Monday, December 28, 2015

असँख्य जन्म तोहे मरते होगे जीवित क्योँ ना मरे रे, द्वादश दर मद महल मठ बोरे फिर बहुर ना देह धरे रे !!

असँख्य जन्म तोहे मरते होगे जीवित क्योँ ना मरे रे, द्वादश दर मद महल मठ बोरे फिर बहुर ना देह धरे रे !!
कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा ससभ होय ।
माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय ॥५१६॥
कबीर गुरु की भक्ति बिन, नारी कूकरी होय ।
गली-गली भूँकत फिरै, टूक न डारै कोय ॥५१७॥
जो कामिनि परदै रहे, सुनै न गुरुगुण बात ।
सो तो होगी कूकरी, फिरै उघारे गात ॥५१८॥
चौंसठ दीवा जोय के, चौदह चन्दा माहिं ।
तेहि घर किसका चाँदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं ॥५१९॥
हरिया जाने रूखाड़ा, उस पानी का नेह ।
सूखा काठ न जानिहै, कितहूँ बूड़ा गेह ॥५२०॥
झिरमिर झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेह ।
माटी गलि पानी भई, पाहन वाही नेह ॥५२१॥
कबीर ह्रदय कठोर के, शब्द न लागे सार ।
सुधि-सुधि के हिरदे विधे, उपजै ज्ञान विचार ॥५२२॥
कबीर चन्दर के भिरै, नीम भी चन्दन होय ।
बूड़यो बाँस बड़ाइया, यों जनि बूड़ो कोय ॥५२३॥
पशुआ सों पालो परो, रहू-रहू हिया न खीज ।
ऊसर बीज न उगसी, बोवै दूना बीज ॥५२४॥
कंचन मेरू अरपही, अरपैं कनक भण्डार ।
कहैं कबीर गुरु बेमुखी, कबहूँ न पावै पार ॥५२५॥
साकट का मुख बिम्ब है निकसत बचन भुवंग ।
ताकि औषण मौन है, विष नहिं व्यापै अंग ॥५२६॥
शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार ।
बिनु गुरु निगुरा जो रहे, पड़े चौरासी धार ॥५२७॥
कबीर लहरि समुन्द्र की, मोती बिखरे आय ।
बगुला परख न जानई, हंस चुनि-चुनि खाय ॥५२८॥
साकट कहा न कहि चलै, सुनहा कहा न खाय ।
जो कौवा मठ हगि भरै, तो मठ को कहा नशाय ॥५२९॥
साकट मन का जेवरा, भजै सो करराय ।
दो अच्छर गुरु बहिरा, बाधा जमपुर जाय ॥५३०॥
कबीर साकट की सभा, तू मति बैठे जाय ।
एक गुवाड़े कदि बड़ै, रोज गदहरा गाय ॥५३१॥
संगत सोई बिगुर्चई, जो है साकट साथ ।
कंचन कटोरा छाड़ि के, सनहक लीन्ही हाथ ॥५३२॥
साकट संग न बैठिये करन कुबेर समान ।
ताके संग न चलिये, पड़ि हैं नरक निदान ॥५३३॥
टेक न कीजै बावरे, टेक माहि है हानि ।
टेक छाड़ि मानिक मिलै, सत गुरु वचन प्रमानि ॥५३४॥
साकट सूकर कीकरा, तीनों की गति एक है ।
कोटि जतन परमोघिये, तऊ न छाड़े टेक ॥५३५॥
निगुरा ब्राह्म्ण नहिं भला, गुरुमुख भला चमार ।
देवतन से कुत्ता भला, नित उठि भूँके द्वार ॥५३६॥
हरिजन आवत देखिके, मोहड़ो सूखि गयो ।
भाव भक्ति समझयो नहीं, मूरख चूकि गयो ॥५३७॥
खसम कहावै बैरनव, घर में साकट जोय ।
एक धरा में दो मता, भक्ति कहाँ ते होय ॥५३८॥
घर में साकट स्त्री, आप कहावे दास ।
वो तो होगी शूकरी, वो रखवाला पास ॥५३९॥
आँखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल ।
साघु सो झगड़ा भला, ना साकट सों मेल ॥५४०॥
कबीर दर्शन साधु का, बड़े भाग दरशाय ।
जो होवै सूली सजा, काँटे ई टरि जाय ॥५४१॥
कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय ।
अंक भरे भारि भेटिये, पाप शरीर जाय ॥५४२॥
कबीर दर्शन साधु के, करत न कीजै कानि ।
ज्यों उद्य्म से लक्ष्मी, आलस मन से हानि ॥५४३॥
कई बार नाहिं कर सके, दोय बखत करिलेय ।
कबीर साधु दरश ते, काल दगा नहिं देय ॥५४४॥
दूजे दिन नहिं करि सके, तीजे दिन करू जाय ।
कबीर साधु दरश ते मोक्ष मुक्ति फन पाय ॥५४५॥
तीजे चौथे नहिं करे, बार-बार करू जाय ।
यामें विलंब न कीजिये, कहैं कबीर समुझाय ॥५४६॥
दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करूँ इक बार ।
कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार ॥५४७॥
बार-बार नहिं करि सके, पाख-पाख करिलेय ।
कहैं कबीरन सो भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय ॥५४८॥
पाख-पाख नहिं करि सकै, मास मास करू जाय ।
यामें देर न लाइये, कहैं कबीर समुदाय ॥५४९॥
बरस-बरस नाहिं करि सकै ताको लागे दोष ।
कहै कबीर वा जीव सो, कबहु न पावै योष ॥५५०
गरीब, पूर्ण ब्रह्म कृपा निधान,सुन केशव करतार ।
गरीबदास मुझ दीन की ,
रखियो बहुत संभार ।।

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