Showing posts with label doha. Show all posts
Showing posts with label doha. Show all posts

Wednesday, March 22, 2017

संत कबीर साहेब के लोकप्रिय दोहे

सोना  सज्जन  साधू  जन , टूट  जुड़े  सौ  बार  |
दुर्जन  कुम्भ  कुम्हार  के , एइके  ढाका  दरार  ||

अर्थ : सोने को अगर सौ बार भी तोड़ा जाए, तो भी उसे फिर जोड़ा जा सकता है। इसी तरह भले मनुष्य हर अवस्था में भले ही रहते हैं। इसके विपरीत बुरे या दुष्ट लोग कुम्हार के घड़े की तरह होते हैं जो एक बार टूटने पर दुबारा कभी नहीं जुड़ता।

प्रेम  न  बड़ी  उपजी , प्रेम  न  हात  बिकाय  |
राजा  प्रजा  जोही  रुचे , शीश  दी  ले  जाय  ||


कामी   क्रोधी  लालची , इनसे  भक्ति  ना  होए  |
भक्ति  करे  कोई  सूरमा , जाती  वरण  कुल  खोय  ||

उज्जवल  पहरे  कापड़ा , पान  सुपारी  खाय  |
एक  हरी  के  नाम  बिन , बंधा  यमपुर  जाय  ||


जा  पल  दरसन  साधू  का , ता  पल  की  बलिहारी  |
राम  नाम  रसना  बसे , लीजै  जनम  सुधारी  ||

जो  तू  चाहे  मुक्ति  को , छोड़  दे  सबकी  आस  |
मुक्त  ही  जैसा  हो  रहे , सब  कुछ  तेरे  पास  ||

Monday, January 30, 2017

किसे भी जीव का मांश खाना बहुत बड़ा पाप है चाहे हिन्दू खावे चाहे मुसलमान

कबीर, जीव हने हिंसा करे, प्रकट पाप सिर होय।
निगम पुनि ऐसे पाप तें, भिस्त गया नहिं कोय।।1।।

कबीर, तिलभर मछली खायके, कोटि गऊ दे दान।
काशी करौंत ले मरे, तो भी नरक निदान।।2।।

कबीर, बकरी पाती खात है, ताकी काढी खाल।
जो बकरीको खात है, तिनका कौन हवाल।।3।।

कबीर, गला काटि कलमा भरे, कीया कहै हलाल।
साहब लेखा मांगसी, तब होसी कौन हवाल।।4।।

कबीर, दिनको रोजा रहत हैं, रात हनत हैं गाय।
यह खून वह वंदगी, कहुं क्यों खुशी खुदाय।।5।।

कबीर, कबिरा तेई पीर हैं, जो जानै पर पीर।
जो पर पीर न जानि है, सो काफिर बेपीर।।6।।

कबीर, खूब खाना है खीचडी, मांहीं परी टुक लौन।
मांस पराया खायकै, गला कटावै कौन।।7।।

कबीर, मुसलमान मारैं करदसो, हिंदू मारैं तरवार।
कहै कबीर दोनूं मिलि, जैहैं यमके द्वार।।8।।

कबीर, मांस अहारी मानव, प्रत्यक्ष राक्षस जानि।
ताकी संगति मति करै, होइ भक्ति में हानि।।9।।

कबीर, मांस खांय ते ढेड़ सब, मद पीवैं सो नीच।
कुलकी दुरमति पर हरै, राम कहै सो ऊंच।।10।।

कबीर, मांस मछलिया खात हैं, सुरापान से हेत।
ते नर नरकै जाहिंगे, माता पिता समेत।।11।।

गरीब, जीव हिंसा जो करते हैं, या आगे क्या पाप।
कंटक जुनी जिहान में, सिंह भेडि़या और सांप।।

झोटे बकरे मुरगे ताई। लेखा सब ही लेत गुसाईं।।
मग मोर मारे महमंता। अचरा चर हैं जीव अनंता।।

जिह्वा स्वाद हिते प्राना। नीमा नाश गया हम जाना।।
तीतर लवा बुटेरी चिडि़या। खूनी मारे बड़े अगडि़या।।

