अध्याय 15 का श्लोक 4
ततः, पदम्, तत्, परिमार्गितव्यम्, यस्मिन्, गताः, न, निवर्तन्ति, भूयः,
तम्, एव्, च, आद्यम्, पुरुषम्, प्रपद्ये, यतः, प्रवृत्तिः, प्रसृता, पुराणी।।4।।
अनुवाद: {जब गीता अध्याय 4 श्लोक 34 अध्याय 15 श्लोक 1 में वर्णित तत्वदर्शी संत मिल जाए} (ततः) इसके पश्चात् (तत्) उस परमेश्वर के (पदम्) परम पद अर्थात् सतलोक को (परिमार्गितव्यम्) भलीभाँति खोजना चाहिए (यस्मिन्) जिसमें (गताः) गये हुए साधक (भूयः) फिर (न, निवर्तन्ति) लौटकर संसारमें नहीं आते (च) और (यतः) जिस परम अक्षर ब्रह्म से (पुराणी) आदि (प्रवृत्तिः) रचना-सृष्टि (प्रसृता) उत्पन्न हुई है (तम्) उस (आद्यम्) सनातन (पुरुषम्) पूर्ण परमात्मा की (एव) ही (प्रपद्ये) मैं शरण में हूँ। पूर्ण निश्चय के साथ उसी परमात्मा का भजन करना चाहिए। (4)
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तुम साहिब तुम सन्त हो,
तुम सतगुरु तुम हंस,,
गरीबदास तव रूप बिन और न दूजा अंश..
तुमने उस दरगाह का ,
महल ना देखा धर्मराय लेगा ,
तील तील का लेखा ।।
एक लेवा एक देवा दुतम ,
कोई किसी का पिता ना पुतम ।
ऋण सबंध जुड़ा है ठाडा ,
अंत समय सब बारह बाटा ।।
कबीर ,कोई कहे जग जौनार ही ,
कोई कहे मोओच्छा ।
कबीर बड़े बड़ाई किया करे,
बुराई करे ओच्छा ।।
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