शरीर ज्ञान परिचय**------------
हे धर्मदास ! अब शरीर के बारे में जानो । 5 तत्व से बना ये कुम्भ ( घङा या घट रूपी ) रूपी शरीर है । तथा शरीर में 7 धातुयें - रक्त । माँस । मेद । मज्जा । रस । शुक्र । और अस्थि हैं । इनमें रस बना खून सारे शरीर में दौङता हुआ शरीर का पोषण करता है । जैसे प्रथ्वी पर असंख्य पेङ पौधे हैं । वैसे ही प्रथ्वी रूपी इस शरीर पर करोंङो रोम ( रोंये ) होते है । इस शरीर की संरचना में 72 कोठे हैं । जहाँ 72000 नाङियों की गाँठ बँधी हुयी है । इस तरह शरीर में धमनी और शिरा प्रधान नाङियाँ हैं । 72 नाङियों में 9 पुहुखा । गंधारी । कुहू । वारणी । गणेशनी । पयस्विनी । हस्तिनी । अलंवुषा । शंखिनी हैं । इन 9 में भी इङा । पिंगला । सुषमना ये 3 प्रधान हैं । इन तीन नाङियों में भी सुषमना खास है । इस नाङी के द्वारा ही योगी सत्य यात्रा करते हैं ।
नीचे मूलाधार चक्र से लेकर ऊपर बृह्मरंध्र तक जितने भी कमल दल चक्र आते हैं । उनसे शब्द उठता है । और उनका गुण प्रकट करता है । तब वहाँ से फ़िर उठकर वह शब्द शून्य 0 में समा जाता है । आँत का 21 हाथ होने का प्रमाण है । और आमाशय सवा हाथ अनुमान है । नभ क्षेत्र का सवा हाथ प्रमाण है । और इसमें सात खिङकी - दो कान । दो आँख । दो नाक छिद । एक मुँह है ।
इस तरह इस शरीर में स्थित प्राण वायु के रहस्य को जो योगी जान लेता है । और निरंतर ये योग करता है । परन्तु सदगुरु की भक्ति के बिना वह भी लख 84 में ही जाता है ।
हर तरह से ज्ञान योग कर्म योग से श्रेष्ठ है । अतः इन विभिन्न योगों के चक्कर में न पङकर नाम की सहज भक्ति से अपना उद्धार करे । और शरीर में रहने वाले अत्यन्त बलबान शत्रु काम । क्रोध । मद । लोभ आदि को ज्ञान द्वारा नष्ट करके जीवन मुक्त होकर रहे ।
हे धर्मदास ! ये सब कर्मकांड मन के व्यवहार हैं । अतः तुम सदगुरु के मत से ज्ञान को समझो । काल निरंजन या मन शून्य 0 में ज्योति दिखाता है । जिसे देखकर जीव उसे ही ईश्वर मानकर धोखे में पङ जाता है । इस प्रकार ये मन रूपी काल निरंजन अनेक प्रकार के भृम उत्पन्न करता है ।
हे धर्मदास ! योग साधना में मस्तक में प्राण रोकने से जो ज्योति उत्पन्न होती है । वह आकार रहित निराकार मन ही है । मन में ही जीवों को भरमाने उन्हें पाप कर्मों में विषयों में प्रवृत करने की शक्ति है । उसी शक्ति से वह सब जीवों को कुचलता है । उसकी यह शक्ति तीनों लोक में फ़ैली हुयी है । इस तरह मन द्वारा भृमित यह मनुष्य खुद को पहचान कर असंख्य जन्मों से धोखा खा रहा है । और ये भी नहीं सोच पाता कि काल निरंजन के कपट से जिन तुच्छ देवी देवताओं के आगे वह सिर झुकाता है । वे सब उसके ( आत्मा - मनुष्य ) के ही आश्रित हैं । हे धर्मदास ! यह सव निरंजन का जाल है । जो मनुष्य देवी देवताओं को पूजता हुआ कल्याण की आशा करता है । परन्तु सत्यनाम के बिना यह यम की फ़ाँस कभी नहीं कटेगी