अदले बदले लेखे लेखा। समझ देख सुन ज्ञान विवेका।।

गरीब, शब्द हमारा मानियो, और सुनते हो नर नारि।
जीव दया बिन कुफर है, चले जमाना हारि।।

अनजाने में हुई हिंसा का पाप नहीं लगता।


बन्दी छोड़ कबीर साहिब कहते हैं:

"इच्छा कर मारै नहीं, बिन इच्छा मर जाए। 
कहैं कबीर तास का, पाप नहीं लगाए।।"

Thursday, December 29, 2016

संन्त दादु जी द्वारा पूर्ण परमेश्वर कबीर साहेब जी कि महीमा

दादू बैठे जहाज पर,  गए समुन्द्रके तीर।
जल मे मछली जो रहे,  कहै कबीर कबीर॥

बहुत जीव अटके रहे,  बिन सतगुरू भाव माही।
दादू नाम कबीर बिन,  छुटे एक नही॥

मेरो कन्त कबीर है,  वर और नहि वरिहौ।
दादू तिन तिलक है,  चित्त और ना धारिहौ॥

पाच तत्व तिन के नाही,  नही इन्द्री गन्देह।
सूक्ष्म रूप कबीर का,  दादु देख बिदेह॥

अधर चाल कबीरकी,  मोसे कही न जाय।
दादू कूदै मिरग ज्यौ,  पर धरनि पर आय॥

हिन्दूको सतगुरु सही, मुसलमानको पीर।
दादू दोनो दिनमे,  अदली नाम कबीर॥

हिन्दू अपनी हद चले, मुसलमान हद माह।
दादू चाल कबीर की,  दोउ दिनमे नाह॥

सत्त लोक जहँ पुरु बिदेही , वह पुरणब्रह्म कबीर करतारा।
आदि जोत और काल निरंजन, इनका कहाँ न पसारा॥

जिन मोकुं निज नाम दिया, सोइ सतगुरु हमार।
दादू दूसरा कोई नहीं, कबीर सृजनहार।।

दादू नाम कबीर की,  जै कोई लेवे ओट।
उनको कबहू लागे नहीं, काल बज्र की चोट।।

दादू नाम कबीर का,  सुनकर कांपे काल।
नाम भरोसे जो नर चले, होवे न बंका बाल।।

जो जो शरण कबीर के,  तरगए अनन्त अपार।
दादू गुण कीता कहे,  कहत न आवै पार।।

कबीर कर्ता आप है,  दूजा नाहिं कोय।
दादू पूरन जगत को, भक्ति दृढ़ावत सोय।।

ठेका पूरन होय जब, सब कोई तजै शरीर।
दादू काल गँजे नहीं,  जपै जो नाम कबीर।।

आदमी की आयु घटै,  तब यम घेरे आय।
सुमिरन किया कबीर का,  दादू लिया बचाय।।

मेटि दिया अपराध सब,  आय मिले छनमाँह।
दादू संग ले चले,  कबीर चरण की छांह।।

सेवक देव निज चरण का, दादू अपना जान।
भृंगी सत्य कबीर ने, कीन्हा आप समान।।

दादू अन्तरगत सदा, छिन-छिन सुमिरन ध्यान।
वारु नाम कबीर पर,  पल-पल मेरा प्रान।।

सुन-2 साखी कबीर की,  काल नवावै भाथ।
धन्य-धन्य हो तिन लोक में,  दादू जोड़े हाथ।।

केहरि नाम कबीर का,  विषम काल गज राज।
दादू भजन प्रतापते,  भागे सुनत आवाज।।

पल एक नाम कबीर का,  दादू मनचित लाय।
हस्ती के अश्वार को,  श्वान काल नहीं खाय।।

सुमरत नाम कबीर का, कटे काल की पीर।
दादू दिन दिन ऊँचे,  परमानन्द सुख सीर।।

दादू नाम कबीर की, जो कोई लेवे ओट।
तिनको कबहुं ना लगई, काल बज्र की चोट।।

और संत सब कूप हैं, केते झरिता नीर।
दादू अगम अपार है, दरिया सत्य कबीर।।

अबही तेरी सब मिटै, जन्म मरन की पीर।
स्वांस उस्वांस सुमिरले, दादू नाम कबीर।।

कोई सर्गुन में रीझ रहा, कोई निर्गुण ठहराय।
दादू गति कबीर की, मोते कही न जाय
सत् साहेब जी

Saturday, October 29, 2016

परमात्मा की अमरवाणी


"युग सत्तर हम ज्ञान दिया, जीव न समझया एक !
गरीबदास घर-घर फिरे, वो धरे कबीरा भेख !!


