।। नम्रता के बिना भक्ति व्यर्थ।।
तमोगुण शिव जी के उपासक रावण के विषय में एक तथ्य -----
गीता अध्याय 18 के श्लोक 17 का भावार्थ है कि -
गरीब, मैं मैं करै सो मारिये, तू तुं करै सो छूट वे।
इस मार में होशियार, गधा बने कै ऊँट वे।।
हूं हूं करै सो गधा होई, मैं मैं करै बोक वे।
बंदा बिसारे बंदगी, तो श्वान है सब लोक वे।।
रावण ने भक्ति के साथ-2 अभिमान भी किया जिसके परिणाम स्वरूप जिस लंका को वह चाहता था उसको भी नहीं रख सका तथा सपरिवार नष्ट हुआ। जबकि रावण का ही सोदर (सगा) भाई विभिषण जो पूर्ण परमात्मा सतपुरुष की भक्ति सतगुरु मुनिन्द्र साहिब से नाम उपदेश ले कर करता था और अपने गुरुदेव मुनिन्द्र (यही कबीर साहेब त्रेतायुग में मुनिन्द्र नाम से आए थे) जी के
आदेशानुसार आधीनी भाव से (अहंकार रहित) परमेश्वर की साधना किया करता था। उसको भगवान रामचन्द्र जी ने लंका का राजा भी बना दिया। यह आधीनी भाव पूर्ण परमात्मा (सतपुरुष) की विधिवत (मतानुसार) साधना का परिणाम हुआ। इसलिए इस श्लोक में यही प्रमाणित करना चाहा है कि जो लोग अभिमानी होते हैं उनका ईश्वर साथ नहीं देता और जो आधीन (विनम्र) होते हैं तथा शास्त्रानुकूल साधना करते हैं उनको परमात्मा यहाँ की सर्व सुविधाओं के साथ-साथ पूर्ण मुक्ति भी देता है।
दासभाव बिन लंका खोई, राज रसातल कुलह बिगोई।।
दास भाव बिन हार्या जन्मा, आशा तृष्णा रहि गई धनमां।।
सर्व सोने की लंका लोई, दास भाव बिन सर्वस खोई।।
गरीब, दास भाव बिन बहु गये, रावणसे रणधीर।
लंक बिलंका लुटि गई, जम कै परै जंजीर।।
दासातन हंसा कूं खेऊं, राज पाट बैकुण्ठा देऊं।
दास दर्श परमानंद होई, बिन दासातन मिलै न कोई।।
दासातन कीन्हा भगवाना, भृगुलता का उर में ध्याना।
विभीषण का भाग्य बडेरा, दासातन आय तिस नेरा।।
दासातन आया बिसवे बीसा, जाकौं लंक दई बक्षीसा।
ऐसा दासातन है भाई, लंक बकसतैं वार न लाई।।
** सत साहेब **
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