हे धर्मदास ! अब शरीर के बारे में जानो । 5 तत्व से बना ये कुम्भ ( घङा या घट रूपी ) रूपी शरीर है । तथा शरीर में 7 धातुयें - रक्त । माँस । मेद । मज्जा । रस । शुक्र । और अस्थि हैं । इनमें रस बना खून सारे शरीर में दौङता हुआ शरीर का पोषण करता है । जैसे प्रथ्वी पर असंख्य पेङ पौधे हैं । वैसे ही प्रथ्वी रूपी इस शरीर पर करोंङो रोम ( रोंये ) होते है । इस शरीर की संरचना में 72 कोठे हैं । जहाँ 72000 नाङियों की गाँठ बँधी हुयी है । इस तरह शरीर में धमनी और शिरा प्रधान नाङियाँ हैं । 72 नाङियों में 9 पुहुखा । गंधारी । कुहू । वारणी । गणेशनी । पयस्विनी । हस्तिनी । अलंवुषा । शंखिनी हैं । इन 9 में भी इङा । पिंगला । सुषमना ये 3 प्रधान हैं । इन तीन नाङियों में भी सुषमना खास है । इस नाङी के द्वारा ही योगी सत्य यात्रा करते हैं ।
नीचे मूलाधार चक्र से लेकर ऊपर बृह्मरंध्र तक जितने भी कमल दल चक्र आते हैं । उनसे शब्द उठता है । और उनका गुण प्रकट करता है । तब वहाँ से फ़िर उठकर वह शब्द शून्य 0 में समा जाता है । आँत का 21 हाथ होने का प्रमाण है । और आमाशय सवा हाथ अनुमान है । नभ क्षेत्र का सवा हाथ प्रमाण है । और इसमें सात खिङकी - दो कान । दो आँख । दो नाक छिद । एक मुँह है ।
इस तरह इस शरीर में स्थित प्राण वायु के रहस्य को जो योगी जान लेता है । और निरंतर ये योग करता है । परन्तु सदगुरु की भक्ति के बिना वह भी लख 84 में ही जाता है ।
हर तरह से ज्ञान योग कर्म योग से श्रेष्ठ है । अतः इन विभिन्न योगों के चक्कर में न पङकर नाम की सहज भक्ति से अपना उद्धार करे । और शरीर में रहने वाले अत्यन्त बलबान शत्रु काम । क्रोध । मद । लोभ आदि को ज्ञान द्वारा नष्ट करके जीवन मुक्त होकर रहे ।
हे धर्मदास ! ये सब कर्मकांड मन के व्यवहार हैं । अतः तुम सदगुरु के मत से ज्ञान को समझो । काल निरंजन या मन शून्य 0 में ज्योति दिखाता है । जिसे देखकर जीव उसे ही ईश्वर मानकर धोखे में पङ जाता है । इस प्रकार ये मन रूपी काल निरंजन अनेक प्रकार के भृम उत्पन्न करता है ।
हे धर्मदास ! योग साधना में मस्तक में प्राण रोकने से जो ज्योति उत्पन्न होती है । वह आकार रहित निराकार मन ही है । मन में ही जीवों को भरमाने उन्हें पाप कर्मों में विषयों में प्रवृत करने की शक्ति है । उसी शक्ति से वह सब जीवों को कुचलता है । उसकी यह शक्ति तीनों लोक में फ़ैली हुयी है । इस तरह मन द्वारा भृमित यह मनुष्य खुद को पहचान कर असंख्य जन्मों से धोखा खा रहा है । और ये भी नहीं सोच पाता कि काल निरंजन के कपट से जिन तुच्छ देवी देवताओं के आगे वह सिर झुकाता है । वे सब उसके ( आत्मा - मनुष्य ) के ही आश्रित हैं । हे धर्मदास ! यह सव निरंजन का जाल है । जो मनुष्य देवी देवताओं को पूजता हुआ कल्याण की आशा करता है । परन्तु सत्यनाम के बिना यह यम की फ़ाँस कभी नहीं कटेगी
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