सत्तर युग सेवन किया, किन्हें ना बूझी बात !
गरीबदास मैं समझावत हूँ, ये मोहें लगावें लात !!

कल्प कोटि युग बितिया, हम आये तिस बेर !
गरीबदास केशव सुनो, देन भक्ति की टेर !!

स्वर्ग मृत्यु पाताल में, हम पैठे कई बार !
गरीबदास घर-घर सजया, मार-मार कहै मार !!

हमरी जात अपूर्वी, पूर्व रेहन हमार !
गरीबदास कैसे जुड़े, इस पश्चिम के तार !!

हम हैं पूर्व ठेठ के, हम उतरे औघट घाट !
गरीबदास जीव दक्षिण के, यूँ न मिलती सांठ !!

जिन हमारी सीख लेई, काटूं जम जंजीर !
गरीबदास केशव सुने, ऐसे कहत कबीर !!

फिर बाज़ी विधना रचे, वे नहीं जीव आवंत !
गरीबदास सतलोक में, अमर पटा पावंत" !!

सत् साहिब जी!




बन्दीछोड़ सदगुरु रामपाल जी महाराज की जय हो!!

Wednesday, June 29, 2016

जो सुख पावो राम भजन में, सो सुख नाही अमीरी में

मन लागो मेरो यार फकीरी में॥

जो सुख पावो राम भजन में, सो सुख नाही अमीरी में ।
भला बुरा सब को सुन लीजै, कर गुजरान गरीबी में ॥
मन लागो मेरो यार फकीरी में ॥

प्रेम नगर में रहिनी हमारी, भलि बलि आई सबूरी में ।
हाथ में कूंडी, बगल में सोटा, चारो दिशा जगीरी में ॥
मन लागो मेरो यार फकीरी में ॥

आखिर यह तन ख़ाक मिलेगा, कहाँ फिरत मगरूरी में ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, साहिब मिलै सबूरी में ॥
मन लागो मेरो यार फकीरी में ॥

- कबीर साहेब

पानी में मीन पियासी, मोहि सुन-सुन आवे हाँसी।

पानी में मीन पियासी, मोहि सुन-सुन आवे हाँसी।

आतम ज्ञान बिना नर भटके, कोई मथुरा कोई काशी।
मिरगा नाभि बसे कस्तूरी, बन बन फिरत उदासी।।
पानी में मीन पियासी, मोहि सुन-सुन आवे हाँसी।।

जल-बिच कमल कमल बिच कलियाँ तां पर भँवर निवासी।
सो मन बस त्रैलोक्य भयो हैं, यति सती सन्यासी।
पानी में मीन पियासी, मोहि सुन-सुन आवे हाँसी।।

है हाजिर तेहि दूर बतावें, दूर की बात निरासी।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, गुरु बिन भरम न जासी।

- कबीर साहेब

जगत् में, कैसा नाता रे।

मन फूला फूला फिरे जगत् में, कैसा नाता रे।

माता कहै यह पुत्र हमारा, बहन कहे बीर मेरा।
भाई कहै यह भुजा हमारी, नारि कहे नर मेरा।।
जगत में कैसा नाता रे ।।

पैर पकरि के माता रोवे, बांह पकरि के भाई।
लपटि झपटि के तिरिया रोवे, हंस अकेला जाई।।
जगत में कैसा नाता रे ।।

चार जणा मिल गजी बनाई, चढ़ा काठ की घोड़ी ।
चार कोने आग लगाया, फूंक दियो जस होरी।।
जगत में कैसा नाता रे ।।

हाड़ जरे जस लाकड़ी, केस जरे जस घासा।
सोना ऐसी काया जरि गई, कोइ न आयो पासा।।
जगत में कैसा नाता रे ।।

