज पाटी थारी पोल । सेऊ ने कहा सेठ जी हमने चोरी अपने लिये नही कि बलकि हमारे गुरू जी आए है उनको भोजन खिलाना है । सेठ ने कहा हाँ थारे गुरू जी आंवे चोरी करान । बताता हुँ राजा को सारे तीर काडेगें थारे गुरू पर । सेऊ ने सोचा यह क्या बनी हमारा तो चलो ठीक पर यह तो गुरू को भी तंग करेगें । सेऊ ने सोचा अगर मेरा बाप मेरा सिर काट ले तो यह सेठ डर के मारे कुछ नही करेगा ।
यही बात नेकी ने पुछी कि लडका कँहा है समन ने कहा वो तो बीनिये ने पकड लिया । नेकी ने कहा तु उसका सिर काट कर ले आ कहीँ उसे पहचान ना ले कोई ।
समन कर्द लेकर पहुचां कहा बेटा सेऊ दो बात करनी है बेटा एक बार बाहर आजा । सेऊ ने कहा सेठ जी पिता जी आए हैं दो बात करन की कह रहे है । सेठ ने बोला भाग जाओगे । सेऊ ने कहा खोलना मत बस डीला कर दो । तो सेठ ने सोचा कपदे ढीली कंहा जाएगा । सेऊ गया पिता के पास । पिता अखिर पिता ही होता है कर्द नही चली । सेऊ ने कहा अगर तु मेरा बाप है तो मेरा सिर काट दे इतने सुनते ही कर्द से सिर काट कर घर आ गया ।
पत्नी नेकी ने कहा फिर से जा शव भी ले आ वो सेठ फेकेंगा उसे । समन गया शव भी छाती से लगाकर घर ले आया । बोरी मे बाधंकर कोने मे रख कर गुरू जी का भोजन तैयार किया ।
समन कहता है नेकी रोना मत गुरू जी को पता चलेगा तो रोटी नही खाएंगे ।
रोटी कबीर साहेब के सामने तीन थाली एक कबीर जी , एक कमाल , एक फरीद के लिए लाई गई।
परमात्मा  बोले भगतों इसे छह बर्तन मे करो । नेकी ने पाँच मे कर दिया। मालिक बोले छह मे करो । सभी बैठे थे खाना खाया नही जा रहा था । इतने मे कबीर साहेब बोले :-
"आओ सेऊ जी मिलो यह प्रसाद   प्रेम ।
सिर कटया करें चोरा कें साधो के निक्षेम" ।।
सेऊ धड  पर शीश चढा बेठैं पगत मा ।
गरीब दास नही निशान है यह उस सेऊ के ना ।।
बोलो सतगुरू देव रामपाल जी महाराज की जय ।।।।।।
सत साहिब
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धर्मदास यह जग बौराना। कोइ न जाने पद निरवाना।।

धर्मदास यह जग बौराना।
कोइ न जाने पद निरवाना।।
अब मैं तुमसे कहों चिताई। त्रियदेवन की उत्पति भाई।।
ज्ञानी सुने सो हिरदै लगाई।
मूर्ख सुने सो गम्य ना पाई।।
माँ अष्टंगी पिता निरंजन।
वे जम दारुण वंशन अंजन।।
पहिले कीन्ह निरंजन राई। पीछेसे माया उपजाई।।
धर्मराय किन्हाँ भोग विलासा। मायाको रही तब आसा।।
तीन पुत्र अष्टंगी जाये।
ब्रम्हा विष्णु शिव नाम धराये।।
तीन देव विस्त्तार चलाये।
इनमें यह जग धोखा खाये।।
तीन लोक अपने सुत दीन्हा।
सु निरंजन बासा लीन्हा।।
अलख निरंजन सु ठिकाना।
ब्रम्हा विष्णु शिव भेद न जाना।।
अलख निरंजन बड़ा बटपारा। तीन लोक जिव कीन्ह अहारा।।
ब्रम्हा विष्णु शिव नहीं बचाये। सकल खाय पुन धूर उड़ाये।।
तिनके सुत हैं तीनों देवा।
आंधर जीव करत हैं सेवा।।
तीनों देव और औतारा।
ताको भजे सकल संसारा।।
तीनों गुणका यह विस्त्तारा। धर्मदास मैं कहों पुकारा।।
गुण तीनों की भक्ति में,
भूल परो संसार।
कहै कबीर निज नाम बिन,
कैसे उतरें पार।।।
।। सत साहेँब ।।

