Tuesday, February 23, 2016

गीता gita gyan

गीता
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सत साहेब
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गीता अ. 15 का श्लौक 1 से 4 व 16 व 17 मे तीन पुरुषो के बारे मे बताया है
16काआशय इस संसार में दो तरह के भगवान है नाशवान और अविनाशी और समपूर्ण भूत पाराणियो के शरीर तो नाशवान और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है
17उतम पुरुष तो इन दोनों से अन्य है जो तीनों लोको में सबका धारण पोषण करता है एवं अविनाशी परमेशवर कहा जाता है
अ. न.7का15शलोक=?
अर्थ =माया के द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है ऐसे आसुर स्वभाव को धारण किये हुए मनुष्यो मेनीच दूषित कर्म करने वाले मूरख मुजको नहीं भजते अथात तीनों गुणों की ही साधना करते है
गीताअ. न. 16का23 शलोक
अर्थ =जो पुरुष शास्त्र विधि को तयागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है वह न सिधि को परापत होता है न परम गति को ओर न ही सुख को ही
गीता अ. न. 6का16शलोक
अर्थ =है अर्जुन !यह योग न तो बहुत खाने वाले का और न ही बिल्कुल ना खाने वाले का न एकांत अस्थान पर आसन लगातार साधना करने वाले का तथा न बहुत शयन करने वाले का न ही सदा जागने वाले का सिध होता है
गीता अ. न. 9का25शलोक
अर्थ =देवताऒ को पुजने वाले देवताओ को, पितरो को पुजने वाले पितरो को, भुतो को पुजने वाले भुतो को,ओर मुझे पुजने वाले भक्त मुझको ही प्रापत होते हैं
गीता अ. न. 18का46शलोक
अर्थ =जिस परमेशवर से समपुरण पराणियो की उत्पत्ति हुई है ओर जिससे समशथ जगत वयापत है उस परमेश्वर की अपने स्वभाविक करमो द्वारा पुजा करके मनुष्य परम सिद्धी को प्राप्त हो जाता है
गीता अ. न. 18का62शलोक
अर्थ =है अर्जुन  ! तु सर्व भाव से उस परमेश्वर की शरण में चला जा उसकी करपा से तु परम शांति को और अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जायेगा
गीता अ. न. 8का22शलोक
अर्थ =है अर्जुन  ! समपुरण प्राणी जिसके अनतर गत है और जिससे यह समुचित संसार व्यापत है, वह परम पुरुष परमात्मा तो अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य हैं
अनन्य भक्ति का अर्थ =एक परमात्मा की भक्ति करना दुसरे देवी देवताओ बरमहा विश्वणु शिव की नही
गीता अ. न. 7का24शलोक
अनुतम --अशयषठ
अर्थ =बुद्धिहीन लोग मेरे असेषठ अटल परम भाव को न जानते हुए अदरशयमान मुझ काल को आकार में करषन अवतार प्राप्त हुआ मानते है में कषण नही हुॅ
गीता अ. न. 7का25शलोक
अर्थ =में योगमाया से छिपा हुआ सबके सामने नही होता अऱथात अवयकत रहता हूँ एसलिये जन्म न लेने वाले अविनाशी अटल भाव को यह अगयानी संसार मुझे नही जानता अर्थात मुझको अवतार रुप में आया समझता है क्याेकि काल अपनी शब्द शक्ति से अपने नाना रुप बना लेता है यह दुर्गा का पति है एसलिए कह रहा है कि में कर्षण की तरह जन्म नही लेता 
गीता अ. न. 11का47,48शलोक