घर की तिरया देखण लागी ढूंढत फिर चहुँ देशा
कहे कबीर सुनो भई साधु, एक नाम की आसा।।
जगत में कैसा नाता रे ।।
- कबीर साहेब

kabir saheb's dohe

(51)
समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय ।
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥

(52)
हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय ।
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥

(53)
कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय ।
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥

(54)
वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल ।
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥

(55)
कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय ।
चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥

(56)
कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥

(57)
जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय ।
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥

(58)
साधु ऐसा चहिए ,जैसा सूप सुभाय ।
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥

(59)
लगी लग्न छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय ।
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥

(60)
भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय ।
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥

(61)
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥

(62)
अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार ।
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥

(63)
मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार ।
तुम दाता दु:ख भंजना, मेरी करो सम्हार ॥

(64)
प्रेम न बड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा-प्रजा जोहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥

(65)
प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥

(66)
सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥

(67)
सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल ।
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥

(68)
छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार ।
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥

(69)
ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥

(70)
जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि ।
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥

kabir saheb's dohe

(41)
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय॥

(42)
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि॥

(43)
सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावणहार॥

(44)
गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं ।
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि॥

(45)
शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुरु काय।
भक्ति करै नित शब्द की, सत्गुरु यौं समुझाय॥

(46)

बलिहारी गुर आपणैं, द्यौंहाडी कै बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार।

(47)

कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥

(48)
जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय।
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय॥

(49)
यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान॥

(50)
गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव।
दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव॥

kabir saheb's dohe

(21)
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥
(22)
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥

(23)
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥
(24)
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान । 
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 

(25)
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय । 
एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥
(26)
गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच । 
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥
(27)
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और । 
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥
(28)
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । 
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 

(29)
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय । 
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥ 

(30)
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार । 
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥
(31)
आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर । 
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥
(32)
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर । 
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥

(33)
शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान । 
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥ 

(34)
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब । 
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 

(35)
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । 
हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 

(36)
नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग । 
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥ 

(37)
जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग । 
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 
  
(38)
माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख । 
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 

(39)
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय । 
भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 

(40)
आया था किस काम को, तु सोया चादर तान । 
सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥

Kabir saheb's dohe

(1)
चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥
(2)
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥
(3)
माला फेरत जुग भयाफिरा न मन का फेर । 
कर का मन का डार देमन का मनका फेर ॥
(4)
तिनका कबहुँ ना निंदयेजो पाँव तले होय । 
कबहुँ उड़ आँखो पड़ेपीर घानेरी होय ॥
(5)
गुरु गोविंद दोनों खड़ेकाके लागूं पाँय । 
बलिहारी गुरु आपनोगोविंद दियो मिलाय ॥
(6)
सुख मे सुमिरन ना कियादु:ख में करते याद । 
कह कबीर ता दास कीकौन सुने फरियाद ॥
(7)
साईं इतना दीजियेजा मे कुटुम समाय । 
मैं भी भूखा न रहूँसाधु ना भूखा जाय ॥
(8)
धीरे-धीरे रे मनाधीरे सब कुछ होय । 
माली सींचे सौ घड़ाॠतु आए फल होय ॥
(9)
कबीरा ते नर अँध हैगुरु को कहते और । 
हरि रूठे गुरु ठौर हैगुरु रूठे नहीं ठौर ॥
(10)
माया मरी न मन मरामर-मर गए शरीर । 
आशा तृष्णा न मरीकह गए दास कबीर ॥
(11)
रात गंवाई सोय केदिवस गंवाया खाय । 
हीरा जन्म अमोल थाकोड़ी बदले जाय ॥
(12)
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
(13)
बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥
(14)
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥

तिनका कबहुँ ना निंदियेजो पाँव तले होय । 
कबहुँ उड़ आँखो पड़ेपीर घानेरी होय ॥ 
(16)
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥
(17)
उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥
(18)
सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥
(19)
साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥
(20)
माला फेरत जुग भयाफिरा न मन का फेर । 
कर का मन का डार देंमन का मनका फेर ॥