Tuesday, March 22, 2016

मीरा का जन्म राजपूत परिवार में हुवा था, और ठाकुरो की बहु थी।

सत साहेब
राजपूत भाईयो , मीरा का जन्म राजपूत परिवार में हुवा था, और ठाकुरो की बहु थी।
मीरा पहले क्रष्ण जी की भगति में लीन थी, लेकिन गुरु मिले और रविदास जी को गुरु बनाया। और रविदास जी के सदगुरु कबीर साहेब जी थे, देख लो इस वाणी में प्रमाण। तो आप लोग क्यों नही पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब जी भगति करते हो। मीरा ने तो अपना कल्याण भी करवा लिया, और अपना नाम अमर कर गयी। फिर आप लोग क्यों पीछे रह रहे हो।

Tuesday, February 23, 2016

एक न कर्ता, दो न कर्ता, नौ ठहराय भाई |दसवाँ भी दुढ़न में मिलजे, सत् कबीर दुहाई ||

सत साहेब,
एक न कर्ता, दो न कर्ता, नौ ठहराय भाई |
दसवाँ भी दुढ़न में मिलजे, सत् कबीर दुहाई ||
" कृष्ण,राम,परशुराम,गौतम बुद्ध, मुह्हमद, ईसा ,मूसा "
कबीर साहेब अपने तत्व ज्ञान में बताते है तुमने अज्ञानता से एक नही, दो नही ,दस भगवन बना लिए है अपने अपने अनुसार,पर सत्य तो यही है की परमात्मा एक ही है जो पूर्ण ब्रह्म परम अक्षर पुरुष है जो सबका रचनहार है....
इस काल, क्षर पुरुष(ब्रह्म ) ने पूरी दुनिया को भर्मित करने के लिए भेजे गए अपने ईश्दूत को केवल नौ तक सिमित नही रखा है यह समय समय पर....
" कृष्ण,राम,परशुराम,गौतम बुद्ध, मुह्हमद, ईसा ,मूसा "
जैसे अपने अवतार अंश को धरती पर भेजता रहता है ताकि असली परमात्मा पूर्ण ब्रह्म तक ये पूण्य आत्माए न पहुच पाये और इन काल के दूतो द्वारा बताये गए रास्ते पर ही चल कर लाख 84 में मरते जीते रहे, इसलिए हमे धर्मो में बाँट दिया ....
इस पर परमात्मा कहते है
"इती दगा काल की समाई | फिर भी तत्व बिंदु टेक रह जाई" ||
अपने इन्ही काल के दूतो की श्रंख्ला को आगे बढ़ाते हुए काल ने ईशा जी को चुना और लोगो का मशीहा बना के भेजा ईशा जी से खूब चमत्कार करवाये जिससे की लोग उस पर आशक्त हो और उसे परमात्मा का बेटा माने .......
क्या आप जानते है की ईशा जी के अंतिम शब्द क्या थे
Mark / Matthew
"E′li, E′li, la′ma sa‧bach‧tha′ni?"
"My God, My God, why have you forsaken me?"
" मेरे प्रभु , मेरे प्रभु अपने मुझे अकेला क्यों छोड़ दिया"?
http://en.wikipedia.org/wiki/Crucifixion_of_Jesus…
यानि अंतिम समय भी ईशा जी ने किसी अन्य भगवान् से कहा कि मुझे अकेला क्यों छोड़ दिया और सारा ईसाई समाज आज ईशा जी की पूजा में लगा हुआ न की उस असली परमात्मा की
आखिर जब ईशा जी को फाँसी तोड़ दी गयी .....
कबीर परमेश्वर ने विश्व को आस्तिक बनाये रखने ले लिए तीन दिन बाद कई कई जगह दर्शन दिये ईशा जी के रूप में जिससे लोगो की आस्था बनी रहे बाकी असली भगवान का पता तो कलयुग की बिचली पीढ़ी में सबको करा ही दूँग|
अगर परमात्मा उस समय कई स्थानों पर प्रगट हो कर दर्शन न देते हो आज आधा विश्व् नास्तिक हो चूका होता जैसा की नास्तिकता का प्रारम्भ अब पश्चिमी देशो में हो चूका है ..
स्वत् छत्र सिर मुकुट विराजे देखत न उस चेहरे नु |
मुर्दो से तो प्रीत लगावे न जाने सतगुरु महरे नु ||
चल हंसा सतलोक हमारे, छोडो यह संसारा हो।
इस संसार का काल है राजा, कर्म को जाल पसारा हो।
चौदह खण्ड बसै जाके मुख, सबका करत अहारा हो।।
जारि बारि कोयला कर डारत, फिर फिर दे औतारा हो।।
ब्रह्मा बिस्नु सिव तन धरि आये, और को कौन बिचारा हो !
सुर नर मुनि सब छल बल मारिन, चौरासी में डारा हो।।
मद्ध अकास आप जहं बैठे, जोति सबद उजियारा हो।
वही पार इक नगर बसतु है, बरसत अमृत धारा हो।
कहे कबीर सुनो धर्मदासा, लखो पुरुष दरबारा हो।..
Jai ho bandichhod sadguru Rampal ji maharaj ki....
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Friday, February 19, 2016

