एक समय की बात है। गुजरात के अंदर एक भरुच शहर है। भरुच शहर में मंगलेश्वर नामक गाँव है। उस गाँव के साथ में नर्मदा नदी एक स्थान को दो हिस्से करके टापू बनाती है। आज से लगभग 550 (साढ़े पांच सौ) वर्ष पहले वहां एक शुक्ल तीर्थ नाम का गाँव बसा हुआ था। उसमें तीस-चालीस घर थे। उस गाँव में जीवा और तत्वा नाम के दो ब्राह्मण भाई रहा करते थे। उन्होंने संतों के सत्संग सुने। जो वास्तव में संत होते हैं, वे यही कहा करते हैं कि पूरे संत के बिना जीव उद्धार नहीं होगा। इन अधूरे गुरुओं के चक्कर में मनुष्य शरीर बर्बाद हो जाएगा। फिर न जाने कब और कौन से युग में मानव शरीर प्राप्त होगा? तब तक यह प्राणी चौरासी में चक्कर काटता रहेगा। मनुष्य शरीर का मिलना कोई बच्चों का खेल नहीं है। इसको ऐसे ही गवां देना, यह कोई समझदारी नहीं है।अब उन दोनों भाइयों ने फैसला किया कि बात तो ज्यों की त्यों है कि यह मनुष्य शरीर का मिलना कोई बार-बार नहीं होता। यदि इससे सत भक्ति न हुयी तो इसकी कोई कीमत नहीं है। यदि इससे मालिक की भक्ति हो गयी, सत मार्ग मिल गया तो इसकी कीमत है, नहीं तो मिटटी का मिटटी है। उन्होंने पहले किसी संत से उपदेश ले रखा था। परन्तु जब सुना की पूरे संत के बिना जीव उद्धार नहीं है तो उन्होंने सोचा कि हम पूरे संत से उपदेश लेंगे।अब पूरे संत की क्या पहचान हो? जहाँ भी जाते हैं, सभी संत अच्छी बातेंबताते हैं। परमात्मा की महिमा गाते हैं। हमें तो बहुत प्रिय लगते हैं।हमें पता ही नहीं लगता कि इनमें अधूरा कौन है और पूरा कौन है? {क्योंकि वे स्वयं विनम्र आत्मा होती हैं। वे प्रभु को चाहने वाली आत्मा होती हैं। उनके अंदर विशेष कसक होती है, परन्तु उनमें विशेष विवेक नहीं होता ।} उन्होंने सोचा क्या फैसला करें? अपने आप ही मन में फैसला लेते हैं। एक सूखे वृक्ष की टहनी जो बिलकुल सूख कर जलाने योग्य हो चुकी थी, उसको अपने आँगन में जैसे पौधा लगाते हैं ऐसे लगा दिया और फैसला किया कि इसमें सभी महापुरुषों के चरण धोकर उनका चरणामृतडालेंगे। जिसके चरणामृत से ये टहनी हरी हो जाएगी, हम उसे पूर्ण संत मानकर उपदेश ले लेंगे और समर्पण कर देंगे, अन्यथा नाम नहीं लेंगे। जिन महापुरुषों के बड़े-बड़े आश्रम बने हुए थे उनके पास गए। उनको घर पर पधारने की प्रार्थना की। कुछेक महापुरुष उनके घर पर आए। उनकी सेवा की, भोजन करवाया, और चरण धोकर चरणामृत को उस सूखी टहनी में डाल दिया। जो गरीब के घर पर नहीं जा सकते थे, उनके चरण धोकर चरणामृत घर पर ले आए और सूखी हुई टहनी में डाल दिया। परन्तु वह टहनी हरी न हो कर गलनि शुरू होगई। उन्होंने लगभग एक वर्ष तक यह तरीका अपनाया। परन्तु कोई भी संत ऐसानहीं मिला जिसके चरणामृत से वह टहनी हरी हो जाए।