अनुवाद =यह मेरा वास्तविक काल रुप है, एसके दर्शन अर्थात बहम प्राप्ति न वेदो में वणित विधि से, न जप से, न तप से, तथा न किसी क्रिया से हो सकती हैं
गीता अ. न. 15का17शलोक
अनुवाद =पूर्ण बरम का शरीर का नाम कबीर देव हैं, उस परमेश्वर का शरीर नूर ततव से बना है, परमात्मा का शरीर अति सुकसम है जो उस साधक को दिखाई देता है जिसकी दिव्य दिष्टि खुल चुकी है
गीता अ. न. 11का32शलोक
अनुवाद =गीता जी बोलने वाला बरम (काल) श्री कृष्ण के शरीर में प्रेतवत प्रवेश करके कह रहा है कि अर्जुन में बढा हुआ काल हु ओर सबको खाने के लिए आया हूँ
यह मेरा वास्तविक रुप है इसको तेरे अतिरिक्त न तो कोई पहले देख सका और न आगे कोई देख सकेगा
गीता अ. न. 11का48शलोक
अनुवाद =में किषन नहीं हु ये मुर्ख लोग किषन रूप में मुझ अवयकत को वयकत(मनुषय रूप)मान रहे है क्याेकि ये मेरे घटिया नियम से अपरिचय है कि में कभी अपने वास्तविक रूप में किसी के सामने नहीं आता अपनी योगमाया से छूपा रहता हूँ
गीता अ. 8का13शलोक
अनुवाद =एसका अर्थ है कि गीता बोलने वाला बरम कह रहा है कि मुझ बरम(काल)का तो यह ओम (ऊ ) एक अश्रर है एसका उच्चारण करके जो शरीर तयागने तक अंतिम सवास तक स्मरण साधना करता है वह मेरे वाली परमगति को प्रापत होता हैं
गीता अ. न. 4का34शलोक
अनुवाद =फिर वह आपको (ततवदरशी संत)  सर्व प्रभुओ की स्थिति सही बतायगा, उसके पशचात उस परमपद परमेश्वर की खोज करनी चाहिए जिसमें गए साधक का फिर जन्म मरतयु नहीं होता अर्थात पुर्ण मोक्ष हो जाता है
गीता अ. न. 17का23शलोक
अनुवाद =कहा है कि पुर्ण परमात्मा की भक्ति करने का केवल तीन मँतर ऊ तत् सत के जाप का निर्देश है (ऊ बरम का, तत् परबरम का, सत पूऱण बरम का जाप है )उस पुर्ण परमात्मा के तत्व गयान को तत्वदर्शी संत जानता है उसे परापत कर में नहीं जानता
गीता अ. न. 8का6शलोक
अनुवाद =जो साधक अननय मन से परमेश्वर के नाम का जाप करता है वह सदा उसी को स्मरण करने वाला उस परम दिव्य अर्थात पुर्ण परमात्मा को ही प्रापत होता है
गीता अ. न. 18का66शलोक
अनुवाद =मेरी समपुरण पुजाओ को तयागकर तू के वल उस एक पुरण परमात्मा की शरण में जा में तुझे
सब पापो से छुडवा दुगा तू शोक मत कर
गीता अ. न. 18का64शलोक
अनुवाद =समपुरण गोपनियो से अति गोपनिय मेरे परम रहस्य युक्त हितकारक वचन तुझे कहुगा एसे सुन यह पुर्ण बरम मेरा पक्का निश्चित पुजयदेव है
गीता अ. न. 14का3-5शलोक
अनुवाद =गीता बोलने वाला काल सरी किशन के शरीर में प्रेतवत प्रवेश करके कहा कि प्रकरति( दुर्गा )मेरी पत्नी है में बरम एसकी योनी में बीज स्थापित करता हूँ जिससे सर्व प्राणियो की उत्पत्ति होती है
मैं सर्व का पिता तथा दुर्गा सबकी माँ है दुर्गा से उतपन तीनों गुण (रजगुण बरमा, सतगुण विश्वणु, तमगुण शिवजी)जीवातमा को करमा धार से शरीरों मैं बाधते है अर्थात ये तीनों ही सर्व प्राणियो को संस्कारके आधार से उत्पत्ति, स्थिति, संहार करके फसा कर रखते है
गीता अ. न. 4का34शलोक