सेऊ सम्मन की कथा

((((मृत लड़के सेऊ को जीवित करना))))

एक समय साहेब कबीर अपने भक्त सम्मन के यहाँ अचानक दो सेवकों (कमाल व शेखफरीद) के साथ पहुँच गए। सम्मन के घर कुल तीन प्राणी थे। सम्मन, सम्मन की पत्नी नेकी और सम्मन का पुत्र सेऊ। भक्त सम्मन इतना गरीब था कि कई बार अन्न भी घर पर नहीं होता था। सारा परिवार भूखा सो जाता था। आज वही दिन था। भक्त सम्मन ने अपने गुरुदेव कबीर साहेब से पूछा कि साहेब खाने का विचार बताएँ, खाना कब खाओगे? कबीर साहेब ने कहा कि भाई भूख लगी है। भोजन बनाओ। सम्मन अन्दर घर में जा कर अपनी पत्नी नेकी से बोला कि अपने घर अपने गुरुदेव भगवान आए हैं। जल्दी से भोजन तैयार करो। तब नेकी ने कहा कि घर पर अन्न का एक दाना भी नहीं है। सम्मन ने कहा पड़ोस वालों से उधार मांग लाओ। नेकी ने कहा कि मैं मांगने गई थी लेकिन किसी ने भी उधार आटा नहीं दिया। उन्होंने आटा होते हुए भी जान बूझ कर नहीं दिया और कह रहे हैं कि आज तुम्हारे घर तुम्हारे गुरु जी आए हैं। तुम कहा करते थे कि हमारे गुरु जी भगवान हैं। आपके गुरु जी भगवान हैं तो तुम्हें माँगने की आवश्यकता क्यों पड़ी? ये ही भर देगें तुम्हारे घर को आदि-2 कह कर मजाक करने लगे। सम्मन ने कहा लाओ आपका चीर गिरवी रख कर तीन सेर आटा ले आता हूँ। नेकी ने कहा यह चीर फटा हुआ है। इसे कोई गिरवी नहीं रखता। सम्मन सोच में पड़ जाता है और अपने दुर्भाग्य को कोसते हुए कहता है कि मैं कितना अभागा हूँ। आज घर भगवान आए और मैं उनको भोजन भी नहीं करवा सकता। हे परमात्मा! ऐसे पापी प्राणी को पृथ्वी पर क्यों भेजा। मैं इतना नीच रहा हूँगा कि पिछले जन्म में कोई पुण्य नहीं किया। अब सतगुरु को क्या मुंह दिखाऊँ? यह कह कर अन्दरकोठे में जा कर फूट-2 कर रोने लगा।