फिर दोनों भाई बैठ कर कहते हैं की हे प्रभु, हम प्राणियों को मनुष्य शरीर भी मिला, परन्तु ऐसे समय में मिला की कोई पूर्ण संत नहीं है। हे दाता, इससे अच्छा तो हमारे इस शरीर का अंत कर दो। बाकी का जो हमारा मनुष्य शरीर का समय है, कभी ऐसे समय में देना जब कोई पूर्ण संत पृथ्वी पर आया हो। नहीं तो इस मिटटी का कुछ नहीं बनेगा। प्रार्थना करते थे औररोते थे, विलाप करते रहते थे। कई महीने ऐसे बीत गए। अब वह दीनदयाल अन्तर्यामी सतगुरु कबीर परमेश्वर भक्त आत्माओं की तड़फ को देखकर वहां शुक्ल तीर्थ पर पहुँच गए। जीवा और तत्वा के मकान के सामने से निकले। जीवा बाहर खड़ा था। जीवा ने देखा कि इतनी प्यारी सूरत और देखते ही आनंदहो रहा है।गरीब, जिन मिलते सुख उपजे, मिटे कोटि अपाध।भवन चतुर्दश ढूंढियो, परम स्नेही साध।।जब परमेश्वर उनके सामने से निकले तो जीवा के रोम-रोम में आनंद हुआ। इतने में कबीर साहिब आगे चले गए। जीवा अपने भाई से बोला कि दत्ता, एक महात्मा आया हुआ है । क्या कारण है यह पता नहीं, किसी के घर जा रहा होगा? मुझे तो बहुत अच्छा लग रहा है। आपकी आज्ञा हो तो उसको अपने घर पर बुला लूँ ? दत्ता बोला कि जीवा वैसे तो आपकी इच्छा है लेकिन मेरी इच्छा नहीं बन रही। क्योंकि अब पृथ्वी पर संत नहीं रहे। इनसे भी यह टहनी हरी नहीं होगी और फिर हमें रोना पड़ेगा। इस भूली हुई वास्तु को दोबारा याद न दिला। जीवा बोला कि देख लो जी जैसी आपकी इच्छा। परन्तु मेरी तो बहुत प्रबल इच्छा बन रही है कि एक बार अपने घर बुला लाऊँ। यदिआपका हुकुम हो तो बुला लाऊँ ?दत्ता ने कहा की मैं आपकी आत्मा को क्यों दुःख दूँ? जब आपकी श्रद्धा बनी है तो संत आ जाए तो अच्छी ही बात है। इतनी देर में कबीर साहिब फिरवापिस आ जाते हैं। जैसे किसी का घर ढूंढ रहे हों। जिसकी सच्ची श्रद्धापरमेश्वर में लग जाती है उनको शरण में लेने के लिए परमात्मा न जाने क्या कारण बना दे ? स्वयं प्रकट हो जाएं या फिर अपना संत भेज दें। जब जीवा के मकान के पास आए तो जीवा दण्डवत प्रणाम करके बहुत मृदु भाषा में बोला की हे परवरदिगार, दास की झोंपड़ी साथ में ही है। एक बार पग फेरा कीजिए, चरण रखिए, दाता।कबीर साहिब तो उसी उद्देश्य से आए थे। अपना उद्देश्य पूरा करना था, अंदर प्रवेश कर गए। साहिब के लिए बैठना दे दिया। कबीर साहिब बैठ गए। तत्वा बोला कि जीवा संतों का चरणामृत बनाएंगे, चरण धोएंगे। कबीर परमेश्वर के चरण धोए। तत्वा बोला कि जीवा संतों के चरणामृत को या तो पान कर लेना चाहिए या फिर किसी पौधे में डाल देना चाहिए। ऐसे वैसे गलीमें मत फैंकना। जीवा ने वह पात्र उठाया और चरणामृत को सूखी टहनी में डाल दिया। वह सूखी टहनी चरणामृत डालते-डालते हरी हो गई, उस पर कोपल फूट आई। बोलो सतगुरु देव की जय। बन्दी छोड़ कबीर साहिब की जय।