Wednesday, June 29, 2016

Kabir saheb's dohe

(1)
चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥
(2)
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥
(3)
माला फेरत जुग भयाफिरा न मन का फेर । 
कर का मन का डार देमन का मनका फेर ॥
(4)
तिनका कबहुँ ना निंदयेजो पाँव तले होय । 
कबहुँ उड़ आँखो पड़ेपीर घानेरी होय ॥
(5)
गुरु गोविंद दोनों खड़ेकाके लागूं पाँय । 
बलिहारी गुरु आपनोगोविंद दियो मिलाय ॥
(6)
सुख मे सुमिरन ना कियादु:ख में करते याद । 
कह कबीर ता दास कीकौन सुने फरियाद ॥
(7)
साईं इतना दीजियेजा मे कुटुम समाय । 
मैं भी भूखा न रहूँसाधु ना भूखा जाय ॥
(8)
धीरे-धीरे रे मनाधीरे सब कुछ होय । 
माली सींचे सौ घड़ाॠतु आए फल होय ॥
(9)
कबीरा ते नर अँध हैगुरु को कहते और । 
हरि रूठे गुरु ठौर हैगुरु रूठे नहीं ठौर ॥
(10)
माया मरी न मन मरामर-मर गए शरीर । 
आशा तृष्णा न मरीकह गए दास कबीर ॥
(11)
रात गंवाई सोय केदिवस गंवाया खाय । 
हीरा जन्म अमोल थाकोड़ी बदले जाय ॥
(12)
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
(13)
बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥
(14)
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥

तिनका कबहुँ ना निंदियेजो पाँव तले होय । 
कबहुँ उड़ आँखो पड़ेपीर घानेरी होय ॥ 
(16)
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥
(17)
उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥
(18)
सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥
(19)
साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥
(20)
माला फेरत जुग भयाफिरा न मन का फेर । 
कर का मन का डार देंमन का मनका फेर ॥

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