कियु भूली घर आपणा , ये नी देश तुम्हार |

कियु भूली घर आपणा , ये नी देश तुम्हार |
फिर पीछे पछताओगी , करलो सोच विचार ||
बिन सतगुरु पावें नही , घर अपने की राह |
सतगुरु शरणा ले के , सुरति शब्द समा ||
कई असंख्यों कोश हे , तेरे पीया का देश |
एक पलक में पाइयो , ले सतगुरु उपदेश ||
सुन्न सलौनी गैल है , गगन मंडल के मांहि |
बिना प्रेम पावे नही , चाहे कोटि समाधी लाह ||
नित्यानंद लोह लाइके , चढ़ो महल मंझार |
फिर न भवजल आईयो , ये सपना संसार ||

Sunday, June 26, 2016

कबीर भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव । परमारथ के कराने , यह तन रहो कि जाव ।।

कबीर भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव ।
परमारथ के कराने , यह तन रहो कि जाव ।।

भक्तो की यह रीति है वे अपने मन एवम इन्द्रिय को पूर्णतया अपने वश में करके सच्चे मन से गुरु की सेवा करते है । लोगो के उपकार हेतु ऐसे सज्जन प्राणी अपने शरीर की परवाह नहीं करते । शरीर रहे अथवा मिट जाये परन्तु अपने सज्जनता रूपी कर्तव्य से विमुख नहीं होते ।

कबीर भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव । परमारथ के कराने , यह तन रहो कि जाव ।।

कबीर भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव ।
परमारथ के कराने , यह तन रहो कि जाव ।।

भक्तो की यह रीति है वे अपने मन एवम इन्द्रिय को पूर्णतया अपने वश में करके सच्चे मन से गुरु की सेवा करते है । लोगो के उपकार हेतु ऐसे सज्जन प्राणी अपने शरीर की परवाह नहीं करते । शरीर रहे अथवा मिट जाये परन्तु अपने सज्जनता रूपी कर्तव्य से विमुख नहीं होते ।

Saturday, May 21, 2016

कबीर: इष्ट मिलै और मन मिलै मिलै सकल रस रीती

कबीर: इष्ट मिलै और मन मिलै मिलै सकल रस रीती कहै कबीर तहा जाइये, रह सन्तन कि प्रीती।

कबीर: एसि वाणी बोलीय, मनका आपा खोय।।
ओरन को शीतल करै , आपुही शीतल होये।

कबीर:आवत गारी एक है , उलट्ट होय अनेक।
कहै कबीर नहि उलटिय रहै एक की एक।

कबीर: गाली हि से उपजै कलह कस्त और मीच।
हार चलै सो साधु है , लागी मरे सो नीच।

सत साहेब बन्दिछोद सत्गुरुरामपालजी माहाराजकी जय हो।

Sunday, May 8, 2016

कबीर, वेद मेरा भेद है, मै ना वेदन के माहि| जौन वेद से मै मिलु , वो वेद जानते नाही||

कबीर, वेद(सामवेद, यजुर्वेद, अथवर्वेद, ऋग्वेद)
कतेब ( कुर्आन शरीफ, जबूर,तौरात,इंजिल) झूठे नहीं भाई, झूठे है जो समझे नाहिं||

कबीर, वेद मेरा भेद है, मै ना वेदन के माहि|
जौन वेद से मै मिलु , वो वेद जानते नाही||

पुर्ण परमात्मा कबीर परमेश्र्वर जी है ,जो काशी बनारस मेँ जुलाहे की भूमिका करके गये थे। सभी सदग्रंन्थोँ मेँ यही प्रमाण हैँ की वो पुर्णपरमात्मा कबीर परमेश्वर है , सशरीर है मानव सदृश है सतलोक मेँ रहता है|

"सतयुग में सतसुकृत कह टेरा ,त्रेता नाम मुनीन्द्र मेरा|
द्वापर करूणामय कहाया,कलयुग नाम कबीर धराया||

मात पिता मेरे नहीं,बालक रूप प्रकटाया|
लहरतारा तालाब कमल पर तहाँ जुलाहे ने पाया ||

हाड़ चाम लोहू नही मोरे ,जाने सत्यनाम उपासी |
तारण तरन अभै पद दाता , मै हूँ कबीर अविनासी ||

पाँच तत्व का धड़ नही मेरा, जानूँ ज्ञान अपारा |
सत्य स्वरूपी नाम साहेब का, सो है नाम हमारा ||