अनुवाद =उसको समझ उन पुर्ण परमात्मा के गयान व समाधान को जानने वाले संतो को भलीभाति दंडवत प्रणाम करने से उनकी सेवा करने से कपट छोडकर सरलता पुरवक प्रशन करने से वे परमात्मा तत्व को जानने वाले गयानी महात्मा तुझे उस तत्व गयान का उपदेश करेंगे
गीता अ. न. 15का1-4शलोक
अनुवाद =यह संसार उल्टा लटका हुआ पोधा है जो संत इसको विस्तार से समझा देगा की जड़ कोन है ,तना कोन है ढाली कोन है ,शाखा कोन है, पते कोन है इसको खोल कर के जो पुरी तरह से बता देगा वह तत्व दर्शी संत है
फिर कहा है कि तत्व दर्शी संत मिलने के बाद उस परम पद की खोज करनी चाहिए जहां जाने के पशचात मनुष्य इस संसार में लोटकर नही आता अर्थात सतलोक व अमरलोक को प्राप्त होता है अर्थात पुर्ण मोक्ष प्रापत करता है
गीता अ. न. 9का20-21शलोक
अनुवाद =जो मनोकामना सिद्धि के लिए मेरी पुजा तीनों वेदो में वर्णित साधना शास्त्र अनुकुल करते है वे अपने करमो के आधार पर महा सवर्ग में आनंद मना कर फिर जन्म मरण में आ जाते है और फिर चोरासी लाख जूनिया है
जब तक तीनों मंत्र (ऊ, तत् सत )पुर्ण संत से नहीं मिलते मुक्ति नहीं होती
गीता अ. न. 8का6शलोक
अनुवाद =कहा है कि यह विधान है कि अंत समय में साधक जिस भी प्रभु का नाम जाप करता हुआ शरीर तयाग कर जाता है उसी को ही प्रापत  होता है
गीता अ. न. 8का7शलोक
अनुवाद =कहा है कि सब समय में मेरा हीं स्मरण कर तथा युद्ध भी कर निःसंदेह मुझ को ही प्रापत होगा
गीता अ. न. 8 का 8शलोक
अनुवाद =जो साधक अननय मन से परमेश्वर के नाम का जाप करता है वह सदा उसी को स्मरण करने वाला (परम दिव्य पुरूष याति)उसपरम दिव्य पुरुष अर्थात परमेश्वर (पुर्ण बरम)को प्रापत होता है
गीता अ. न. 8का16शलोक
अनुवाद =कहा है कि बरमलोक (महा सवर्ग )तक सर्व लोक नाशवान है ! जब सवर्ग महा सवर्ग ही नही रहेंगे तब साधक कहा ठिकाना होगा
गीता अ. न. 10का2शलोक
अनुवाद =कहा है कि अर्जुन मेरी उत्पत्ति (जन्म )को न तो देवता जानते हैं न हीं महर्षि जन जानते है क्याेकि यह सब मेरे से पैदा हुए हैं इससे सिद्ध है कि बरम कि उत्पत्ति तो हुई हैं
गीता अ. न. 15का16शलोक
अनुवाद =गीता गयान दाता बरम कह रहा है कि है अर्जुन  ! तेरे और मेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं तु नहीं जानता में जानता हूँ
    सत साहेब
जय हो बन्दी छोड़ सद्गुरू रामपाल जी महाराज कि जय
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अवधु अविगत से चल आया, कोई मेरा भेद मर्म नहीं पाया।।टेक।।
ना मेरा जन्म न गर्भ बसेरा, बालक ह्नै दिखलाया।
काशी नगर जल कमल पर डेरा, तहाँ जुलाहे ने पाया।।
माता- पिता मेरे कछु नहीं, ना मेरे घर दासी।
जुलहा को सुत आन कहाया, जगत करे मेरी हांसी।।
पांच तत्व का धड़ नहीं मेरा, जानूं ज्ञान अपारा।
सत्य स्वरूपी नाम साहिब का, सो है नाम हमारा।।
अधर दीप (सतलोक) गगन गुफा में, तहां निज वस्तु सारा।
ज्योति स्वरूपी अलख निरंजन (ब्रह्म) भी, धरता ध्यान हमारा।।
हाड चाम लोहू नहीं मोरे, जाने सत्यनाम उपासी।
तारन तरन अभै पद दाता, मैं हूं कबीर अविनासी।।

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