तब उसकी पत्नी नेकी कहने लगी कि हिम्मत करो। रोवो मत। परमात्मा आए हैं। इन्हें ठेस पहुँचेगी। सोचंेगे हमारे आने से तंग आ कर रो रहा है। सम्मन चुप हुआ। फिर नेकी ने कहा आज रात्राी में दोनों पिता पुत्रा जा कर तीन सेर (पुराना बाट किलो ग्राम के लगभग) आटा लाना। केवल संतों व भक्तों के लिए। तब लड़का सेऊ बोला माँ - गुरु जी कहते हैं चोरी करना पाप है। फिर आप भी मुझे शिक्षा दिया करती कि बेटा कभी चोरी नहीं करनी चाहिए। जो चोरी करते हैं उनका सर्वनाश होता है। आज आप यह क्या कह रही हो माँ? क्या हम पाप करेंगे माँ? अपना भजन नष्ट हो जाएगा। माँ हम चैरासी लाख योनियों में कष्ट पाएंगे। एैसा मत कहो माँ। माँ आपको मेरी कसम। तब नेकी ने कहा पुत्रा तुम ठीक कह रहे हो। चोरी करना पाप है परंतु पुत्रा हम अपने लिए नहीं बल्कि संतों के लिए करेंगे। नेकी ने कहा बेटा - ये नगर के लोग अपने से बहुत चिड़ते हैं। हमने इनको कहा था कि हमारे गुरुदेव कबीर साहेब (पूर्ण परमात्मा) आए हुए हैं। इन्होंने एक मृतक गऊ तथा उसके बच्चे को जीवित कर दिया था जिसके टुकड़े सिंकदर लौधी ने करवाए थे।
एक लड़के तथा एक लड़की को जीवित कर दिया। सिंकदर लौधी राजा का जलन का रोग समाप्त कर दिया तथा श्री रामानन्द जी (कबीर साहेब के गुरुदेव) जो सिंकदर लौधी ने तलवार से कत्ल कर दिया था वे भी कबीर साहेब ने जीवित कर दिए थे। इस बात का ये नगर वाले मजाक कर रहेहैं और कहते हैं कि आपके गुरु कबीर तो भगवान हैं तुम्हारे घर को भी अन्न से भर देंगे। फिर क्यों अन्न (आटे) के लिए घर घर डोलती फिरती हो?
बेटा ये नादान प्राणी हैं यदि आज साहेब कबीर इस नगरी का अन्न खाए बिना चले गए तो काल भगवान भी इतना नाराज हो जाएगा कि कहीं इस नगरी को समाप्त न कर दे। हे पुत्रा! इस अनर्थ को बचाने के लिए अन्न की चोरी करनी है। हम नहीं खाएंगे। केवल अपने सतगुरु तथा आए भक्तों को प्रसाद बना कर खिलाएगें। यह कह कर नेकी की आँखों में आँसू भर आए और कहा पुत्रा नाटियो मत अर्थात् मना नहीं करना। तब अपनी माँ की आँखों के आँसू पौंछता हुआ लड़का सेऊ कहने लगा- माँ रो मत, आपका पुत्रा आपके आदेश का पालन करेगा। माँ आप तो बहुत अच्छी हो न।अर्ध रात्राी के समय दोनों पिता (सम्मन) पुत्रा (सेऊ) चोरी करने केलिए चले दिए। एक सेठ की दुकान की दीवार में छिद्र किया। सम्मन ने कहा कि पुत्रा मैं अन्दर जाता हूँ। यदि कोई व्यक्ति आए तो धीरे से कह देना मैं आपको आटा पकड़ा दूंगा और ले कर भाग जाना। तब सेऊ ने कहा नहीं पिता जी, मैं अन्दर जाऊँगा। यदि मैं पकड़ा भी गया तो बच्चा समझ कर माफ कर दिया जाऊँगा। सम्मन ने कहा पुत्रा यदिआपको पकड़ कर मार दिया तो मैं और तेरी माँ कैसे जीवित रहेंगे? सेऊ प्रार्थना करता हुआ छिद्र द्वार से अन्दर दुकान में प्रवेश कर जाता है। तब सम्मन ने कहा पुत्रा केवल तीन सेर आटा लाना, अधिक नहीं। लड़का सेऊ लगभग तीन सेर आटा अपनी फटी पुरानी चद्दर में बाँध कर चलने लगा तो अंधेरे में तराजू के पलड़े पर पैर रखा गया। जोर दार आवाज हुई जिससे दुकानदार जाग गया और सेऊ को चोर-चोर करके पकड़ लिया और रस्से से बाँध दिया। इससे पहले सेऊ ने वह चद्दर में बँधा हुआ आटा उस छिद्र से बाहर फैंक दिया और कहा पिता जी मुझे सेठ ने पकड़ लिया है। आप आटा ले जाओ और सतगुरु व भक्तों को भोजन करवाना। मेरी चिंता मत करना। आटा ले कर सम्मन घर पर गया तो सेऊ को न पा कर नेकी ने पूछा लड़का कहाँ है? सम्मन ने कहा उसे सेठ जी ने पकड़ कर थम्ब से बाँध दिया। तब नेकी ने कहा कि आप वापिस जाओ और लड़के सेऊ का सिर काट लाओ। क्योंकि लड़के को पहचान करअपने घर पर लाएंगे। फिर सतगुरु को देख कर नगर वाले कहेंगे कि ये हैं जो चोरी करवाते हैं। हो सकता है सतगुरु देव को परेशान करें। हम पापी प्राणी अपने दाता को भोजन के स्थान पर कैद न दिखा दें। यह कह कर माँ अपने बेटे का सिर काटने के लिए अपने पति से कह रही है वह भी गुरुदेव जी के लिए। सम्मन ने हाथ में कर्द (लम्बा छुरा) लिया तथा दुकान पर जा कर कहासेऊ बेटा, एक बार गर्दन बाहर निकाल। कुछ जरूरी बातें करनी हैं। कल तो हम नहीं मिल पाएंगे। हो सकता है ये आपको मरवा दें। तब सेऊ उस सेठ (बनिए) से कहता है कि सेठ जी बाहर मेरा बाप खड़ा है। कोई जरूरी बात करना चाहता है। कृप्या करके मेरे रस्से को इतना ढीला कर दो कि मेरी गर्दन छिद्र से बाहर निकल जाए। तब सेठ ने उसकी बात को स्वीकार करके रस्सा इतना ढीला कर दिया कि गर्दन आसानी से बाहर निकल गई। तब सेऊ ने कहा पिता जी मेरी गर्दन काट दो। यदि आप मेरी गर्दन नहीं काटोगे तो आप मेरे पिता नहीं हो। सम्मन ने एक दम कर्द मारी और सिर काट कर घर ले गया। सेठ ने लड़के का कत्ल हुआ देख कर उसके शव को घसीट कर साथ ही एक पजावा (ईटें पकाने का भट्ठा) था उस खण्डहर में डाल गया।जब नेकी ने सम्मन से कहा कि आप वापिस जाओ और लड़के का धड़ भी बाहर मिलेगा उठा लाओ। जब सम्मन दुकान पर पहुँचा उस समय तक सेठ ने उस दुकान की दीवार के छिद्र को बंद कर लिया था। सम्मन ने शव कीे घसीट (चिन्हों) को देखते हुए शव के पास पहुँच कर उसे उठा लाया। ला कर अन्दर कोठे में रख कर ऊपर पुराने कपड़े (गुदड़) डाल दिए और सिर को अलमारी के ताख (एक हिस्से) में रख कर खिड़की बंद कर दी।कुछ समय के बाद सूर्य उदय हुआ। नेकी ने स्नान किया। फिर सतगुरु व भक्तों का खाना बनाया। फिर सतगुरु कबीर साहेब जी से भोजन करने की प्रार्थना की। नेकी ने साहेब कबीर व दोनों भक्त (कमाल तथा शेख फरीद), तीनों के सामने आदरके साथ भोजन परोस दिया। साहेब कबीर ने कहा इसे छः दौनों में डाल कर आप तीनों भी साथ बैठो। यह प्रेम प्रसाद पाओ। बहुतप्रार्थना करने पर भी साहेब कबीरनहीं माने तो छः दौनों में प्रसाद परोसा गया। पाँचों प्रसाद के लिए बैठ गए। तब साहेब कबीर ने कहा--