आया जगत भवसागर तारण, साचि कहूँ जग लागै मारन |
जो कोई माने कहा हमारा, फिर नही होवे जन्म दुबारा||"

>> वेदोँ मेँ प्रमाण देखेँ
www.jagatgururampalji.org/hvedas.php

>> बाईबल मेँ प्रमाण देँखे
www.jagatgururampalji.org/hbible.php

>> पुराणोँ मेँ प्रमाण देँखे
www.jagatgururampalji.org/hpurans.php

>> गीता जी मेँ प्रमाण देखेँ
www.jagatgururampalji.org/hgita.php

>> कुरान शारिफ मेँ प्रमाण देखे
www.jagatgururampalji.org/hquran.php

>> श्री गुरु ग्रँथ साहिब मेँ प्रमाण देँखे
www.jagatgururampalji.org/hshrigurugranthsahib.php

>>कबीर सागर मेँ प्रमाण देखेँ
www.kabirsahib.jagatgururampalji.org/

Wednesday, April 27, 2016

`कबीर' निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध। सीस उतारि पग तलि धरै, तब निकट प्रेम का स्वाद॥

`कबीर' निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध। 
सीस उतारि पग तलि धरै, तब निकट प्रेम का स्वाद॥

भावार्थ - कबीर कहते हैं -अपना खुद का घर तो इस जीवात्मा का प्रेम ही है। मगर वहाँ तक पहुँचने का रास्ता बड़ा विकट है, और लम्बा इतना कि उसका कहीं छोर ही नहीं मिल रहा। प्रेम रस का स्वाद तभी सुगम हो सकता है, जब कि अपने सिर को उतारकर उसे पैरों के नीचे रख दिया जाय।

प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न हाटि बिकाइ।
राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ॥

भावार्थ - अरे भाई ! प्रेम खेतों में नहीं उपजता, और न हाट-बाजार में बिका करता है यह महँगा है और सस्ता भी यों कि राजा हो या प्रजा, कोई भी उसे सिर देकर खरीद ले जा सकता है। 

`कबीर' घोड़ा प्रेम का, चेतनि चढ़ि असवार।
ग्यान खड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार॥

भावार्थ - कबीर कहते हैं - क्या ही मार-धाड़ मचा दी है इस चेतन शूरवीर ने।सवार हो गया है प्रेम के घोड़े
पर। तलवार ज्ञान की ले ली है, और काल-जैसे शत्रु के सिर पर वह चोट- पर-चोट कर रहा है।

Bhakti kaise hoti he

`कबीर' भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आइ ।
सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई ॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - कलाल की भट्ठी पर बहुत सारे आकर बैठ गये हैं, पर इस मदिरा को एक वही पी सकेगा, जो अपना सिर कलाल को खुशी-खुशी सौंप देगा, नहीं तो पीना हो नहीं सकेगा । [कलाल है सद्गुरु, मदिरा है प्रभु का प्रेम-रस और सिर है अहंकार ।]

मान बडाई(अहंकारी) जमपुर जाई  होई रहो दासन दासा
साधु(भगत) बनना सहज है, दुर्लभ बनना दास|
दास तब जानिये, जब हाडा पर रहै ना मॉस||
अभिमान तज गुरु वचन पे हो अटल विरला सुर है|
हँस बने सतलोक जावे मुक्ति ना फ़िर दूर है||

मन मगन बऐ का सुन रासा...२
ऐ इन्दरी पृकति पर रे डाल चलो त्रिगुण पासा,
सपम सपा हो मिल नुर मे काम कृोध का कर नासा,
यो तन काख मिलेगा भाई कै पेर मल-मल खासा,
पिण्ड बृह्मड कुछ थिर नही रे गगन मण्डल मे कर बासा,
चिन्ता चेरी दुर पर रे री काट चलो जम का फॉसा,
मान बडाई जम पुर जाई होय रहो दासन दासा,
गरीबदास पद अरस अनाहद सतनाम जप स्वासा,.....
मन मगन बऐ सुन रासा....२

लागी का मार्ग ओर है, लाग चोट कलेजा करके....
जय बंदीछोड की