अब जीवा की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। अपने भाई तत्वा को कहा की भईआ, जल्दी दौड़ कर आओ। जिसकी तलाश थी वे आज स्वयं आ गए हैं। अब दोनों भाई देख कर बहुत प्रसन्न हुए। विनय की कि हे परमेश्वर, आज तक कहाँ छुपे थे? दोनों एक-एक पैर पकड़कर खूब फूट-फूट कर रोने लगे। कहने लगे कि हे दाता! आप पहले क्यों नहीं आये? कबीर साहिब बोले कि मैं पहले भी आ जाता। परन्तु तुम्हारा भर्म नहीं मिटता। तुम सोचते कि एक महात्मा और है। शायद वह इनसे भी बड़ा होगा। कबीर साहिब से शक्तिशाली होगा। मेरे आते ही ये कार्य तो तुम्हारा हो जाना था। परन्तु फिर तुम्हारे मन में शंका रह जाती कि एक महात्मा और है जो बहुत बड़े मंडलेश्वर हैं और तू वहां भी जाता। फिर क्या होता है कि : –गुरु को तजे भजे जो आना, ता पशुआ को फ़ोकट ज्ञाना।जब पूर्ण संत मिल जाए तो फिर आन संत में आपकी श्रद्धा गुरु के तुल्य नहीं रहनी चाहिए। आदर अवश्य करें।आये का आदर करे, चलते निवावे शीश।तुलसी ऐसे मीत को, मिलियो बीसवे बीस।।संतों का आदर करें, लेकिन गुरु से अधिक नहीं।ज्यों पतिव्रता पति से राति, आन पुरुष नहीं भावै।बसे पीहर में, ध्यान प्रीतम में, ऐसे सूरत लगावै।।जब आपको पूर्ण संत मिल जाएँगे तो आपको पूर्ण ज्ञान हो जायेगा, सही नाम मिल जायेगा और आपके सभी दुखों का निवारण हो जायेगा ।संतों का आदर बहुतज़रूरी है, अनादर करने से हमारे अंदर नफरत पैदा होगी। नफरत से भगवान दूरहो जाता है। जैसे पतिव्रता अपने पति से विशेष प्यार करती है अर्थात वास्तविक पूजा करती है। परन्तु फिर भी अपने जेठ का, जेठानी का, देवर औरदेवरानी का, रिश्तेदारों का, आये हुए अतिथि का बहुत आदर करती है। ऐसे हमने सब संतों व भक्तों का आदर करना है। लेकिन जो आदर अपने गुरु का करते हैं ऐसे नहीं करना, स्वाभाविक नहीं हो सकता। पतिव्रता अपने पति कोजो प्यार दे सकती है और किसी को नहीं दे सकती। ऐसे कबीर साहिब जीवा तथा तत्वा को समझा रहे हैं।फिर जीवा तथा तत्वा बोले कि प्रभु, दासों का कल्याण करो। कबीर साहिब नेकहा की उपदेश लो। बन्दी छोड़ ने उनको पहला मंत्र दिया और कहा कि कुछ समय के लिए इसका जाप करो। मैं फिर आऊँगा और फिर तुम्हें सतनाम दूंगा। सतनाम सतनाम यह कोई जाप नहीं है। वह सच्चा नाम, सतनाम, सतशब्द अन्य है।यदि कोई संत ऐसा सतनाम सतनाम जाप करने को देता है तो वो संत ज्ञानी नहीं है।सच्चानाम (सच्चाशब्द, सतशब्द) है वह न्यारा है
जो कबीर साहिब ने धर्मदास जी को दिया, गरीबदास जी को दिया, नानक जी को दिया, नामदेव जी को दिया, घीसा संत को दिया। वह सतनाम है। पहले केवल पान प्रवाना अर्थात तीन लोक से ऋण मुक्ति का मंत्र रूप में प्रथम मंत्र (नाम) दिया जाता है। फिर दूसरी बार सत्यनाम तथा फिर योग्यता तथा निष्ठा के आधार पर सारनाम दिया जाता है। सारनाम तीन मंत्र (नाम) का होता है। ऐसे तीन स्थिति में नाम दिया जाता है।तब साहिब के चरणों में लगकर जीवा और दत्ता दोनों भाइयों की मुक्ति हुई।
साभार:संत रामपाल जी महराज जी