आओ सेऊ जीम लो, यह प्रसाद प्रेम।
शीश कटत हैं चोरों के, साधों के नित्य क्षेम।।

साहेब कबीर ने कहा कि सेऊ आओ भोजन पाओ। सिर तो चोरों के कटते हैं। संतों (भक्तों) के नहीं। उनको तो क्षमा होती है। साहेब कबीर ने इतना कहा था उसी समय सेऊ के धड़ परसिर लग गया। कटे हुए का कोई निशान भी गर्दन पर नहीं था तथा पंगत (पंक्ति) में बैठ कर भोजन करने लगा। बोलो कबीर साहेब (कविरमितौजा) की जय।सम्मन तथा नेकी ने देखा कि गर्दन पर कोई चिन्ह भी नहीं है। लड़का जीवित कैसे हुआ? अन्दर जा कर देखातो वहाँ शव तथा शीश नहीं था। केवल रक्त के छीटें लगे थे जो इस पापी मन के संश्य को समाप्त करने के लिए प्रमाण बकाया था।
***जय बन्दी छोड़ की जय***

ऐसी-ऐसी बहुत लीलाएँ साहेब कबीर (कविरग्नि) करते हैं सामवेद संख्या नं.822 में कहा है कि कविर्देव अपने विधिवत् साधक साथी की आयु बढ़ा देता ह

सत् साहेब